सिर्फ गौतम अडानी की 2017 से 2021 की कमाई पर अगर मोदी सरकार वसूलती टैक्स तो दिया जा सकता था लगभग 50 लाख शिक्षकों के सालभर का वेतन
जनता और मीडिया की मानसिकता इस कदर गुलाम हो चुकी है कि यहाँ भूख से तड़पता आदमी भी अडानी और अम्बानी की अंधाधुंध बढ़ती संपदा पर ताली बजाता है, और प्रश्न पूछने वाला मुजरिम बनाया जाता है। मोदी सरकार जिस अंतिम आदमी के विकास की बात करती है उसका नाम जाहिर तौर पर गौतम अडानी है। यही हमारा आर्थिक विकास है और प्रजातंत्र भी...
महेंद्र पाण्डेय की टिप्पणी
Growing economy is best example of a thriving democracy – an ultra-new definition of Democracy coined by our Prime Minister. हमारे देश का प्रजातंत्र वर्षों से खोखला हो रहा था, पर उसका बाहरी ढांचा अभी गिरा नहीं था। पिछले एक दशक के भीतर ही यह ढांचा भी पूरी तरीके से गिर चुका है। जाहिर है, ऐसे में भी दुनिया के सामने अपने आप को प्रजातंत्र साबित करने के लिए प्रजातंत्र की नई परिभाषाएं गढ़नी पड़ेंगीं। पिछले कुछ समय से दुनिया को लगातार जोर देकर बताया जा बताया जा रहा है कि हम प्रजातंत्र इसलिए हैं क्योंकि हमारा प्रजातंत्र सबसे पुराना है, बल्कि भारत प्रजातंत्र की माँ है – मानो प्रजातंत्र कोई चावल या फिर शराब हो जो पुराणी होकर कीमती बन जाती है। वैसे भी पुराने प्रजातंत्र का मतलब हमेशा प्रजातंत्र तो कतई नहीं होता। हमारा पूरा इतिहास और यहाँ तक कि धर्मग्रंथों में भी, जिसे सत्ता इतिहास बताती है, राजाओं और राजवंशों से भरा पडा है – प्रजातंत्र तो कहीं नजर नहीं आता।
अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाईडेन ने वर्ष 2021 में प्रजातंत्र पर अंतर्राष्ट्रीय अधिवेशन कराया था, जिसमें भारत भी आमंत्रित था। इस वर्ष इसी विषय पर दूसरा अधिवेशन भी आयोजित किया गया है, जिसके आयोजन में अमेरिका के साथ ही कोस्टारिका, नेदरलैंड्स, दक्षिण कोरिया और ज़ाम्बिया की भी भूमिका है। इसके दूसरे अधिवेशन में भारत समेत लगभग 120 देशों के नेता भाग ले रहे हैं। इसके अधिवेशन को संबोधित करते हुए हमारे प्रधानमंत्री ने कहा कि “तमाम वैश्विक चुनौतियों के बाद भी बड़ी अर्थव्यवस्था वाले देशों में भारत की अर्थव्यवस्था सबसे तेजी से बढ़ने वाली अर्थव्यवस्था है। यह उपलब्धि अपने आप में पूरी दुनिया में प्रजातंत्र का सर्वश्रेष्ठ प्रचार है”। वर्ष 2021-2022 में भारत के सकल घरेलू उत्पाद में 8.7 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज के गयी थी, और वर्ष 2022-2023 में यह वृद्धि 7 प्रतिशत थी। दूसरे शब्दों में पूरे वक्तव्य को कस सकते हैं कि एक जीवंत प्रजातंत्र का सबसे अच्छा उदाहरण तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था है। जाहिर है, जिन विद्वानों ने प्रजातंत्र की परिभाषा तय की गोगी, उनकी आत्माएं भी इस नई परिभाषा से खिन्न हो गयी होंगी।
प्रजातंत्र का आधार आर्थिक और सामाजिक समानता है, जिसमें का दुनिया के सबसे पिछड़े देशों में शुमार हैं। देश की तथाकथित आर्थिक प्रगति ही आर्थिक असमानता का सबसे बड़ा कारण है। हमारे देश में दुनिया के सबसे अधिक कुपोषित और भूखे लोग हैं, युवाओं की एक बड़ी आबादी बेरोजगार है, कृषि क्षेत्र की समस्याएं साल-दर-साल बढ़ रही हैं, एक एक कर सभी लघु और कुटीर उद्योग बंद होते जा रहे हैं, वनों और पानी जैसे सार्वजनिक संसाधनों पर पूंजीवादियों का एकाधिकार होता जा रहा है और देश के सभी उद्योगों और इंफ्रास्ट्रक्चर पर कुछ औद्योगिक घरानों का एकाधिकार होता जा रहा है। बड़े अधिवेशनों से पहले शहरों की झोपड़-पट्टियों को पर्दों से ढका जाता है – यह उस राज्य में भी किया जाता है जहां के विकास के चर्चे सत्ता पर काबिज नेता सुनाते रहते हैं। जाहिर है, आंकड़ों से उपजा आर्थिक विकास सत्ता को नजर आता है, पर आर्थिक असमानता को परदे से ढका जाता है। ऐसे में आर्थिक विकास की महिमा प्रजातंत्र का उदाहरण कैसे हो सकती है?
इसी वर्ष जनवरी में ऑक्सफेम इंडिया ने दावोस में एक रिपोर्ट रिलीज़ की थी, जिसका शीर्षक है – सर्वाइवल ऑफ़ द रिचेस्ट: द इंडिया स्टोरी। यह रिपोर्ट हमारे देश में आर्थिक असमानता के आंकड़ों द्वारा आर्थिक विकास और तथाकथित प्रजातंत्र को बेनकाब करती है। इसके अनुसार आर्थिक सन्दर्भ में देश में सबसे ऊपर की 5 प्रतिशत आबादी के पास देश की 60 प्रतिशत सम्पदा है, जबकि सबसे नीचे की 50 प्रतिशत आबादी के पास सम्मिलित तौर पर महज 3 प्रतिशत सम्पदा है। वर्ष 2012 से 2021 के बीच देश की संपदा में जितनी बढ़ोत्तरी दर्ज की गयी, उसमें से 40 प्रतिशत से अधिक सबसे अमीर 1 प्रतिशत आबादी के हिस्से में आया, जबकि सबसे गरीब 50 प्रतिशत आबादी को इसका 3 प्रतिशत हिस्सा ही मिला।
हमारे देश में वर्ष 2020 में कुल 102 अरबपति थे, पर वर्ष 2022 में इनकी संख्या बढ़कर 166 तक पहुँच गयी। देश के सबसे अमीर 100 लोगों के पास सम्मिलित तौर पर 54.12 लाख करोड़ रुपये की संपदा है, यह राशि हमारे देश के वार्षिक केन्द्रीय बजट से डेढ़ गुना ज्यादा है। दूसरी तरफ देश में भूखे, बेरोजगार और महंगाई की मार झेलती आबादी लगातार बढ़ती जा रही है। वर्ष 2018 में देश में 19 करोड़ भूखे लोग थे, जिनकी संख्या वर्ष 2022 तक 35 करोड़ तक पहुँच गयी। केंद्र सरकार के आंकड़ों में भी देश में भुखमरी बढ़ती जा रही है। पिछले वर्ष केंद्र सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय को बताया था कि देश में पांच वर्ष से कम उम्र के बच्चों की कुल मौतों में से 65 प्रतिशत का कारण भूख और कुपोषण है।
देश के सबसे अमीर 10 लोगों की कुल संपदा वर्ष 2020 में 27.52 लाख करोड़ रुपये के समतुल्य थी, पर वर्ष 2021 में इस संपदा में 32.8 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हो गयी। यह ऐसा दौर था जब देश के आबादी कोविड 19 के दौर में भूख और बेरोजगारी झेल रही थी। वर्ष 2020 से नवम्बर 2022 के बीच देश के अरबपतियों की कुल सम्पदा में 121 गुना वृद्धि दर्ज की गयी, यानि हरेक दिन इस संपत्ति में लगभग 3608 करोड़ रुपये बढ़ाते गए। इसी दौर में देश में गरीबों की संख्या सर्वाधिक, 22.89 करोड़, थी। देश की सबसे अमीर 10 प्रतिशत आबादी के पास कुल संपदा में से 80 प्रतिशत संपदा है, जबकि सबसे अमीर 30 प्रतिशत आबादी के पास 90 प्रतिशत सम्पदा है।
वर्ष 2019 में सरकार ने अमीरों को एक तोहफा दिया था – कॉर्पोरेट टैक्स को 30 प्रतिशत से घटाकर 22 प्रतिशत कर दिया था, और नई कॉर्पोरेट कंपनियों के लिए टैक्स 15 प्रतिशत कर दिया था। इससे केंद्र सरकार को 1.84 लाख करोड़ का घाटा उठाना पड़ा, पर सरकार ने रोजमर्रा काम आने वाली अनेक आवश्यक उत्पादों पर जीएसटी बढ़ाकर और पेट्रोल और डीजल के दाम बढ़ाकर इसकी भरपाई की। केंद्र सरकार के इन निर्णयों से सबसे अधिक प्रभावित गरीब और मध्यम वर्ग ही हुआ।
देश के ग्रामीण क्षेत्रों में मुद्रास्फीति के कारण महंगाई का असर शहरी क्षेत्रों की तुलना में अधिक है। ग्रामीण क्षेत्रों में शहरी क्षेत्रों की तुलना में आमदनी 50 प्रतिशत से भी कम है। इसी तरह अनुसूचित जाति के लोगों की आमदनी सवर्णों की तुलना में 55 प्रतिशत भी नहीं है। पुरुषों के एक रुपये की आमदनी की तुलना में महिलाओं को महज 63 पैसे ही मिलते हैं।
देश में करों का सबसे अधिक बोझ सबसे गरीब 50 प्रतिशत आबादी पर है – जिनके पास देश की कुल संपदा में से 3 प्रतिशत ही है। यह आबादी देश के खजाने में जाने वाले कुल अप्रत्यक्ष कर में से 64.3 प्रतिशत जमा करती है, जबकि कुल जीएसटी में इसका योगदान दो-तिहाई का है। जीएसटी में सर्वाधिक अमीर 10 प्रतिशत आबादी का योगदान महज 2 से 3 प्रतिशत तक ही है।
रिपोर्ट के अनुसार देश के सर्वाधिक अमीर 10 लोगों पर 5 प्रतिशत का टैक्स लगा दिया जाए तब इससे इतना धन एकत्रित किया जा सकता है, जिससे देश के सभी बच्चों को शिक्षा दी जा सकती है। अकेले गौतम अडानी पर ऐसा टैक्स लगाया जाए, तब भी वर्ष 2017 से 2021 की कमाई से इतना टैक्स जमा किया जा सकता था जिससे लगभग 50 लाख शिक्षकों को हरेक वर्ष वेतन दिया जा सकता है। यदि देश के सभी अरबपतियों की कुल संपदा पर एक बार 2 प्रतिशत का टैक्स लगाया जाए तब लगभग 40423 करोड़ रुपये जमा होंगे – इससे सभी कुपोषित आबादी का पोषण अगले तीन वर्षों के लिए किया जा सकता है।
ऑक्सफेम से पहले भी तमाम रिपोर्ट देश में फ़ैली भयानक आर्थिक असमानता से हमें मिलाती है, पर जनता और मीडिया की मानसिकता इस कदर गुलाम हो चुकी है कि यहाँ भूख से तड़पता आदमी भी अडानी और अम्बानी की अंधाधुंध बढ़ती संपदा पर ताली बजाता है, और प्रश्न पूछने वाला मुजरिम बनाया जाता है। मोदी सरकार जिस अंतिम आदमी के विकास की बात करती है उसका नाम जाहिर तौर पर गौतम अडानी है। यही हमारा आर्थिक विकास है और प्रजातंत्र भी।