फ्रांस ने बांग्लादेशी नागरिक को वायु प्रदूषण के कारण नहीं किया निर्वासित
दुनियाभर में 70 लाख से अधिक असामयिक मौतें केवल वायु प्रदूषण के कारण होतीं हैं, पर भारत दुनिया का शायद अकेला देश है जो ऐसी किसी भी रिपोर्ट को लगातार खारिज करता रहा है, दुनिया में जितनी असामयिक मौतें होतीं हैं उसमें से एक-चौथाई से अधिक का कारण वायु प्रदूषण ही है.....
वरिष्ठ पत्रकार महेंद्र पाण्डेय का विश्लेषण
वर्ष 2011 में एक 40 वर्षीय बांग्लादेशी नागरिक फ्रांस में अवैध तरीके से पहुंचा, और फिर उसे एक रेस्टोरेंट में वेटर की नौकरी मिल गई। वर्ष 2012 में उसे फ्रांस सरकार की तरफ से चार वर्षों के लिए अस्थाई आवास की अनुमति भी मिल गई। वह बांग्लादेशी नागरिक अस्थमा से पीड़ित था, और उसका इलाज फ्रांस में किया जा रहा था। जब उसके अस्थाई आवास की अवधि ख़त्म हो गई तब उसे देश छोड़ने का फरमान जारी किया गया।
इसके बाद उसने फ्रांस के बोर्डयूक्स शहर के न्यायालय में इस आदेश को चुनौती देते हुए एक मुक़दमा दायर किया, जिसमें कहा गया था कि फ्रांस में उसका अस्थमा का इलाज चल रहा है और यहाँ की हवा में प्रदूषण का स्तर भी बहुत कम है जिसके कारण उसे बहुत आराम मिल रहा है। पर, उसके देश यानि बांग्लादेश में प्रदूषण का स्तर बहुत अधिक है, जिससे अस्थमा के साथ ही सांस की दूसरी समस्याएं भी बढ़ जायेंगीं और उसकी अकाल मृत्यु भी हो सकती है।
स्थानीय न्यायाधीश ने इस दलील पर पूरी गंभीरता से विचार करने के बाद, उसे फ्रांस में ही रहने की अनुमति प्रदान की और अधिकारियों से देश निकाला से सम्बंधित आदेश वापिस करने का आदेश सुनाया। अदालत में यह भी कहा गया कि जो दवा उसे फ्रांस में मिल रही है, वह दवा बांग्लादेश में उपलब्ध ही नहीं है और फ्रांस में मिलने वाली दवा के असर से उसके फेफड़े की दक्षता 58 प्रतिशत से 70 प्रतिशत तक पहुँच चुकी है।
न्यायाधीश ने यह भी कहा कि ऐसी स्थिति में उसे बांग्लादेश वापस भेजना मौत के मुहं में डालने जैसा होगा और एक सभ्य समाज से यह अपेक्षा नहीं की जा सकती। पूरी दुनिया में सम्भवतः यह अपने किस्म का अकेला फैसला है, जिसमें वायु प्रदूषण के आधार पर अवैध तरीके से दूसरे देश में बसे व्यक्ति को भी देश से बाहर नहीं किया गया।
इससे पहले, लन्दन में फरवरी 2013 में 9 वर्षीया एला किस्सी देब्रह की अकाल मृत्यु को स्थानीय अदालत ने बढे वायु प्रदूषण को मृत्यु का कारण माना और हाल में ही उसके डेथ सर्टिफिकेट में मृत्यु का कारण वायु प्रदूषण बताने का आदेश दिया। जाहिर है, वायु प्रदूषण रोकने में भले ही सरकारें लगातार असफल हो रही हों पर सरकारें और न्यायालय इसे गंभीर और जानलेवा समस्या जरूर मानने लगे हैं।
यहाँ यह ध्यान रखना आवश्यक है कि दुनिया में सबसे प्रदूषित देश में शुमार भारत की सरकार ने आजतक वायु प्रदूषण के कारण बीमार पड़ने या फिर असामयिक मौत को स्वीकार नहीं किया है। यह हालत तब है जब येल और कोलंबिया यूनिवर्सिटी द्वारा प्रकाशित एनवायर्नमेंटल परफोर्मेंस इंडेक्स में शामिल कुल 180 देशों की सूचि में भारत 168वें स्थान पर है और हमारे सभी पड़ोसी देश हमसे बेहतर स्थानों पर हैं।
दुनियाभर में 70 लाख से अधिक असामयिक मौतें केवल वायु प्रदूषण के कारण होतीं हैं, पर भारत दुनिया का शायद अकेला देश है जो ऐसी किसी भी रिपोर्ट को लगातार खारिज करता रहा है। दुनिया में जितनी असामयिक मौतें होतीं हैं उसमें से एक-चौथाई से अधिक का कारण वायु प्रदूषण ही है। दुनियाभर के विशेषज्ञ वायु प्रदूषण को मानव स्वास्थ्य से सम्बंधित वैश्विक आपदा मानते हैं, पर इसपर अधिक चर्चा इसलिए नहीं की जाती है क्योंकि इससे प्रभावित होने वाले और मरने वाले अधितकर गरीब हैं या फिर समाज के हाशिये की आबादी है। लगभग सभी देश सांस के लिए साफ़ हवा को जनता का अधिकार मानते हैं और इसे मौलिक अधिकारों की सूचि में रखते हैं, पर प्रदूषण कम करने का उपाय कोई भी नहीं करता।
भारत के बारे में संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट में बताया गया है कि पर्यावरण संरक्षण के सन्दर्भ में कोविड 19 के पहले भी स्थिति खराब थी, पर अब सरकारी सहायता के बाद कोयला और दूसरे जीवाश्म इंधनों का उपयोग पहले से भी अधिक हो जाएगा।
जाहिर है भारत समेत अनेक दूसरे बड़े देश पर्यावरण सरक्षण के सन्दर्भ में अन्तरराष्ट्रीय मंचों से लच्छेदार भाषण के अतिरिक्त कुछ नहीं करते। यहाँ के पारिस्थितिकी तंत्र में स्थानीय लोगों की कोई भूमिका नहीं होती, बल्कि स्थानीय लोगों को धमकाकर विस्थापित कर दिया जाता है, और फिर जैव-सम्पदा का स्वामित्व बड़े उद्योगपतियों को दे दिया जाता है। इसमें कोई आश्चर्य नहीं है कि पर्यावरण बचाने के संकल्पपत्र पर भारत ने हस्ताक्षर नहीं किये हैं।
फ्रांस के न्यायालय ने एक अवैध तरीके से रहने वाले बांग्लादेशी नागरिक को भी वापस भेजने से इनकार कर दिया, पर दूसरी तरफ हमारे देश के नेता हरेक दिन लोगों को पाकिस्तान भेजने का हुक्म सुनाते हैं।