भारत-चीन तनाव : नई दिल्ली के लिए यह फैसला करने का वक्त

मोदी सरकार अब भारतीय हितों पर चीन के अतिक्रमण को नजरअंदाज नहीं कर सकती तो इसके विकल्प क्या हैं ...

Update: 2020-06-30 15:14 GMT

रक्षा विशेषज्ञ और कर्नल (सेवानिवृत्त) अजय शुक्ला का विश्लेषण

भारत और चीन के बीच की विवादित सीमा दुनिया के ऊबड़-खाबड़ इलाकों में से एक हैं जों कि लगभग 3500 किलोमीटर तक फैली है। दोनों देशों के सैनिकों के बीच हिंसक झड़पों के बाद से तनाव है। दो मिलिटी पावर लद्दाख (जो कि एक बहुत ऊंचाई की रेगिस्तान वाली जगह है जहां चीन अपना दावा करता है) में आंख से आंख मिलाकर खड़ी हैं और 43,000 वर्ग किलोमीटर हिस्से तक नियंत्रण कर रहे हैं। 

नई दिल्ली और बीजिंग के बीच दशकों से बातचीत के बाद भी 135,000 वर्ग किलोमीटर सीमा का क्षेत्र का हल नहीं निकल सकता है क्योंकि दोनों के अपने-अपने प्रतिस्पर्धी दावे हैं। फिर भी 15 जून को इस तरह की हिंसा देखी गई जब सुदूर गलवान गाटी में चीनी सैनिकों के साथ बर्बर झड़प में 20 भारतीय सैनिकों की मौत हो गई।

भारतीय खातों के अनुसार, गतिरोध मई की शुरुआत में शुरू हो गया था जब चीन की पीपुल्स लिबरेशन आर्मी के सैनिक तिब्बत में युद्ध अभ्यास करते देखे गए। इसके बाद वह अप्रत्याशित रूप से वास्तविक सीमा रेखा पार कर गए जिसे वास्तविक नियंत्रण रेखा के रूप में जाना जाता है और फिर उसका अधिकृत क्षेत्र नहीं उस पर भी कब्जा कर लिया। भारत ने कम सैनिकों को तैनात किया हुआ था इसलिए हल्की सेना  केवल देख सकती थी क्योंकि उसके युद्धाभ्यास को कोविड-19 महामारी के कारण रद्द कर दिया गया था।

भारतीय दावे वाले क्षेत्र पर चीन का कब्जा और भारतीय सैनिकों की हत्या प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की छवि के लिए एक बड़ी चुनौती है जो हिंदू राष्ट्रवाद पर टिकी हुई है।  यह मोदी के उन दावों की भी पोल खोलता है जिसे वह राजनीतिक गलतफहमी कहते हैं। चूंकि उन्होंने वर्षों से चीन को लुभाने और अपने राष्ट्रपति शी जिनपिंग से मित्रता करने के लिए व्यक्तिगत और राजनीतिक पूंजी का निवेश किया है। दोनों ने कई बार मुलाकात की, जिसमें 2018 में वुहान और पिछले साल चेन्नई का 'अनौपचारिक शिखर सम्मेलन' भी शामिल हैं। मोदी ने इन बैठकों में प्रत्येक को चीन के साथ रणनीतिक सहयोग के नए युग के रूप में चित्रित किया।

उनकी सरकार चीन की संवेदनशीलता को लेकर असामान्य रूप से मनमौजी रही है। यहां तक चीन ने बार-बार न्यूक्लियर सप्लायर ग्रुप में भारत की सदस्यता की बोलियों का विरोध किया। न्यक्लियर सप्लायर ग्रुप दुनिया के परमाणु सामग्री के निर्यात को नियंत्रित करता है। पिछले साल बीजिंग ने संयुक्त राष्ट्र में पाकिस्तान के कट्टरपंथी प्रचारक मौलाना मसूद अजहर को वैश्विक आतंकवादी घोषित करने के लिए सहमति दी जिसके बाद उसे दस साल के लिए वैश्विक आतंकवादी घोषित किया गया था।

इसके बाद चीन ने भारत द्वारा पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर में बन रहे चीन पाकिस्तान इकनोमिक कॉरिडोर पर जताई जा रही आपत्तियों को नजरअंदाज कर दिया। भारत के क्षेत्री दावों को लेकर यह त्रासदी है कि नई दिल्ली ने चीन के द्वारा तिब्बत और शिनजियांगा में हुए क्रूर हमले, ताइवान और हांगकांग में चीन की भारी भरकमता, कोविड 19 महामारी में चीन की भूमिका और यहां तक बीआरआई (बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव) की आलोचना करने से परहेज किया। 

सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि चीन के एडवेंचरिज्म को इंडो पैसिफिक क्षेत्र (हिंद प्रशांत महासागर क्षेत्र) में रोकने के लिए भारत के लिए अमेरिका ने अहम भूमिका निभाई है लेकिन नई दिल्ली ने अमेरिकी सेना के साथ संयुक्त गश्त करने के निमंत्रणों को भी खारिज कर दिया है और दक्षिण चीन सागर में लड़ने के बजाए केवल हिंद महासागर में सैन्य शक्ति बढ़ाने का रास्ता चुना है।

बीजिंग की ओर से सरकार का अपमान होने पर भारत की विपक्षी पार्टियों ने मोदी को घेरने का यह मौका छीन लिया, क्योंकि मोदी का 2014 की चुनावी रैलियों में एक प्रसिद्ध दावा किया था कि उनकी 56 इंच की छाती है जिसके चलते वह शासन कर रहे हैं। अब उनके राजनीतिक प्रतिद्वंदी उनकी आलोचना कर रहे हैं कि उनकी मसल पावर केवल पाकिस्तान से निपटने के लिए है लेकिन चीन के खिलाफ नहीं। 

सेना को अपर्याप्त धन देने को लेकर भी मोदी बीते छह सालों से तीखी आलोचनाओं का सामना कर रहे हैं। चालू वित्त वर्ष में 1962 के बाद से पहली बार रक्षा बजट जीडीपी के हिस्से के रूप में अपने निम्नतम स्तर पर गिर गया है। उस साल भी भारत एक दशक तक घटते बजट के कारण चीन के साथ युद्ध में हार गई थी। 

बढ़ती आलोचनाओं के बीच एक तरह मोदी चीनी घुसपैठ को त्वज्जों नहीं दे रहे हैं वहीं सार्वजनिक रूप से घोषणा करते वक्त कह रहे हैं कि सेना मामले को संभाल रही है। दोनों देशों के राजनयिकों के बीच चल रही चर्चाओं में बीजिंग ने अगर कोई मांग की है तो उस पर कोई शब्द नहीं कह रहे हैं। 

भारत के पास अब क्या हैं विकल्प

अगर बीजिंग ने अपने कब्जे वाले क्षेत्र को खाली करने से इनकार कर दिया या भारत की मांग को असंभव बना दिया तो मोदी के पास कुछ ही विकल्प रह जाएंगे। भारत ग्लोबल पावर टेक्टोनिक में बदलाव करेगा और शायद भारत अमेरिका के साथ खुल तौर पर गठबंधन करेगा। हालांकि बीजिंग नई दिल्ली के वाशिंगटन के साथ संबंधों को उकसाने वाला मान सकता है और भारत को सबक सिखाने के लिए मोटीवेट कर सकता है, इसका परिणाम चीन के लिए एक रणनीतिक हार होगी कि इसने अपना सबसे बड़ा पड़ोसी भारत को महाशक्ति अमेरिका की बाहों में धकेल दिया है।  

वाशिंगटन पहले से ही भारत के साथ खड़े होने के लिए अपनी तत्परता का संकेत दे चुका है। मई की शुरूआत से कम से कम तीन अवसरों पर अमेरिका के वरिष्ठ राजनीतिक अधिकारियों प्रस्तावों का पालन करते हुए नई दिल्ली को समर्थन देने का वादा किया है। अब तक मोदी दावा करते रहे हैं कि भारत स्थिति को संभालने में सक्षम है लेकिन यह बदल सकता है। 

इसके अलावा भारत पास के क्वाड (QUAD) ग्रुप प्रेरित कर सकता है। 'क्वाड' सैन्य ओवरटोन के साथ चार लोकतांत्रिक देशों का एक राजनयकि समूह है जिसमें ऑस्ट्रेलिया, जापान, अमेरिका और भारत शामिल हैं। 2007 में जब भारत इस समूह में शामिल हुआ था तब चीन ने इसे चीन विरोधी करार दिया था। अब मालाबार त्रिपक्षीय नौसेना अभ्यास में ऑस्ट्रेलिया को अनुमति मिल चुकी है जिसमें अमेरिका और जापान भी शामिल हैं, भारत क्वाड का सैन्यीकरण कर सकता है, जिससे यह दक्षिण चीन सागर में एक महत्वपूर्ण चीन विरोधी समूह बना सकता है।

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भारत चीन के खिलाफ आर्थिक प्रतिशोध को भी आगे बढ़ा सकता है। इसका सबसे मजबूत संकेत अप्रैल में देखने को मिला जब नई दिल्ली ने चीनी वित्तीय निवेश पर भार में प्रतिबंध लगा दिया और नकदी समृद्ध चीनी कंपनियों को कोरोना महामारी मे मंदी का सामना कर रहीं भारतीय फर्मों में हिस्सा खरीदने पर रोक लगा दी थी। नई दिल्ली चीनी दूरसंचार कंपनियों को भारत में 5 जी नेटवर्क के रोलआउट में भी हिस्सा लेने से रोक सकता है।

चीन और भारत के बीच का व्यापार चीन के पक्ष में अधिक है, पिछले साल लगभग 56 बिलियन डॉलर का व्यापार असंतुलन था। नई दिल्ली चीन से आयात पर प्रतिबंध लगा सकती है। हालांकि दोनों देशों के बीच व्यापार पर निर्भरता के कारण भारतीय फर्मों पर भारी लागत आएगी। उदाहरण के लिए भारत का सुविकसित फार्मास्युटिकल उद्योग चीन से प्राप्त होने वाली थोक दवाओं पर बहुत अधिक निर्भर हैं।

चीन को भारतीयों के बीच उसकी अपनी छवि को लेकर पहले बहुत बड़ा नुकसान पहले ही पहुंच चुका है, चूंकि 1962 के बाद से भारत की आने वाली पीढ़ी में चीन की एक राक्षसी छवि पहले से बनी हुई थी, लद्दाख में घुसपैठ के बाद और भारतीय मीडिया की रिपोर्टों के बाद यह छवि आने एक और पीढ़ी के बीच बनी रहेगी जो चीन को अपना दुश्मन मानते हैं।  

सबसे जरूरी नई दिल्ली को चीनी सैनिकों द्वारा भारतीय क्षेत्र में हुए कब्जे की स्थिति से निपटना चाहिए। भारत के राष्ट्रवादी मूड को देखते हुए (जो कि मोदी ने खुद पर केंद्रित की है) एक नरम प्रतिक्रिया या क्षेत्र का आत्मसमर्पण राजनीतिक रूप से अस्वीकार्य होगा। स्थिति को कम करके बीजिंग के साथ बातचीत के लिए समय प्राप्त करने की सरकार की रणनीति रही है सक्रिय मीडिया और विपक्ष बिखरे हुए हैं ।

चीन ने डी-एस्केलेट करने के लिए कोई झुकाव नहीं दिखाया है। सीमा के अन्य क्षेत्रों पर भी चीनी घुसपैठ की ताजा रिपोर्ट आ रही हैं जहां भारतीय सेना और चीनी सेना आंख से आंख मिलाकर खड़े हैं और रिजर्व बलों को सीमा की जमा कर रहे हैं। अगर कुछ भी होता है तो स्थिति नियंत्रण से बाहर जा सकती है। पिछले कुछ दशों में शांति बनाए रखने वाले चीन भारत विश्वास निर्माण समझौता (Sino-Indian Confidence Building Agreements) ने अपनी वैधता खो दी है।

इसके साथ ही पाकिस्तान के साथ नियंत्रण रेख पर सीमा पार से गोली बारी की खबरें हैं जो कि भारत के खिलाफ दोनों दुश्मन (पाकिस्तान और चीन) 'टू फ्रंट वार' के लिए आपस में हाथ मिला रहे हैं। दोनों देश खुद को 'आइरन ब्रदर्स' के रूप में देखते हैं। इससे नहीं दिल्ली के पास बहुत कम विकल्प होंगे लेकिन सहायता के लिए वाशिंगटन को बुलाना पड़ेगा या उनपर वापस न्यूक्लियर डेटरेंस गिराना पड़ेगा। 

(नोट : यह आलेख पहले 'अल जजीरा' में प्रकाशित किया जा चुका है।)

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