महत्वपूर्ण लेख : मायावती ब्राह्मणों को ऐसा क्या दे पाएंगी जो भाजपा नहीं कर सकती?

सामाजिक दृष्टि से विचार करें, तो इस अंतर्विरोध को हम दलित-बहुजन राजनीति की प्रगति का बैरोमीटर मान सकते हैं. इसे हम स्वामी अछूतानन्द और डा. आंबेडकर की राजनीतिक वैचारिकी का पतन कहें या विकास? इसे आसानी से पतन कहा जा सकता है...

Update: 2021-07-28 07:54 GMT

(ब्राह्मणों को कितना साध पायेंगी दलितों की राजनीति करने वाली मायावती)

वरिष्ठ लेखक कंवल भारती की टिप्पणी

जनज्वार। क्या अद्भुत संयोग है, इसी 20 जुलाई को स्वामी अछूतानन्द का परिनिर्वाण-दिवस गुजरा है, और उसके तीन दिन बाद, 23 जुलाई से बसपा सुप्रीमो मायावती अयोध्या में अपनी पार्टी की ओर से ब्राह्मण-सम्मेलन की शुरुआत करने जा रही हैं. दोनों के बीच कोई राजनीतिक संबंध नहीं है. लेकिन अगर सामाजिक दृष्टि से विचार करें, तो इस अंतर्विरोध को हम दलित-बहुजन राजनीति की प्रगति का बैरोमीटर मान सकते हैं. इसे हम स्वामी अछूतानन्द और डा. आंबेडकर की राजनीतिक वैचारिकी का पतन कहें या विकास? इसे आसानी से पतन कहा जा सकता है, क्योंकि विकास का कोई भी सूत्र इसमें दिखाई नहीं दे रहा है. ऐसा नहीं है कि दलित, बहुजन या अर्जक राजनीति का विकास ब्राह्मण-सीमा तक नहीं हो सकता, जरूर हो सकता है, होना भी चाहिए; बल्कि सभी वर्गों के हितों के लिए उसका विकास होना चाहिए. इसी मानववादी राजनीति की आधारशिला डा. आंबेडकर ने रखी थी. किन्तु क्या मायावती की ब्राह्मण-प्रेम की राजनीति इस आधारशिला पर खड़ी है? उत्तर है : नहीं.

इस संबंध में दो बातें विचारणीय हैं. एक, यह कि उत्तरप्रदेश में ब्राह्मणों की राजनीतिक स्थिति मजबूत है, पर जनसांख्यिकीय स्थिति इतनी मजबूत नहीं है कि वे किसी पार्टी को जिता सकें. जब भाजपा जैसी ब्राह्मण-वर्चस्व वाली पार्टी बहुमत हासिल करने के लिए दलित-पिछड़ी जातियों के वोटों पर निर्भर रहती है, तो ब्राह्मण (जो मुश्किल से 3 प्रतिशत हैं) के वोटों से बसपा कैसे बहुमत हासिल कर सकती है?

अयोध्या में ब्राहमण आवाहन करते सतीश चंद्र मिश्रा

दूसरी बात यह कि ब्राह्मणों को न समाजवाद रास आता है, न लोकतंत्र अच्छा लगता है; वे जिस व्यवस्था में रहना पसंद करते हैं, वह वर्णव्यवस्था और जातिभेद की व्यवस्था है. समानता के सिद्धांत में कभी उसकी आस्था नहीं रही. यही वजह है कि भाजपा ब्राह्मणों की अपनी पार्टी है, जो लोकतंत्र में भी ब्राह्मण-वर्चस्व को कायम रखे हुए है. भाजपा ने ब्राह्मणों को नौकरियों में दस प्रतिशत आर्थिक आरक्षण अलग से दे रखा है, और पिछले दरवाजों से भी वह बिना परीक्षा और इंटरव्यू के ब्राह्मणों को मुख्य प्रशासनिक पदों पर नियुक्त करने में कोई कसर नहीं छोड़ती है. ब्राह्मण-वर्चस्व के लिए भाजपा ने दलित-पिछड़ी जातियों को कमजोर करने और उनके शैक्षिक विकास को रोकने के अनेक प्रावधान बनाए हुए हैं. उसने धर्मान्तरण और आतंक-विरोधी कानूनों के जरिए मुसलमानों पर शिकंजा कसा हुआ है. ये सब वो चीजें हैं, जो ब्राह्मणों के अनुकूल हैं, इसलिए भाजपा ब्राह्मणों की अपनी पसंद की पहली पार्टी है. मायावती ब्राह्मणों को इससे ज्यादा और क्या दे सकती हैं, जो भाजपा नहीं दे सकती?

विचार का एक बिंदु यह भी है कि ब्राह्मण शासक वर्ग है, जैसा कि डा. आंबेडकर ने लिखा है कि क्षत्रिय और बनिया भी ब्राह्मणों के अधीन रहकर गर्व का अनुभव करता है, क्योंकि वह शासक वर्ग है. इसके विपरीत भारत के अन्य सभी वर्ग, खास तौर से दलित-पिछड़े वर्गों को उसकी व्यवस्था में शासित ही बने रहना है.

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मायावती ने 2007 की राजनीतिक स्थिति का उदाहरण दिया है, जब मायावती ने ब्राह्मण-वोटों से पूर्ण बहुमत हासिल किया था. वह यह भूल गयीं कि आज 2021 है. इन 14 सालों में गंगा का पुराना पानी सब बह गया है, और नया पानी आ गया है. आज स्थिति और परिस्थिति सब बदल गई है. आज ब्राह्मण इतने लाचार नहीं हैं, जितने 2007 में थे. उस समय भाजपा उत्तरप्रदेश में सबसे कमजोर पार्टी थी, जिस तरह आज कांग्रेस है. उन्हें उस समय राजनीति में एक ऐसे तिनके की जरूरत थी, जिसे पकड़कर वे किनारे लग सकें. कांग्रेस उनका पहला और पसंदीदा सहारा थी, पर उस समय कांग्रेस खुद भंवर में थी, उसके जो वोट बैंक थे—दलित, पिछड़े और मुसलमान, जिनके वोटों से कांग्रेस को बहुमत मिलता था, वो कांग्रेस से बाहर हो गए थे. इसलिए ब्राह्मणों की कांग्रेस ब्राह्मणों के बल पर सत्ता में नहीं आ सकती थी. मुलायम सिंह की समाजवादी पार्टी उन्हें पसंद नहीं थी. एक बसपा ही थी, जिसमें डूबते ब्राह्मणों को किनारे लगने का एक सहारा दिखाई दे रहा था. इसलिए बसपा और अन्य सवर्णों ने खुलकर बसपा को समर्थन दिया. दलित-पिछड़े और कुछ हद तक मुसलमान भी बसपा के साथ थे. परिणामत: मायावती को पूर्ण बहुमत मिल गया, जिसे उन्होंने सोशल इंजीनियरिंग का नाम दिया. मजे की बात यह है कि इस सोशल इंजीनियरिंग का श्रेय उन्होंने जिन तीन व्यक्तियों को दिया, उनमें सतीश मिश्रा को छोड़कर शेष (स्वामी प्रसाद मौर्य, बाबूलाल कुशवाहा और नसीमुद्दीन) बसपा से निकाले जा चुके हैं, या स्वयं पार्टी छोड़ चुके हैं.

मौजूदा सवाल यह है कि आज, जबकि ब्राह्मणों की अपनी भाजपा मजबूत स्थिति में है, केन्द्र के साथ-साथ अनेक राज्यों में भी उसकी सरकारें हैं, और उत्तरप्रदेश में भी योगी के नेतृत्व में चहुँ ओर ब्राह्मणवाद फलफूल रहा है, तो ऐसी स्थिति में ब्राह्मणों का आकर्षण बसपा के प्रति क्यों होगा? ब्राह्मणों की ऐसी क्या मजबूरी होगी, जो वे बसपा को वोट देंगे? मायावती का बहुत ही बचकाना तर्क है कि पिछले विधानसभा चुनावों में ब्राह्मण भाजपा को वोट देकर पछता रहे हैं, क्योंकि वे जानते हैं कि योगी आदित्यनाथ की सरकार में उन पर कितनी ज्यादती हुई है. अगर हम इस कथन का विश्लेषण करें, तो बात यह निकलकर आएगी कि इस सरकार में जिन अपराधी ब्राह्मणों पर कार्यवाही हुई, वह ब्राह्मणों पर ज्यादती है. और इस सरकार में जिन दलितों पर जुल्म हुआ, पूरे-पूरे गांव पर हमला हुआ, घर जलाए गए, वह ज्यादती नहीं थी. हाथरस की दलित बेटी के साथ जो जुल्म हुआ, वह भी ज्यादती नहीं है. क्या मायावती ब्राह्मण-प्रेम में अपना विवेक खो बैठी हैं?

अगर मायावती अपना विवेक नहीं खो बैठी हैं और अपराधी ब्राह्मणों के प्रति सहानुभूति रख रही हैं, तो इसका साफ़ मतलब यह भी है कि वह ब्राह्मणों को सन्देश दे रही हैं कि बसपा की सरकार बनी, तो ब्राह्मणों को अपराध करने की खुली छूट होगी और अपराधी ब्राह्मणों पर कोई कार्यवाही नहीं होगी. अर्थात मायावती उत्तरप्रदेश को ब्राह्मणों के लिए निर्बाध चारागाह बना देंगी. तब इस आँख की अंधी और गाँठ की पूरी राजनीति में दलितों की स्थिति क्या होगी-वही जो वर्णव्यवस्था में शासितों की होती है?

मायावती का यह भी अविवेकपूर्ण बयान है कि ब्राह्मणों को मान, सम्मान और तरक्की के लिए बसपा के साथ आना चाहिए. इस बयान पर ब्राह्मणों को भी हंसी आ गई होगी. कौन नहीं जानता कि जितनी मान, सम्मान और तरक्की ब्राह्मणों की भाजपा में है, उतनी कांग्रेस के राज में भी नहीं थी. क्या मायावती किसी ब्राह्मण को मुख्यमंत्री बनाने की घोषणा करेंगी? असली मान-सम्मान तो ब्राह्मण का शासक बनना ही है.

लेकिन अब अगर मायावती ब्राह्मणों को जोड़ने के लिए आगे बढ़ ही गई हैं, तो उन्हें सतीश मिश्रा को मुख्यमंत्री बनाने की घोषणा भी कर ही देनी चाहिए, क्योंकि सतीश मिश्रा की भी यह महत्वाकांक्षा हो ही सकती है. यह उनके लिए एक लिटमस प्रयोग भी हो सकता है. पता तो चलेगा, कितने ब्राह्मण भाजपा छोड़कर बसपा के साथ आयेंगे?

अंत में यह भी स्पष्ट कर दूँ कि बसपा के इस ब्राह्मण सम्मेलन का भाजपा पर कोई प्रभाव नहीं पड़ना है। किन्तु हाँ, अगर बसपा बहुजन जनजागरण का आंदोलन शुरू करती, तो जरूर भाजपा का सिंहासन डोल जाता।

(कंवल भारती का यह लेख पहले 'फॉरवर्ड प्रेस' में प्रकाशित।)

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