Hindi Poems : कहीं दूर जब दिन ढल जाए
Hindi Poems : हिंदी कविताओं में भी शाम पर उदास कविताओं की बहुलता है। गोपालदस नीरज की कविता, शाम का वक्त है ढलते हुए सूरज की किरन, में शाम का वर्णन कुछ ऐसा है मानो, आखों के सामने शाम आ गयी हो।
वरिष्ठ पत्रकार महेंद्र पाण्डेय की टिप्पणी
Hindi Poems : शाम और उदासी का गहरा रिश्ता हिंदी कविताओं (Hindi Poems) में और हिंदी फ़िल्मी गानों में झलकता है। हिंदी फिल्मों में शाम से सम्बंधित तमाम गाने हैं, पर शायद ही कोई गाना ऐसा हो जिसमें शाम और खुशी का रिश्ता हो। याद कीजिये कुछ सदाबहार गाने, "हुई शाम उनका ख़याल आ गया, फिर वही जिन्दगी का सवाल आ गया", "शामे गम की कसम, आज ग़मगीन हैं हम", या फिर "कहीं दूर जब दिन ढल जाए, सांझ की दुल्हन बदन चुराए"। शाम पर किशोर कुमार का गाना है, "ये शाम मस्तानी, मध्श किये जाए" या फिर साहिर लुधियानवी का लिखा और रफ़ी साहब की आवाज में "पर्बतों के पेड़ों पर शाम का बसेरा है, सुरमई उजाला है चम्पई अँधेरा है"।
हिंदी कविताओं में भी शाम पर उदास कविताओं की बहुलता है। गोपालदस नीरज की कविता, शाम का वक्त है ढलते हुए सूरज की किरन, में शाम का वर्णन कुछ ऐसा है मानो, आखों के सामने शाम आ गयी हो। इस कविता में शाम के बहाने से भूख और आजादी की चर्चा भी है।
शाम का वक्त है ढलते हुए सूरज की किरन/गोपालदास नीरज
शाम का वक्त है ढलते हुए सूरज की किरन
दूर उस बाग में लेती है बसेरा अपना
धुन्ध के बीच थके से शहर की आँखों में
आ रही रात है अँजनाती अँधेरा अपना!
ठीक छः दिन के लगातार इन्तजार के बाद
आज ही आई है ऐ दोस्त ! तुम्हारी पाती
आज ही मैंने जलाया है दिया कमरे में
आज ही द्वार से गुज़री है वह जोगिन गाती।
व्योम पे पहला सितारा अभी ही चमका है
धूप ने फूल की अँचल अभी ही छोड़ा है
बाग में सोयी हैं मुस्काके अभी ही कलियाँ
और अभी नाव का पतवार ने रुख मोड़ा है।
आग सुलगाई है चूल्हों ने अभी ही घर-घर
आरती गूँजी है मठ मन्दिरों शिवालों में
अभी हाँ पार्क में बोले हैं एक नेता जी,
और अभी बाँटा टिकिट है सिनेमा वालों ने!
चीखती जो रही कैंची की तरह से दिन-भर
मंडियों बीच अब बढ़ने लगी हैं दूकानें
हलचलें दिन को जहाँ जुल्म से टकराती रहीं
हाट मेले में अब होने लगे हैं वीराने।
बन्द दिन भर जो रहे सूम की मुट्ठी की तरह
खुल गये मील के फाटक हैं वो काले-काले
भरती जाती है सड़क स्याह-स्याह चेहरों से
शायद इनपे भी कभी चाँदनी नजर डाले।
वह बड़ी रोड नाम जिसका है अब गांधी मार्ग
हल हुआ करते हैं होटल में जहाँ सारे सवाल
मोटरों-रिक्शों बसों से है इस तरह बोझिल
जैसे मुफलिस की गरीबी पै कि रोटी का ख़याल
और बस्ती वह मूलगंज जहां कोठों पर
रात सोने को नहीं जागने को आती है
एक ही दिन में जहाँ रूप की अनमोल कली
ब्याह भी करती है और बेवा भी हो जाती है
चमचमाती हुई पानों की दुकानों पे वहाँ
इस समय एक है मेला सा खरीदारों का
एक बस्ती है बसी यह भी राम राज्य में दोस्त
एक यह भी है चमन वोट के बीमारों का।
बिकता है रोज यहीं पर सतीत्व सीता का
और कुन्ती का भी मातृत्व यहीं रोता है
भक्ति राधा की यहीं भागवत पे हँसती है।
राष्ट्र निर्माण का अवसान यहीं होता है !
आके इस ठौर ही झुकता है शीश भारत का
जाके इस जगह सुबह राह भूल जाती है
और मिलता है यहीं अर्थ गरीबी का हमें
भूख की भी यहीं तस्वीर नज़र आती है!
सोचता हूँ क्या यही स्वप्न था आज़ादी का?
रावी तट पे क्या क़सम हमने यह खाई थी?
क्या इसी वास्ते तड़पी थी भगतसिंह की लाश?
दिल्ली बापू ने गरम खून से नहलाई थी?
अब लिखा जाता नहीं, गर्म हो गया है लहू
और कागज़ पे क़लम काँप काँप जाती है
रोशनी जितनी ही देता हूँ इन सवालों को
शाम उतनी ही और स्याह नज़र आती है
इसलिए सिर्फ रात भर के वास्ते दो विदा
कल को जागूँगा लबों पर तुम्हारा नाम लिये
वृद्ध दुनियाँ के लिये कोई नया सूर्य लिये
सूने हाथों के लिये कोई नया काम लिये!
भगवतीचरण वर्मा ने अपनी कविता, आज शाम है बहुत उदास, में एकाकीपन और उदासी को शामिल किया है।
आज शाम है बहुत उदास/भगवतीचरण वर्मा
आज शाम है बहुत उदास
केवल मैं हूँ अपने पास ।
दूर कहीं पर हास-विलास
दूर कहीं उत्सव-उल्लास
दूर छिटक कर कहीं खो गया
मेरा चिर-संचित विश्वास ।
कुछ भूला सा और भ्रमा सा
केवल मैं हूँ अपने पास
एक धुन्ध में कुछ सहमी सी
आज शाम है बहुत उदास ।
एकाकीपन का एकान्त
कितना निष्प्रभ, कितना क्लान्त ।
थकी-थकी सी मेरी साँसें
पवन घुटन से भरा अशान्त,
ऐसा लगता अवरोधों से
यह अस्तित्व स्वयं आक्रान्त ।
अंधकार में खोया-खोया
एकाकीपन का एकान्त
मेरे आगे जो कुछ भी वह
कितना निष्प्रभ, कितना क्लान्त ।
उतर रहा तम का अम्बार
मेरे मन में व्यथा अपार ।
आदि-अन्त की सीमाओं में
काल अवधि का यह विस्तार
क्या कारण? क्या कार्य यहाँ पर ?
एक प्रश्न मैं हूँ साकार ।
क्यों बनना? क्यों बनकर मिटना ?
मेरे मन में व्यथा अपार
औ समेटता निज में सब कुछ
उतर रहा तम का अम्बार ।
सौ-सौ संशय, सौ-सौ त्रास,
आज शाम है बहुत उदास ।
जोकि आज था तोड़ रहा वह
बुझी-बुझी सी अन्तिम साँस
और अनिश्चित कल में ही है
मेरी आस्था, मेरी आस ।
जीवन रेंग रहा है लेकर
सौ-सौ संशय, सौ-सौ त्रास,
और डूबती हुई अमा में
आज शाम है बहुत उदास ।
कविता गौड़ ने अपनी कविता, शाम, में बताया है कि हरेक दिन शाम होगी यह सत्य है, पर हरेक शाम अलग होती है।
शाम/कविता गौड़
शाम होते ही याद आने लगी उनकी
वे होते तो शाम रंगीन होती
वैसे तो रोज शाम होती है
पर कहाँ वो रंगीन होती है
मन जब ख़ुश होता है
तो शाम रंगीन होती है
दुख के पहाड़ टूटें तो
शाम गमगीन होती है
हो चुहलबाजियाँ तो
तो शाम नमकीन होती है
कुछ भी हो जाए चाहे
हर दोपहर के बाद शाम होती है
शम्भुनाथ तिवारी ने अपनी कविता, बीत गया दिन आई शाम, में शाम का परम्परागत चित्रण किया है।
बीत गया दिन आई शाम/शम्भुनाथ तिवारी
धीरे-धीरे सिमट रही है,
पश्चिम में पूरब की लाली।
झुंड – झुंड चिड़ियाँ बैठी हैं,
पेड़ों की हर डाली – डाली।
सारे दिन के कोलाहल से,
करना है कुछ तो आराम।
बीत गया दिन आई शाम!
सूरज छोड़ रहा धरती पर,
अपनी अंतिम लाल निसानी।
घोल दिया सिंदूर किसी ने,
ऐसा लगे ताल का पानी।
कमल-कोष में बंद रात भर,
भँवरे कर लेंगे विश्राम।
बीत गया दिन आई शाम!
गायें लौट रही हैं घर को,
बछड़े टक-टक ताक रहे हैं।
बच्चे खड़े – खड़े खिड़की से,
दूर – दूर तक झाँक रहे हैं।
अब तक आए नहीं पिता जी,
जाने उलझ गए किस काम।
बीत गया दिन आई शाम!
मौसम से अठखेली करते,
शीतल –मंद हवा के झोंके।
मचल रहा मन बाहर घूमें,
घर में कौन रुका है रोके।
बच्चे निकल पड़े सड़कों पर,
दादा जी की उँगली थाम।
बीत गया दिन आई शाम!
भाग-दौड़ के इस जीवन में,
सबकी अपनी राम –कहानी।
चैन किसी को कैसे मिलता,
अगर न होती शाम सुहानी।
शाम हुई घर जल्दी जाना,
निपटाकर सब अपने काम।
बीत गया दिन आई शाम!!
केदारनाथ सिंह की एक प्रसिद्ध कविता है, शाम बेच दी है।
शाम बेच दी है/केदारनाथ सिंह
शाम बेच दी है
भाई, शाम बेच दी है
मैंने शाम बेच दी है!
वो मिट्टी के दिन, वो धरौंदों की शाम,
वो तन-मन में बिजली की कौंधों की शाम,
मदरसों की छुट्टी, वो छंदों की शाम,
वो घर भर में गोरस की गंधों की शाम
वो दिनभर का पढना, वो भूलों की शाम,
वो वन-वन के बांसों-बबूलों की शाम,
झिडकियां पिता की, वो डांटों की शाम,
वो बंसी, वो डोंगी, वो घाटों की शाम,
वो बांहों में नील आसमानों की शाम,
वो वक्ष तोड-तोड उठे गानों की शाम,
वो लुकना, वो छिपना, वो चोरी की शाम,
वो ढेरों दुआएं, वो लोरी की शाम,
वो बरगद पे बादल की पांतों की शाम
वो चौखट, वो चूल्हे से बातों की शाम,
वो पहलू में किस्सों की थापों की शाम,
वो सपनों के घोडे, वो टापों की शाम,
वो नए-नए सपनों की शाम बेच दी है,
भाई, शाम बेच दी है, मैंने शाम बेच दी है।
वो सडकों की शाम, बयाबानों की शाम,
वो टूटे रहे जीवन के मानों की शाम,
वो गुम्बद की ओट हुई झेपों की शाम,
हाट-बाटों की शाम, थकी खेपों की शाम,
तपी सांसों की तेज रक्तवाहों की शाम,
वो दुराहों-तिराहों-चौराहों की शाम,
भूख प्यासों की शाम, रुंधे कंठों की शाम,
लाख झंझट की शाम, लाख टंटों की शाम,
याद आने की शाम, भूल जाने की शाम,
वो जा-जा कर लौट-लौट आने की शाम,
वो चेहरे पर उडते से भावों की शाम,
वो नस-नस में बढते तनावों की शाम,
वो कैफे के टेबल, वो प्यालों की शाम,
वो जेबों पर सिकुडन के तालों की शाम,
वो माथे पर सदियों के बोझों की शाम
वो भीडों में धडकन की खोजों की शाम,
वो तेज-तेज कदमों की शाम बेच दी है,
भाई, शाम बेच दी है, मैंने शाम बेच दी है।
इस लेख के लेखक की एक कविता में शहर की शाम का वर्णन है. कविता का शीर्षक है, शहर की शाम।
शहर की शाम/महेंद्र पाण्डेय
अजीब होती है शहर की शाम
रौशनी की चकाचौंध के बीच
सडकों पर रेंगते वाहन
वाहनों के बीच रास्ता बनाते
एक बच्चे को छाती से चिपकाए
दूसरे का कसकर हाथ पकडे
सर पर लकड़ी का गट्ठर उठाये
मजदूर महिलाओं का काफिला
फावड़ा-कुदाल उठाये
कल की चिंता में लीन
मजदूरों का झुण्ड
भव्य कोठियों और अपार्टमेंट
के पीछे की झुग्गियों से
धीरे-धीरे आसमान छूता काला गाढे धुवां
इन सबके बीच धीरे-धीरे
क्षितिज में समाता सूरज
और, पंछियों की लम्बी उड़ान
धीरे-धीरे काला होता आसमान
और, रात के लिए सजता शहर
दारु के ठेके की भीड़
और घर पर इंतज़ार करती महिलायें
बस, इतनी सी है शहर की शाम