देश के राजनेताओं, साधु-साध्वियों की हिंसक और अभद्र भाषा ने बना दिया भारत को विश्वगुरु, पूरी दुनिया में बढ़ रहा हिंसक भाषा का प्रयोग
पूरी दुनिया में हिंसक भाषा का प्रयोग किया जा रहा है, पर इसमें कोई संदेह नहीं कि हमारा देश ऐसी भाषा में विश्वगुरु है। हमारे यहाँ सत्ता का पूरा आधार ही ऐसी भाषा है, और सत्ता की इस भाषा को सोशल मीडिया के साथ मेनस्ट्रीम मीडिया दिनरात प्रसारित करता है। अब तो यही हमारी राष्ट्रीय भाषा है...
महेंद्र पाण्डेय की टिप्पणी
It is important to understand that language can provoke violence between various groups in the society. नागरिकता संशोधन क़ानून के विरुद्ध आन्दोलनों के समय और दिल्ली दंगों से ठीक पहले – कपिल मिश्रा, प्रवेश वर्मा और अनुराग ठाकुर – जैसे तमाम बीजेपी नेता अपने भाषणों से समर्थकों को हिंसक बनाने के उपदेश दे रहे थे। हमारे प्रधानमंत्री जी भी "बदला लेंगें कि नहीं" जैसे वाक्यांश का प्रयोग करते हैं और गृहमंत्री अमित शाह तो हरेक विरोधी को देश के टुकडे करने वाला घोषित करते हैं। बीजेपी से जुडी तमाम तथाकथित साध्वियां तो स्पष्ट तौर पर टीवी कैमरों के सामने मारने-काटने की बातें करती हैं। इन राजनीतिक हस्तियों से भी अधिक हिंसक भाषा का उपयोग तो प्रवचन वाले तमाम बाबा करते हैं, और पुलिस वालों की मौजूदगी में दूसरे समुदाय को मिटा देने की बात करते हैं। मेनस्ट्रीम मीडिया दिनभर ऐसे हिंसक वक्तव्यों को दिनभर दिखाकर उसे हरेक घर में पहुंचा देता है।
दरअसल हिंसक भाषा आज की वैश्विक राजनीति का अभिन्न अंग बन गयी है और सोशल मीडिया प्लेटफोर्म इसी भाषा का हरेक स्मार्टफ़ोन में प्रसार कर मालामाल होते जा रहे हैं। डोनाल्ड ट्रम्प ने अपने राष्ट्रपतिकाल के दौरान ऐसी भाषा का उपयोग किया, जिसका भयानक परिणाम 6 जनवरी 2021 को नजर आया जब उनके हिंसक समर्थकों के हुजूम ने संसद पर हमला कर दिया। ब्राज़ील के पूर्व राष्ट्रपति जेर बोल्सेनारो ने ऐसी ही भाषा का प्रयोग कर अपने समर्थकों को इतना हिंसक बनाया कि हाल में ही ब्राज़ील में संसद से लेकर हरेक संवैधानिक कार्यालय पर हमला किया गया।
हिंसक भाषा वह होती है जब एक समूह, समुदाय या फिर राजनीतिक दल अपने आप को महान साबित करते हुए किसी समुदाय या राजनैतिक दल को ही देश के लिए खतरनाक, राष्ट्रद्रोही या फिर निकम्मा बताता है। भाषा से हिंसा का प्रसार पिछले कुछ वर्षों से इतना व्यापक और खतरनाक हो गया है कि अब तो अमेरिका में कांग्रेस के चुने सदस्यों ने भाषा से फ़ैलाने वाली हिंसा और इसे रोकने के उपायों पर व्यापक बहस शुरू कर दी है।
अमेरिका के लुसिआना स्टेट यूनिवर्सिटी में सोशल साइकोलॉजी की प्रोफ़ेसर कोलीन सिनक्लैर ने हिंसक भाषा पर व्यापक अध्ययन और अनुसंधान किया है। उनके अनुसार जनता, सत्ता और क़ानून की देखभाल करने वालों को यह समझना आवश्यक है कि भाषा से दो वर्गों के बीच आसानी से हिंसा भड़काई जा सकती है। इसके उदाहरण भी बार-बार हमारे सामने आते हैं।
हिंसक भाषा हमेशा समाज को दो समुदायों में बांटती है – एक समुदाय "हम" होता है, जिसके बारे में मूल नागरिक, देश का रक्षक, हजारों वर्षों की गौरवशाली परम्परा इत्यादि बताया जाता है; तो दूसरी तरफ दूसरा समुदाय, यानि वो, होते हैं जो देश का नाश कर देते हैं, हिंसक होते हैं, लुटेरे होते हैं, हमसे घृणा करने वाले होते हैं। बार-बार ऐसी भाषा का प्रयोग कर समाज को दो वर्गों में बांटकर "हम" को "वो" के खिलाफ खडा किया जाता है और फिर एक समुदाय को दूसरे समुदाय के विरुद्ध हिंसा ही जायज लगने लगती है, यही राष्ट्रवाद लगता है और एक कर्तव्य भी।
समस्या तब और गंभीर हो जाती है, जब पुलिस, प्रशासन और न्यायालय सभी बड़े समूह द्वारा की गयी हिंसा को ही सही और क़ानून-सम्मत मानने लगते हैं। अमेरिका में केवल कट्टर दक्षिणपंथी मीडिया की खबरें पढ़ने वाले या देखने वाले 40 प्रतिशत से अधिक नागरिक यह मानते हैं कि देश बचाने के लिए हिंसा का सहारा लेने वाला ही सही मायने में देशभक्त है। हमारे देश में तो यह प्रतिशत बहुत अधिक होगा, क्योंकि हमारे देश का पूरा मेनस्ट्रीम मीडिया की कट्टर दक्षिणपंथी है और हिंसक वक्तव्य और सामाजिक हिंसा का पुजारी भी।
प्रोफ़ेसर कोलीन सिनक्लैर ने हिंसक भाषा को पांच वर्गों में विभाजित किया है। पहला वर्ग शारीरिक हिंसा का है, इसके तहत बताया जाता है कि दूसरा समुदाय हमें शारीरिक चोट कर सकता है या फिर हमें समाप्त करने के लिए कोई घातक रोग फैला सकता है। वर्ष 2020 में कोविड के दौर में वक्तव्यों, संबोधनों और सोशल मीडिया पर अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प इसे चाइनीज फ्लू कहा करते थे। इसका नतीजा यह हु कि अमेरिका में चीन के साथ ही तमाम एशियाई मूल के नागरिकों पर खुलेआम हमले होने लगे।
हमारे देश में भी दिल्ली में तबलीगी जमात को इसी तरह कोविड के विस्तार के लिए जिम्मेदार ठहराया गया था। ऐसी हिंसक भाषा में यह भी बताया जा सकता है कि दूसरा समुदाय हमारे ऊपर हमले करने वाला है, जैसा दिल्ली दंगों के समय किया गया था। दिल्ली दंगों से ठीक पहले प्रवेश वर्मा ने कहा था कि दूसरा समुदाय हमारे घरों में घुसेगा और हमारे बहु-बेटियों की आबरू लूट लेगा।
दूसरा वर्ग है – नैतिक खतरे का, यानि दूसरा समुदाय हमारे समाज का सांस्कृतिक, राजनीतिक या धार्मिक पतन करेगा। गाय के मांस या फिर गौ-तस्करी के नाम पर भीड़ द्वारा ह्त्या यही मानसिकता बताता है। दूसरी तरफ जब तमाम धर्म के ठेकेदार तमाम समस्याओं या आपदाओं की जड़ महिलाओं के कपडे, मदिरा या उन्मुक्त समाज को बताते हैं तब भी यही नैतिक हिंसक भाषा रहती है।
तीसरा वर्ग है – संसाधन के खतरे। इसके तहत बताया जाता है कि दूसरे समुदाय की जनसंख्या बढ़ती जा रही है, वह भविष्य में हमसे ज्यादा हो जायेंगें। उनकी जनसंख्या बढ़ती जायेगी और फिर सभी नौकरी और संसाधनों पर उनका कब्जा हो जाएगा। चौथा वर्ग है – सामाजिक खतरे का। इसके अंतर्गत ऐसी हिंसक भाषा आती है, जिसके द्वारा दूसरे समुदाय द्वारा समाज पर खतरे बताये जाते हैं।
हमारे देश में जिस लव-जिहाद की लगातार चर्चा की जाती है, या फिर वैलेंटाइन डे पर जिस तरीके से सरेआम मारपीट की जाती है, यह सब इसका उदाहरण है। पांचवां वर्ग है – अपने आप पर ख़तरा। इसके अंतर्गत भाषा द्वारा बताया जाता है कि दूसरा समुदाय हमेशा से ही हमसे घृणा करता रहा है, हमें कमतर आंकता है, हमें लूटता रहा है इसलिए हम भी वैसा ही करेंगें और उनसे बदला लेंगे। ऐसी हिंसा के लिए अधिकतर मामलों में ऐतिहासिक तथ्यों को तोड़-मरोड़ कर पेश किया जाता है।
पूरी दुनिया में हिंसक भाषा का प्रयोग किया जा रहा है, पर इसमें कोई संदेह नहीं कि हमारा देश ऐसी भाषा में विश्वगुरु है। हमारे यहाँ सत्ता का पूरा आधार ही ऐसी भाषा है, और सत्ता की इस भाषा को सोशल मीडिया के साथ मेनस्ट्रीम मीडिया दिनरात प्रसारित करता है। अब तो यही हमारी राष्ट्रीय भाषा है।