PM मोदी से लेकर हरेक भाजपाई अल्पसंख्यकों के खिलाफ हिंसा का आह्वान कर उगलते हैं सिर्फ जहर, अध्ययन में बड़ा खुलासा
कुछ समय पहले ही ह्यूमन राइट्स वाच नामक संस्था ने लोकसभा चुनावों के दौरान प्रधानमंत्री मोदी के भाषणों की गहन समीक्षा कर एक रिपोर्ट प्रकाशित की है। इसके अनुसार प्रधानमंत्री मोदी ने अपने 173 चुनावी भाषणों में से 110 में अल्पसंख्यकों, विशेष तौर पर मुस्लिमों, के लिए आपत्तिजनक, भड़काऊ और गरिमा-विहीन भाषा का प्रयोग किया...
नफरती भाषा से किस तरह समाज में फैलती है हिंसा, बता रहे हैं महेंद्र पाण्डेय
Political language is spreading ethnic conflict in the society, and common people are ready to commit horrific crimes against other religion. समरसता वाले समाज में अचानक से धर्मान्धता और अल्पसंख्यकों के प्रति हिंसक नफ़रत के पनपने के बहुत सारे कारण होते हैं, इनमें से कुछ कारण स्पष्ट नहीं होते पर दो कारण – सत्ता की सामाजिक नीतियाँ और सत्ता में बैठे नेताओं द्वारा अल्पसंख्यकों के विरुद्ध हिंसक भाषा का लगातार प्रयोग – बिलकुल स्पष्ट है। हाल में ही ब्रिटिश जर्नल ऑफ़ पोलिटिकल साइंस में इसी विषय पर यूनिवर्सिटी ऑफ़ कोलोराडो बोल्डर के जरोस्लोव टिर और यूनिवर्सिटी ऑफ़ जॉर्जिया के शाने सिंह का एक संयुक्त अध्ययन प्रकाशित किया गया है।
इस अध्ययन के अनुसार वैश्विक स्तर पर धर्म विशेष या अल्पसंख्यकों को मानव से कमतर घोषित करने की परंपरा शुरू हो गयी है। सत्ता के शीर्ष पर बैठे नेता अपने राजनीतिक उद्देश्य को पूरा करने के लिए अल्पसंख्यकों के लिए ऐसे हिंसक और नफरती भाषा का प्रयोग कर रहे हैं, जिससे प्रभावित होकर एक आम आदमी भी हिंसा में लिप्त होने से परहेज नहीं करता है। हम आज उस दौर में खड़े हैं, जहां आदमी की हत्या सामान्य है, पर मारे गए व्यक्ति का धर्म विशेष है – हम हत्या का मातम नहीं मनाते, बल्कि उसके धर्म के आधार पर हत्या को हत्या या सजा बताते हैं।
इस अध्ययन के अनुसार नफरती भाषा की भाषा का अधिक प्रभाव है। उदाहरण के तौर पर भारत में अधिकतर सामान्य लोग हिंदी बोलते हैं और समझते हैं, पर एक बड़ी आबादी अंगरेजी भी समझती है। इस अध्ययन के अनुसार सामान्य आबादी जिस भाषा में बोलती है या जिसे समझती है, उसी भाषा में देश के शीर्ष नेताओं द्वारा या फिर मेनस्ट्रीम मीडिया द्वारा ऐसे भाषणों को प्रचारित करने का समाज पर अधिक प्रभाव पड़ता है और आम जनता भी अल्पसंख्यकों को नफरती नजरिये से देखने लगती है। भारत में सर्वेक्षण से ठीक पहले ही आतंकवादी घटनाएं और चीन की सेना द्वारा भारतीय सेना पर प्रहार की कुछ घटनाएं हुईं थीं। इस अध्ययन में शामिल प्रतिभागियों से हिंदी या अंग्रेजी में देश में मुस्लिम आतंकवाद या चीनी सेना के सीमा पर आतंकवाद पर – विषय का चयन प्रतिभागियों को स्वयं करना था।
अध्ययन का निष्कर्ष है कि हिंदी में जवाब देने वाले लगभग सभी प्रतिभागियों ने मुस्लिम आतंकवाद का चयन किया और सामान्य मुस्लिमों को भी आतंकवादी, कमतर मनुष्य, घुसपैठिया और देश के लिए खतरा बताया। दूसरी तरफ अंगरेजी वाले प्रतिभागियों में से कई ने चीन के आतंकवाद की चर्चा की। गहन विश्लेषण के बाद शोधकर्ता इस नतीजे पर पहुंचे कि भारत में प्रधानमंत्री से लेकर पूरी सत्ता और भाजपा का हरेक कार्यकर्ता अल्पसंख्यकों के विरुद्ध हिंदी भाषा में जहर उगलता है और उनके खिलाफ हिंसा का आह्वान करता है – इसीलिए हिंदी वाले प्रतिभागियों को मुस्लिम कमतर इंसान नजर आता है। दूसरी तरफ, चीन के विरुद्ध सत्ता या बीजेपी शायद ही कभी कुछ कहती है, इसीलिए हिंदी वालों को चीन से कोई खतरा नजर नहीं आता।
प्रधानमंत्री मोदी के बार-बार सत्ता तक पहुँचने का मुख्य आधार ही अल्पसंख्यकों के विरुद्ध नफरती राजनीति है। यह नफरत भाषा से होते हुए सामान्य जनता के व्यवहार और हरकतों तक पहुँच चुकी है, और एक सामान्य नागरिक को भी हिंसक बना चुकी है। इस हिंसा का आलम यह है कि अब तो अल्पसंख्यकों के नाम पर बहुसंख्यक वर्ग के लोगों की हत्याएं की जा रही हैं। प्रधानमंत्री जिस अमृत काल, स्वर्णिम काल और विकसित भारत की बात करते हैं – उसमें हत्याएं और दरिन्दगी ही सबसे सामान्य हैं और इन्हें सत्ता और पुलिस का संरक्षण प्राप्त है। लगातार अल्पसंख्यकों पर जहर उगलने वाले ही बीजेपी का आधारस्तम्भ हैं। कंगना रानावत इसका एक जीवंत नमूना हैं। अमेरिका में और जी20 जैसे मंचों पर भारत को प्रजातंत्र की जननी बताने वाले, वसुधैव कुटुम्बकम का राग अलापने वाले हमारे प्रधानमंत्री खुलेआम मुस्लिमों को घुसपैठिये और अधिक बच्चे पैदा करने वाले बताते हैं।
कुछ समय पहले ही ह्यूमन राइट्स वाच नामक संस्था ने लोकसभा चुनावों के दौरान प्रधानमंत्री मोदी के भाषणों की गहन समीक्षा कर एक रिपोर्ट प्रकाशित की है। इसके अनुसार प्रधानमंत्री मोदी ने अपने 173 चुनावी भाषणों में से 110 में अल्पसंख्यकों, विशेष तौर पर मुस्लिमों, के लिए आपत्तिजनक, भड़काऊ और गरिमा-विहीन भाषा का प्रयोग किया। रिपोर्ट के अनुसार यह एक गंभीर स्थिति है जब देश का सर्वोच्च नेता और संविधान का तथाकथित रखवाला ही संविधान की गरिमा को तार तार करने के साथ ही समाज को बांटने वाले हिंसक भाषा का प्रयोग करने लगे।
पूरी दुनिया में अल्पसंख्यकों पर भाषाई हमले किये जाते हैं, पर ऐसे हमलों में छोटे नेता शामिल रहते हैं, कहीं भी देश का सर्वोच्च नेता ऐसे हिंसक भाषा की अगुवाई नहीं करता। प्रधानमंत्री ने अल्पसंख्यकों के विरुद्ध झूठे दुष्प्रचार और हेट स्पीच को एक नया सामान्य बना डाला है। इन भाषणों के समाज पर सीधा असर भी दिख रहा है – सत्ता और पुलिस के संरक्षण में अल्पसंख्यकों पर हमले हो रहे हैं, उनके घरों को ध्वस्त किया जा रहा है और उनकी हत्या भी की जा रही है।
दरअसल हिंसक भाषा आज की वैश्विक राजनीति का अभिन्न अंग बन गयी है और सोशल मीडिया प्लेटफोर्म इसी भाषा का हरेक स्मार्टफ़ोन में प्रसार कर मालामाल होते जा रहे हैं। डोनाल्ड ट्रम्प ने अपने राष्ट्रपति-काल के दौरान ऐसी भाषा का उपयोग किया जिसका भयानक परिणाम 6 जनवरी 2021 को नजर आया जब उनके हिंसक समर्थकों के हुजूम ने संसद पर हमला कर दिया। ब्राज़ील के पूर्व राष्ट्रपति जेर बोल्सेनारो ने ऐसी ही भाषा का प्रयोग कर अपने समर्थकों को इतना हिंसक बनाया कि ब्राज़ील में संसद से लेकर हरेक संवैधानिक कार्यालय पर हमला किया गया।
हिंसक भाषा वह होती है जब एक समूह, समुदाय या फिर राजनैतिक दल अपने आप को महान साबित करते हुए किसी समुदाय या राजनैतिक दल को ही देश के लिए खतरनाक, राष्ट्रद्रोही या फिर निकम्मा बताता है। भाषा से हिंसा का प्रसार पिछले कुछ वर्षों से इतना व्यापक और खतरनाक हो गया है कि अब तो अमेरिका में कांग्रेस के चुने सदस्यों ने भाषा से फ़ैलाने वाली हिंसा और इसे रोकने के उपायों पर व्यापक बहस शुरू कर दी है।
अमेरिका के लुसिआना स्टेट यूनिवर्सिटी में सोशल साइकोलॉजी की प्रोफ़ेसर कोलीन सिनक्लैर ने हिंसक भाषा पर व्यापक अध्ययन और अनुसंधान किया है। उनके अनुसार जनता, सत्ता और क़ानून की देखभाल करने वालों को यह समझना आवश्यक है कि भाषा से दो वर्गों के बीच आसानी से हिंसा भड़काई जा सकती है। इसके उदाहरण भी बार-बार हमारे सामने आते हैं। हिंसक भाषा हमेशा समाज को दो समुदायों में बांटती है – एक समुदाय “हम” होता है, जिसके बारे में मूल नागरिक, देश का रक्षक, हजारों वर्षों की गौरवशाली परम्परा इत्यादि बताया जाता है; तो दूसरी तरफ दूसरा समुदाय, यानि वो, होते हैं जो देश का नाश कर देते हैं, हिंसक होते हैं, लुटेरे होते हैं, हम से घृणा करने वाले होते हैं।
बार-बार ऐसी भाषा का प्रयोग कर समाज को दो वर्गों में बांटकर “हम” को “वो” के खिलाफ खड़ा किया जाता है और फिर एक समुदाय को दूसरे समुदाय के विरुद्ध हिंसा ही जायज लगने लगती है, यही राष्ट्रवाद लगता है और एक कर्तव्य भी। समस्या तब और गंभीर हो जाती है, जब पुलिस, प्रशासन और न्यायालय सभी बड़े समूह द्वारा की गयी हिंसा को ही सही और क़ानून-सम्मत मानने लगते हैं। अमेरिका में केवल कट्टर दक्षिणपंथी मीडिया की खबरें पढ़ने वाले या देखने वाले 40 प्रतिशत से अधिक नागरिक यह मानते हैं कि देश बचाने के लिए हिंसा का सहारा लेने वाला ही सही मायने में देशभक्त है। हमारे देश में तो यह प्रतिशत बहुत अधिक होगा क्योंकि हमारे देश का पूरा मेनस्ट्रीम मीडिया की कट्टर दक्षिणपंथी है और हिंसक वक्तव्य और सामाजिक हिंसा का पुजारी भी।
पूरी दुनिया में हिंसक भाषा का प्रयोग किया जा रहा है, पर इसमें कोई संदेह नहीं कि हमारा देश ऐसी भाषा में विश्वगुरु है। हमारे यहाँ सत्ता का पूरा आधार ही ऐसी भाषा है, और सत्ता की इस भाषा को सोशल मीडिया के साथ मेनस्ट्रीम मीडिया दिनरात प्रसारित करता है। अब तो यही हमारी राष्ट्रीय भाषा है।
संदर्भ:
1. https://www.cambridge.org/core/journals/british-journal-of-political-science/article/less-human-than-human-threat-language-and-relative-dehumanization/01EE7ED5DD4B8704284D87E4703271BE
2. https://www.hrw.org/news/2024/08/14/india-hate-speech-fueled-modis-election-campaign
3. https://theconversation.com/5-types-of-threat-how-those-who-want-to-divide-us-use-language-to-stoke-violence-196189