प्रधान सेवक मोर चुगाएँ तो प्रधानमंत्री और अन्नदाता पैंट-शर्ट में दिख जाएं तो नकली किसान

किसानों और श्रमिकों के तन पर ढंग के कपड़े नहीं होने चाहिए, उन्हें नंगा दिखना चाहिए, इस तरह की प्रतिक्रिया देने वाले तमाम लोग इस देश और समाज के असली अपराधी हैं...

Update: 2020-11-29 16:47 GMT

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किसान आंदोलन पर वरिष्ठ पत्रकार समरेंद्र सिंह की टिप्पणी

जनज्वार। किसानों के मामले पर एक से बढ़ कर एक प्रतिक्रियाएं आ रही हैं। कोई उनकी गाड़ियां देख रहा है। कोई उनका पहनावा। ऐसे लोगों की नजर में किसानों और श्रमिकों को भूखा-नंगा होना चाहिए। और भूखे-नंगे किसानों और श्रमिकों का प्रधानमंत्री/ प्रधान सेवक अगर लाखों/करोड़ों रुपये का सूट पहने, चमचमाती विदेशी गाड़ियों के काफिले में घूमे, सैकड़ों करोड़ रुपये के हवाई जहाज में सफर करे और जिस समय लोग बेबसी और बीमारी में दम तोड़ रहे हों, वो प्रधान सेवक आलीशान बंगले में बैठ कर मोर को दाना चुगाए तो वो सब जायज है। बस किसानों और श्रमिकों के तन पर ढंग के कपड़े नहीं होने चाहिए। उन्हें नंगा दिखना चाहिए।

इस तरह की प्रतिक्रिया देने वाले तमाम लोग इस देश और समाज के असली अपराधी हैं। इनमें से कुछ लोगों को मैं भी जानता हूं। उनमें से कुछ के बाप किसान हैं। कुछ के बाप टीचर हैं। मगर ये दिल्ली-नोएडा में बैठ कर भांट बने हुए हैं। अपने-अपने सियासी दड़बे में बैठ कर नैरेटिव गढ़ते रहते हैं। छल-प्रपंच रचते हैं। कोई कांग्रेस दफ्तर या फिर जवाहर भवन में बैठ कर छल कर रहा है तो कोई झंडेवालान और बीजेपी दफ्तर में बैठ कर।

इनकी नजर में हर मसला सियासी मसला है और इन्हें अपने धड़े के पक्ष में या फिर विरोधियों के खिलाफ माहौल बनाना है। मत तैयार करना है। अगर ऐसा नहीं होता तो किसानों और श्रमिकों से जुड़े मामलों पर संजीदगी से बहस होती।

आखिर कृषि कानूनों में ये बदलाव क्यों हुए? ये बदलाव इसलिए हुए क्योंकि कांग्रेस की हुकूमत ने उदारीकरण की नीति को मंजूरी दी थी। WTO समझौते पर दस्तखत किए थे। ये सुधार उसी करार की अगली कड़ी है। हर तरह की सब्सिडी खत्म करनी है। किसानों को और खेतों को बाजार के हवाले करना है। सिर्फ किसान ही क्यों, हर तरह के रोजगार को बाजार के हवाले करना है। श्रमिकों को पूरी तरह बाजार के हाल पर छोड़ना है।

अब सियासी कारणों से कांग्रेस ने अपने उस अपराध और फैसले पर पर्दा डाल कर किसानों का जत्था पंजाब से दिल्ली के लिए रवाना कर दिया है। यहां मनमोहन सिंह और सोनिया गांधी को यह साफ करना चाहिए कि अगर उनकी सरकार बनी तो क्या वो भारत को WTO से बाहर निकालेंगे? क्या वो WTO के दिशा निर्देशों के तहत कानूनों में जितने भी संशोधन किए गए हैं, वो सब वापस लेंगे?

इस पर कोई बयान नहीं आएगा। लेकिन पंजाब, राजस्थान और छत्तीसगढ़ की कांग्रेस सरकारों ने ये ऐलान किया है कि कृषि सुधार उनके राज्यों में लागू नहीं होंगे। उनके मुताबिक कृषि स्टेट सब्जेक्ट है और केंद्र सरकार ने एकतरफा कानून बदल कर गलत किया है इसलिए वो इसे नहीं मानेंगे। ऐसे में सवाल उठता है कि कांग्रेस शासित प्रदेशों के किसान आंदोलन क्यों कर रहे हैं?

जब राज्य सरकारों ने कह दिया है कि वो उनके हितों की रक्षा करेंगे तो फिर ये किसान सड़कों पर उतरे क्यों हैं? क्योंकि किसानों को मालूम है कि अगर अनाज केंद्र सरकार नहीं खरीदेगी तो कैप्टन अमरिंदर सिंह, अशोक गहलोत या फिर भूपेश बघेल की इतनी औकात नहीं कि वो सारा भुगतान खुद कर सकें। इसलिए उनकी बातों का कोई मोल नहीं है। मगर राजनीति को धंधा बना चुके नेताओं को इससे कोई मतलब है क्या?

कहने का अर्थ सिर्फ इतना है कि संजीदा तो वो लोग भी नहीं हैं, जो जवाहर भवन में बैठ कर या फिर कांग्रेसी दड़बों में बैठ कर अचानक आंदोलन-आंदोलन चिल्ला रहे हैं। अगर वो संजीदा होते तो WTO पर नए सिरे से बहस छेड़ते। भारत को इस दलदल से बाहर निकालने की कोशिश करते। लेकिन जब बात बदवाल की जगह सिर्फ और सिर्फ वोट की हो, सियासत की हो तो फिर इन मुद्दों पर चर्चा करेंगे भी तो कैसे करेंगे?

आज देश जिस मुकाम पर खड़ा है, किसान और श्रमिक जिस मोड़ पर खड़े हैं ... उसके लिए कांग्रेस और बीजेपी दोनों ही जिम्मेदार हैं। ये देश बेचने का महाभियान है। और इसमें नरेंद्र मोदी, मनमोहन सिंह और सोनिया गांधी - सब शामिल हैं। इसलिए सब चुप हैं। कोई खुल कर कुछ भी नहीं कह रहा है। बात आगे बढ़ेगी तो देखी जाएगी। इसी तर्ज पर बस किसानों को आगे किया गया है। लाठी किसान खाएंगे, श्रमिक खाएंगे और राज नेता करेंगे। यही राजनीति है।

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