अब तो आदमी दिखते हैं, पक्षी नहीं | Hindi Poems on Birds |

Hindi Poems on Birds | दुनियाभर में आदमी फैलते जा रहे हैं और पक्षी गायब होते जा रहे हैं| हरेक वर्ष जनवरी-फरवरी के महीने में दिल्ली और आसपास के क्षेत्रों में पक्षियों के प्रजातियों की गणना की जाती है|

Update: 2022-03-06 06:57 GMT

महेंद्र पाण्डेय की रिपोर्ट

Hindi Poems on Birds | दुनियाभर में आदमी फैलते जा रहे हैं और पक्षी गायब होते जा रहे हैं| हरेक वर्ष जनवरी-फरवरी के महीने में दिल्ली और आसपास के क्षेत्रों में पक्षियों के प्रजातियों की गणना की जाती है| इस वर्ष यह गणना दिल्ली में फरवरी के तीसरे सप्ताह में की गई और पक्षियों की कुल 214 प्रजातियाँ देखी गईं| पक्षियों के प्रजातियों की यह संख्या वर्ष 2014 के बाद से सबसे कम है, उस वर्ष 206 प्रजातियाँ ही देखी गईं थीं| वर्ष 2018, 2019, 2020 और 2021 में पक्षियों की संख्या क्रमशः 237, 247, 253 और 244 थीं| दिल्ली में अत्यधिक वायु प्रदूषण और जहरीली यमुना के बाद भी पक्षियों की बहुलता है, पर अब धीरे-धीरे इनकी संख्या लगातार कम हो रही है| इसका सबसे बड़ा कारण है सेंट्रल विस्टा जैसे विशालकाय प्रोजेक्ट और मेट्रो के कारण दिल्ली में चारों तरफ निर्माण कार्य| पिछले कुछ वर्षों से दिल्ली का भूगोल पूरी तरह बदल चुका है, और पक्षी गायब होते जा रहे हैं| हिंदी में पक्षियों पर ढेरों कवितायें लिखी गईं हैं| अमरजीत कौंके ने अपनी कविता, पक्षियों जैसा आदमी, में लिखा है - पक्षियों को हथेलियों पर चुग्गा चुगाने के लिये पहले खुद पक्षियों जैसा पड़ता है होना|

पक्षियों जैसा आदमी/अमरजीत कौंके

साँझ ढले

वह घने पेड़ों के पास आता

साईकिल से उतर कर

हैंडल से थैला उतारता

घँटी बजाता

घँटी की टनाटन सुन कर

पेड़ों से उड़ते

छोटे-छोटे पक्षी आते

उसके सिर पर

कुछ उसके कँधें पर बैठ जाते

कुछ साईकिल के हैंडल पर

जैसे दावत खाने के लिये

आन सजते शाही मेहमान

वह अपने थैले में से

दानों की एक मुट्ठी निकालता

अपनी हथेली खोलता

पक्षी उसके हाथों पर बैठ कर

चुग्गा चुगने लगते

चहचहाते

उसके हाथ उन के लिए

प्लेटें जैसे

शाही दावत वाली

सोने चांदी की

चुग्गा चुग कर

पक्षी उड़ जाते

वह आदमी खाली थैला

हैंडल से लटकाता

घँटी बजाता

चला जाता

हैरान होता देख कर मैं

पक्षियों की यह अनोखी दावत 

कितना सुखद अहसास है

ऐसे समय में

परिंदों को चुग्गा चुगाना

लेकिन पक्षियों को

हथेलियों पर चुग्गा चुगाने के लिये

पहले खुद पक्षियों जैसा

पड़ता है होना|

नरेश अग्रवाल ने अपनी कविता, पक्षी, में लिखा है - वापस उड़ जाते हैं अपनी पूरी ताकत से, बिना किसी शोर के बादलों में वाष्पित जल की तरह|

पक्षी/नरेश अग्रवाल

कितने अच्छे लगते हैं

ये पक्षी

जब उतरते हैं धीरे-धीरे

आसमान से

बहते हुए पत्तों की तरह

और अपना पूरा शरीर

ढ़ीला-ढ़ाला कर

रख देते हैं जमीन पर

फिर कुछ देर खाते-पीते हैं

फुदकते हैं इधर-उधर और

वापस उड़ जाते हैं

अपनी पूरी ताकत से,

बिना किसी शोर के बादलों में

वाष्पित जल की तरह|

देखता हूँ हर दिन

इसी तरह इनका आना और जाना

और चिन्तित नहीं देखा इन्हें कभी

आने वाले कल के लिए|

अशोक लव ने अपनी कविता, उड़-उड़ जाते पक्षी, में लिखा है - ऋतुएं होती रहती हैं परिवर्तरित, पक्षी करते रहते हैं परिवर्तरित स्थान, पक्षियों के उड़ जाते ही छा जाता है सन्नाटा|

उड़-उड़ जाते पक्षी/अशोक लव

पक्षी नहीं रहते सदा

एक ही स्थान पर

मौसम बदलते ही बदल लेते हैं

अपने स्थान

सर्दियों में गिरती है जब बर्फ

छोड़ देते हैं घर-आँगन

उड़ते हैं

पार करते हैं हजारों-हज़ार किलोमीटर

और तलाशते हैं

नया स्थान

सुख-सुविधाओं से पूर्ण

अनुकूल परिस्थितियों का स्थान

सूरज जब खूब तपने लगता है

धरती जब आग उगलने लगती है

सूख जाते हैं तालाब

नदियाँ बन जाती हैं क्षीण जलधाराएँ

फिर उड़ जाते हैं पक्षी

शीतल हवाओं की तलाश में

फिर उड़ते हैं पक्षी हजारों-हज़ार किलोमीटर

फिर तलाशते हैं नया स्थान

और बनाते हैं उसे अपना घर

ऋतुएं होती रहती हैं परिवर्तरित

पक्षी करते रहते हैं परिवर्तरित स्थान

पक्षियों के उड़ जाते ही

छा जाता है सन्नाटा

पंखों में नाचने वाली हवा

उदास होकर बहती है खामोशियों की गलियों में

वेदानाओं से व्यथित वृक्ष हो जाते हैं पत्थर

शापित अहल्या के समान

खिखिलाते पत्तों की हंसी को

लील जाती है काली नज़र

बन जाती है इतिहास

पक्षियों की जल-क्रीड़ाएं

उदास लहरें लेती रहती हैं

ओढ़कर निराशा की चादरें

पुनः होती है परिवर्तरित

पुनः आ जाते हैं पक्षी

हवाएँ गाने लगती हैं स्वागत गीत

चहकती हैं

अल्हड़ युवती-सी उछलती-कूदती हैं

झूमाती-झूलाती टहनी-टहनी पत्ते-पत्ते

बजने लगते हैं लहरों के घूँघरू

लौट आते हैं त्योहारों के दिन

वृक्षों, झाड़ियों नदी किनारों पर

एक तीस-सी बनी रहती है फिर भी

आशंकित रहते हैं सब

उड़ जायेंगे पुनः पक्षी एक दिन

कुमार रविन्द्र ने अपनी कविता, काश हम पक्षी हुए होते, में लिखा है – काश, उड़कर उन सभी गहराइयों को नापते हम|

काश, हम पक्षी हुए होते/कुमार रवीन्द्र

काश!

हम पक्षी हुए होते

इन्हीं आदिम जंगलों में घूमते हम 

नदी का इतिहास पढ़ते

दूर तक फैली हुई इन घाटियों में

पर्वतों के छोर छूते

रास रचते इन वनैली वीथियों में 

फुनगियों से

बहुत ऊपर चढ़

हवा में नाचते हम 

इधर जो पगडंडियाँ हैं

वे यहीं हैं खत्म हो जातीं

बहुत नीचे खाई में फिरती हवाएँ

हमें गुहरातीं 

काश!

उड़कर

उन सभी गहराइयों को नापते हम

 

अभी गुज़रा है इधर से

एक नीला बाज़ जो पर तोलता

दूर दिखती हिमशिला का

राज़ वह है खोलता 

काश!

हम होते वहीं

तो हिमगुफा के सुरों की आलापते हम

हिंदी के मूर्धन्य कवि रामधारी सिंह दिनकर ने अपनी कविता, पक्षी और बादल, में लिखा है - हम तो समझ नहीं पाते हैं, मगर उनकी लायी चिठि्ठयाँ पेड़, पौधे, पानी और पहाड़ बाँचते हैं|

पक्षी और बादल/रामधारी सिंह दिनकर

ये भगवान के डाकिये हैं,

जो एक महादेश से

दूसरे महादेश को जाते हैं|

हम तो समझ नहीं पाते हैं,

मगर उनकी लायी चिठि्ठयाँ

पेड़, पौधे, पानी और पहाड़

बाँचते हैं|

हम तो केवल यह आँकते हैं

कि एक देश की धरती

दूसरे देश को सुगन्ध भेजती है|

और वह सौरभ हवा में तैरती हुए

पक्षियों की पाँखों पर तिरता है|

और एक देश का भाप

दूसरे देश का पानी

बनकर गिरता है|

इस लेख के लेखक की एक कविता है, आदिवासी और पक्षी| इसमें बताया गया है कि जब से आदिवासियों को खदेड़ कर जंगलों को पूंजीपतियों के हवाले कर दिया गया है, पक्षी भी गायब हो गए हैं|

आदिवासी और पक्षी/महेंद्र पाण्डेय

आदिवासी जानते थे जंगलों को

पशुओं को, पक्षियों को, नदियों को

दूर आवाज से पहचान जाते थे उनका रंग

पहचान जाते थे आदमखोरों की आहट

जान जाते थे नदी के पानी का उतार-चढ़ाव

वे जानते थे, पक्षियों का रंग, आकार और स्वभाव

जानते थे, किस पेड़ पर कौन सा

पक्षी जमाता है डेरा

पर, मैं पुरानी बातें कर रहा हूँ

अब, नहीं है आदिवासी

सरकारी फाइलों में वे नामजद हैं

नक्सली और माओवादी के नाम से

उनके जंगल पर पूंजीपतियों का कब्जा है

जंगल परती भूमि में तब्दील हो गए हैं

नदियाँ सूख चुकी हैं

पेड़ कट चुके हैं

और, पक्षी जा चुके हैं

पूंजीपतियों के घरों में और कार्यालयों में

बड़ी-बड़ी महंगी पेंटिंग लटकीं हैं आदिवासियों की

नदियों की और, पक्षियों की| 

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