कन्हैया, कम्युनिस्ट और कांग्रेस : 80 साल पहले पीसी जोशी कह चुके कांग्रेस के नेता हमारे राजनीतिक पिता
1936-48 में तो कम्युनिस्ट पार्टी पूरी तरह कांग्रेस की बी-टीम बन चुकी थी, उसी दौरान पीसी जोशी का यह स्टेटमेंट देखिये- हमारे लिए कांग्रेस हमारा अभिभावक संगठन हैं, इसके नेता हमारे राजनीतिक पिता हैं...
मनीष आजाद का महत्वपूर्ण विश्लेषण
आपको यह जानकर शायद हैरानी हो, लेकिन यह सच है कि कम्युनिस्ट पार्टी की पहली कांग्रेस (1943)में राष्ट्रीय कांग्रेस और मुस्लिम लीग दोनों के झंडे कम्युनिस्ट पार्टी के झंडे के साथ लहरा रहे थे। और हाल में जिन्ना और नेहरु की आदमकद तस्वीर लगी हुई थी।
पीसी जोशी के कार्यकाल (1936-48) में तो कम्युनिस्ट पार्टी पूरी तरह कांग्रेस की बी-टीम बन चुकी थी. उसी दौरान पीसी जोशी का यह स्टेटमेंट देखिये- 'हमारे लिए कांग्रेस हमारा अभिभावक संगठन हैं, इसके नेता हमारे राजनीतिक पिता हैं'।
सर्वहारा का नेतृत्व करने वाली और दुनिया में साम्यवाद की स्थापना का दावा करने वाली दुनिया की शायद ही कोई दूसरी कम्युनिस्ट पार्टी हो, जिसने एक बुर्जुआ पार्टी के लिए ऐसा बयान दिया हो।
कांग्रेस के प्रति इसी रुख को सीपीआई ने कमोवेश बाद में भी कायम रखा और 1975 की इमरजेंसी का स्वागत करते हुए इसे 'अनुशासन पर्व' की संज्ञा दी। नामवर सिंह जैसे तमाम 'प्रगतिशील' साहित्यकारों ने 'पार्टी लाइन' का अनुसरण करते हुए, इमरजेंसी का स्वागत किया।
कहने का मतलब यह है कि आज कन्हैया का कांग्रेस में जाना कोई आश्चर्य की बात नहीं है। बल्कि एक तार्किक परिणति ही है।
आज भाजपा को हराने के नाम पर बहुत से 'कम्युनिस्ट-लिबरल' लोग कांग्रेस का दामन थाम रहे हैं। भाजपा हारेगी कि नहीं, यह तो बाद में पता चलेगा, लेकिन इस प्रक्रिया में कांग्रेस को जो फायदा होगा वह यह कि इससे उसका विगत का 'पाप' जरूर धुल जायेगा.
फिर कांग्रेस से यह कोई नहीं पूछेगा कि आज भाजपा जो काट रही है, उसे बोया किसने? याद कीजिये राजनीतिक विश्लेषक 'रजनी कोठारी' को, जिन्होंने बहुत पहले एक लेख लिखा था, जिसका शीर्षक ही था- 'इंदिरा ने बोया आडवानी ने काटा।'
फिर कांग्रेस से यह कोई नहीं पूछेगा कि 1984 में क्या हुआ था? फिर यह कोई नहीं पूछेगा कि कश्मीर में 1987 के चुनाव में क्या हुआ?, जहाँ जीता कंडीडेट हार गया और हारा कंडीडेट जीत गया। इसी फर्जी चुनाव की कोख से कश्मीर की मिलीटैंसी पैदा हुई। फिर कोई यह नहीं पूछेगा कि आज मोदी जिस भारत को बेचने पर आमादा है, उस भारत को बाज़ार में कौन लाया? फिर कोई नहीं पूछेगा कि 'टाडा-यूएपीए' कौन लाया?. फिर कोई नहीं पूछेगा कि 'सलवा जुडूम-ग्रीन हंट' किसने शुरू किया? और लाखों आदिवासियों को उनके निवास स्थान जंगल से लाकर सड़क पर पटका कौन? फिर कोई नहीं पूछेगा कि सच्चर कमेटी में मुसलमानों की जो बुरी स्थिति दर्ज की गयी है, उसके लिए कौन जिम्मेदार है?
वाशिंग मशीन का और क्या काम है? गंदे कपड़ों को साफ़ करना।
ठीक यही प्रक्रिया तो इमरजेंसी के समय भी अपनाई गयी थी। तब 'दूसरी आज़ादी' के आन्दोलन में भाजपा के पूर्ववर्ती 'जनसंघ' और 'आरएसएस' को शामिल करके 'जनसंघ/आरएसएस' का 'पाप' धोया गया था और उसे वैधानिकता प्रदान की गयी थी। आज भाजपा और आरएसएस जितने ताकतवर हैं, उसका बहुत कुछ श्रेय जेपी और उनकी 'सम्पूर्ण आजादी' वाले आन्दोलन में 'जनसंघ/आरएसएस' को शामिल करने के कारण था।
जेपी का यह वक्तव्य अभी भी बहुत से लोगों के कानों में गूँज रहा होगा-'यदि आरएसएस फासीवादी है तो मै भी फासीवादी हूँ।'
इमरजेंसी के बाद 1977 में हुए चुनाव में जनसंघ के सदस्यों ने जनता पार्टी की सदस्यता के लिए जिस फॉर्म पर दस्तखत किए, उसमे लिखा था-'मैं महात्मा गांधी द्वारा देश के समक्ष प्रस्तुत मूल्यों और आदर्शों में आस्था जताता हूं और समाजवादी राज्य की स्थापना के लिए खुद को प्रस्तुत करता हूं।'
इससे बड़ा पाखंड कुछ हो सकता है क्या?
लेकिन इसी पाखंड में आरएसएस/जनसंघ के 'पाप' भी धुलते गए। वास्तव में JP ने आरएसएस/जनसंघ को अपनी राजनीति में प्रमुख भूमिका देकर उनकी शर्ट को चकाचक सफेद कर दिया। जिसका फायदा उसे आने वाले वक्त में मिला।
इसके पहले भी 'गैर कांग्रेसवाद' के नाम पर 1967 में भी समाजवादियों ने जनसंघ को 'संयुक्त विधायक दल' में शामिल करके इस खुले फासीवादी संगठन को औचित्य प्रदान किया था।
ठीक उसी तरह आज गैर भाजपावाद (भाजपा हराओं) के नाम पर कांग्रेस की शरण लेकर कांग्रेस के 'पापों' की धुलाई की जा रही है।
कल को यदि कांग्रेस सत्ता में आती है तो फिर उसकी तानाशाही के खिलाफ क्या हम फिर भाजपा की शरण मे जाएंगे और फिर भाजपा के गंदे कपड़ें धोएंगे? क्या हमारी नियति कांग्रेस-भाजपा के गंदे कपड़े धोने की ही है?
क्या यहीं इतिहास का अंत हो जाता है?
भाजपा और उसके फासीवाद को असल चुनौती संसद में नहीं बल्कि सड़कों गांवों और जंगलों से मिल रही है। आपको यह पता होना चाहिए कि झारखंड-छत्तीसगढ़-उड़ीसा के आदिवासियों ने अपने संघर्ष के बल पर उन मिलियन मिलियन डॉलर के इन्वेस्टमेंट को रोक रखा है, जो प्रकृति, आदिवासी और अर्थव्यवस्था तीनों को बुरी तरह बर्बाद करने की क्षमता रखते हैं। देशी-विदेशी पूंजीपतियों के इन भारी भरकम निवेशों पर केंद्र व संबंधित राज्य सरकारों के साथ सालों पहले MOU भी हो चुके हैं। जंगलों में आदिवासियों के खिलाफ 'ऑपरेशन समाधान/ऑपरेशन प्रहार' जैसी क्रूर सैन्य कार्यवाही इसी बदहवासी और साम्राज्यवादी दबाव में लिया जा रहा है। फलतः इन इलाकों में मानवाधिकार का बड़े पैमाने पर उल्लंघन हो रहा है।
इसके अलावा भाजपा की ज़हर बुझी साम्प्रदायिकता को सबसे तीखी चुनौती 'सीएए' और 'एनआरसी' आंदोलनों और विश्वविद्यालयों के छात्र आन्दोलनों से मिल रही है। यही कारण है कि इतने समय बाद भी भाजपा 'सीएए' और 'एनआरसी' को पूरे देश मे लागू करने का साहस नहीं कर पायी है।
और सबसे बढ़कर भाजपा के गुरूर को जिस तरह से वर्तमान किसान आंदोलन ने सड़कों पर रौंदा है, वह बेमिसाल है।
तो सवाल यही है कि हमारे फासीवाद विरोधी विमर्श में इन जमीनी व बुनियादी आंदोलनों के लिए कोई जगह है या नहीं?
भाजपा के फासीवाद के खिलाफ हमारा संयुक्त मोर्चा इन जीवंत आंदोलनों के साथ बनेगा या उस बूढ़े कांग्रेस के साथ, जिसके कपड़े अब इतने गन्दे हो चुके हैं कि उसे साफ करना असंभव है।