हिंदुस्तान बनाम मोदीस्तान : 7 सालों में प्रधानमंत्री की यात्रा पर प्रतिदिन खर्च हुए 3 करोड़ रुपये
अगर इन यात्राओं पर हुए ख़र्चों की बात करते हैं तो इन सात सालों में सिर्फ और सिर्फ 7658 करोड़ रुपये खर्च हुए यानि कि प्रतिदिन केवल 3 करोड़ रुपया....
डॉ. अंजुलिका जोशी का विश्लेषण
जनज्वार। 26 मई 2021 को केंद्र की मोदी सरकार के 7 साल पूरे हुए। बहुत ही प्रसन्नता के साथ मैंने इसे याद किया क्योंकि कम से कम सात साल तो निकल ही गए जैसे तैसे, अब सिर्फ 6 महीने की बात और है, फिर साढ़े साती की अवधि समाप्त। बस यूँ ही मन किया कि एक बार सात साल पीछे चलकर याद करें तब क्या माहौल था, क्या नज़ारा था।
तो जी...अच्छे दिन की शुरुआत हुई 26 मई 2014 को। क्या अद्भुत शुरुआत थी। राष्ट्रपति भवन के परिसर को अंदर से नहीं बाहर से दुल्हन की तरह सजाया गया था क्योंकि वहां पर नरेंद्र दामोदर दास मोदी शपथ लेने वाले थे। भारत ही नहीं हिंदुस्तान के बाहर से भी लोगों को आमंत्रित किया गया था, चाहे वो सार्क देशों के राष्ट्राध्यक्ष हों या दूसरे देशों के प्रधानमंत्री, बॉलीवुड हो या बड़े कारोबारी, सभी को निमंत्रण दिया गया था। बहुत ही शानदार तरीके से शपथ ग्रहण समारोह संपन्न हुआ और भारत पर ग्रहण शुरू? ऐसा मैं नहीं बाकी लोग कहते हैं।
दरससल वो शपथ ग्रहण समारोह नहीं इवेंट मैनेजमेंट था। प्रचार-प्रसार का जो दौर वहां से शुरू हुआ वो आजतक चलता ही जा रहा है। योजनाएं बनने लगी कि कैसे भारत की छवि सुधारी जाये? ..और वह घर बैठकर तो सुधर नहीं सकती थी इसलिए प्रधानमंत्री जी के राष्ट्रीय व अन्तर्राष्ट्रीय दौरे शुरू हो गए। उनकी कुर्बानी का आलम देखिये की 7 साल यानि 2555 दिनों के अपने राज में उन्होंने केवल 682 दिन यात्राएं कीं जिसमे से 212 दिन विदेश दौरों में और 470 दिन देश के भीतर अलग-अलग राज्यों के दौरों में बिताए।
अब अगर देश-विदेश को जानना समझना है तो ये तो करना ही पड़ेगा। अगर यात्राएं होंगी तो करोड़ों रूपये भी खर्च होंगे। इसमें नया क्या है? और राष्ट्रीय दौरों में चुनावी रैलियां तो शामिल होंगी ही। इसमें मुझे कोई गलत बात नज़र नहीं आती है क्योंकि देश का विकास सिर्फ बीजेपी के ही हाथों हो सकता है इसलिए चुनावीं रैलियां तो करनी ही थीं। अब मोदी जी कब पार्टी के अध्यक्ष की तरह और कब प्रधानमंत्री की तरह काम करें यह सोचने लगें, तब तो उन्हें 18 घंटों की जगह 24 घंटे काम करना पड़ेगा। आखिर इंसान कुछ आराम करेगा या नहीं?
अब लोग इसमें हो-हल्ला मचा रहे हैं कि इन चुनावी रैलियों का खर्चा सरकार ने क्यों उठाया तो भई सरकार और बीजेपी कोई अलग तो है नहीं कि रैलियों का खर्चा पार्टी दे और सरकारी दौरों का सरकार। हमें तो गर्व होना चाहिए कि 70 वर्ष के इतिहास में हमें एक ऐसे प्रधानमंत्री मिले जो हर 3 दिन सात घंटे के बाद अपना निवास स्थान छोड़कर यात्रा पर निकल जाते थे। देश को चलाने के लिए तो पीएमओ था ही।
अगर इन यात्राओं पर हुए ख़र्चों की बात करते हैं तो इन सात सालों में सिर्फ और सिर्फ 7658 करोड़ रुपये खर्च हुए यानि कि प्रतिदिन केवल 3 करोड़ रुपया। अब ये राशि प्रधानमंत्री जी के प्रसार व प्रचार के लिए कोई ख़ास राशि तो है नहीं। इतने महत्वपूर्ण व्यक्ति पर इतना खर्च तो लाजिमी है। अब शपथ लेने के बाद उस भारत को, जो बीजेपी की सरकार के हिसाब से रसातल में चला गया था, की साख बचाने और सुधार करने के लिए कुछ तो करना ही था, तो फिर आनन-फानन में देशहित में 250 से ज़्यादा योजनाओं का ऐलान कर दिया गया।
जन-धन योजना, मेक इन इंडिया योजना, उज्ज्वला योजना, डिजिटल इंडिया मिशन, पीएम बीमा योजनायें, आयुष्मान भारत, स्वच्छ गंगा मिशन वगैरह-वगैरह। कोई 20,000 करोड़ की तो कोई 30,000 करोड़ या उससे भी ज़्यादा की योजनाएं। अब योजनाएं जब जनता के लिए हैं तो पैसा भी जनता का ही लगेगा, रिज़र्व बैंक भी भारत की जनता के लिए ही है तो फिर किस बात की फिक्र? अगर उसमे से ज़्यादा नहीं सिर्फ 5,44,732 करोड़ रूपये की रिकॉर्ड राशि (जो स्वतंत्र भारत में अबतक की सबसे ज्यादा राशि है) निकाल ली गयी तो क्या हुआ? रुपया तो हाथ का मैल है फिर से आ जाएगा।
आप चाहें या न चाहें मोदीजी सेवाजीवी हैं और वो आपकी सेवा करके ही रहेंगे। अब देखिये न किसान लाख चिल्ला-चिल्लाकर कहें कि नहीं चाहिए भलाई के कृषि कानून लेकिन मोदी जी भला करके ही रहेंगें। इतना सेवा भाव? मेरी तो आँखें भर आयीं। पता नहीं क्यों सब इनके पीछे ही पड़ गए हैं। इतनी योजनाओं को चलाने के लिए धनराशि की आवश्यकता तो होगी ही और फिर सिर्फ 5 साल थोड़े न सरकार चलानी थीं। अगर सेवा करनी है तो सरकार आगे भी बनानी होगी। भारत में मूर्खों की कमी तो है नहीं, अगर उन्होंने वोट न दिया और पार्टी के हारने के आसार दिखे तो दूसरी पार्टियों के विधायक भी तो खरीदने होंगे।
अब इन सब सेवा कार्यों में खर्चा तो होता ही है। इसीलिए दूरदर्शिता दिखाते हुए सरकार ने पब्लिक सेक्टर की कंपनियों को बेचने का दौर शुरू कर किया। यहीं सारा पैसा प्रधानमंत्री के प्रचार-प्रसार और अनूठी योजनाओं में खर्च होने लगा। अब अगर अधिकतर योजनाएं सफल नहीं हुईं तो क्या किया जा सकता है? प्रधानमंत्री जी सिर्फ योजनाएं ऐलान ही तो कर सकते हैं उनको चलाने की जिम्मेदारी उनकी थोड़ी न है। फिर पिछली सरकारों ने इतना भ्रष्टाचार फैला दिया था कि कंगाली में आटा गीला होना ही था।
इस बात से तो कतई इनकार नहीं किया जा सकता है कि देश की अर्थव्यवस्था सुधारने में पूंजीपतियों का बहुत बड़ा हाथ होता है और उनका साथ अतिआवश्यक है। आखिर उनका भी तो योगदान महत्वपूर्ण है। तो जी शुरू हो गया बाटर सिस्टम, मतलब की एक हाथ दे और एक हाथ ले। अगर उनका फायदा नहीं होगा तो देश प्रगति कैसे करेगा? प्रगति तो सिर्फ और सिर्फ पूंजीपतियों के ऊपर ही निर्भर है, बाकी सब तो सिर्फ स्वार्थ में जी रहे हैं तो फिर कोयला की दलाली में मुँह क्यों काला करना। गरीबी का अंत ही तो करना था तो पूरा जोर लगा दिया गरीबों का अंत करने में और मध्यवर्गीय का तो काम ही है नौकरी ढूंढना तो उन्हें भी काम पर लगा दिया।
आप इसे गलत कैसे कह सकता हैं? जिसको देखो बेरोजगारी का रोना रो रहे हैं तो भई हर सरकार में बेरोजगारी थी और मोदी जी तो आये ही थे विकास के नाम पर तो बढ़ा दी गयी रिकॉर्ड बेरोजगारी। दूसरी तरफ मोदी जी की कृपा से एशिया में अम्बानी जी नंबर 1 और अडानी जी नंबर 2 पूंजीपति बन गए। विकास के लिए रिकॉर्ड जो स्थापित करना था। अंधा बांटे रेवड़ी, फिर-फिर अपनों को दे। ये तो ज़रूरी ही था। इसी के चलते ही तो मोदी जी ने देश भलाई की खातिर अपने पीएम केअर्स फंड से वेंटीलेटर खरीदने का ठेका गुजरात के उसी लाला को दिया जिसने सोने की कढ़ाई किया हुआ 10 लाख का मोदी-मोदी लिखा हुआ सूट दिया था। देखिये वो किसी का उधार नहीं रखते। बाटर सिस्टम। लेकिन अब वो मशीन ही तो थी ख़राब निकल गयी। क्या किया जा सकता है?
एक और महत्वपूर्ण कार्य जो मोदी जी के राज में हुआ वो था योजना आयोग को ख़त्म करना और नीति आयोग का गठन। अब इसपर भी विपक्ष सवाल उठाने लगा कि योजना आयोग डाटा का प्रमुख केंद्र था। उसके द्वारा हमें जानकारी मिलती थी कि सरकारी योजनाओं का कार्यान्वयन कैसे हो रहा है, जबकि नीति आयोग में ऐसा नहीं है? लेकिन विपक्ष को क्यों जानना कि पैसा कहां जा रहा है किस पर खर्च हो रहा है? भारत ने जिसे बहुमत से चुना है, सबको बिना कुछ सवाल करे विश्वास करना ही चाहिए। राम भक्ति तक तो ठीक थी लेकिन मोदी भक्ति की अफीम की लत कैसे छूटेगी? हम तो कहते हैं राम मंदिर बाद में पहले मोदी मंदिर ही बना देना चाहिए।
क्या कहा, बोलने की आज़ादी, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता? ये किस चिड़िया का नाम है? सब अपनी-अपनी ढपली, अपना-अपना राग अलापेंगे और सरकार कुछ नहीं करेगी? इन सब को अगर रोका नहीं गया तो दंगा नहीं हो जाएगा? इसीलिए तो क्या व्हाट्सएप्प, क्या ट्विटर और क्या फेसबुक सभी के लिए सरकार कानून बना रही है। यह बात अलग है कि ये सोशल मीडिया वाले जबरदस्ती फालतू में सरकार को कोर्ट में घसीटे जा रहे लेकिन कोई बात नहीं..सारे सरकारी लोकतांत्रिक संस्थान तो हमारी मुट्ठी में हैं। सैयां भये कोतवाल तो अब डर काहे का?
विमुद्रीकरण (Demonetization) के बाद इतना पैसा किसके पास है जो हमारा मुकाबला कर सके? आएगा तो मोदी ही। ऐसे मूर्खों का क्या किया जा सकता है जो GST आने पर ख़ुशी से पटाखे फोड़ते हैं कि जी वाह क्या बात है! हम तो टैक्स देंगे। अपने टैक्स के पैसे पर टैक्स। चाहें वो बैंक से निकलना हो या जमा करवाना हो, कोई चीज़ खरीदनी हो या कोई बिज़नेस ही करना हो। आखिर मंदिर में भी तो दान करते ही हैं तो क्या हुआ अगर हमारी जीडीपी बांग्लादेश से भी गयी बीती है? अगर हमें हिन्दू राष्ट्र बनाना है तो इतना बलिदान तो देना ही होगा।
(लेखिका डॉ. अंजुलिका जोशी मूलत: बायोकैमिस्ट हैं और उन्होंने NCERT के 11वीं-12वीं के बायोटैक्नोलॉजी विषय पाठ्यक्रम को सुनिश्चित करने में अपना योगदान दिया है।)