Book Review : नटराज की जगह कौन सा रबर गांधी का नाम मिटा रहा है
Book Review : यह किताब शिक्षा के साम्प्रदायिकरण के खिलाफ वर्ष 2001 में दिल्ली हिस्टेरियन ग्रुप के तहत शुरू हुए एक अभियान का हिस्सा है, किताब का पहला हिस्सा आरएसएस और स्कूली शिक्षा है....
हिमांशु जोशी
जनज्वार। जेएनयू (JNU) समेत विश्व के कई नामी विश्वविद्यालयों से जुड़े तीन प्रोफेसरों की लिखी किताब की शुरुआत इसके हिंदी संस्करण (Hindi Edition) हेतु अभिस्वीकृति से होती है। किताब पढ़ने की शुरआत में आपको इसके शब्द बड़े भारी-भरकम लगेंगे पर वास्तविकता पढ़ते-पढ़ते आपके कान खड़े होते जाएंगे और आप किताब पूरी खत्म होने तक बहुत सी सच्चाई को समझने के काबिल बन जाएंगे।
किताब के लेखकों का कहना है कि इस किताब को आए दस साल हो गए हैं पर किताब जिन मुद्दों पर लिखी गई उन मुद्दों की प्रासंगिकता घटने के बजाए बढ़ती ही जा रही है। 'किताब पढ़ते आप समझ जाएंगे कि लेखकों ने किताब लिखते कौन सा भविष्य देख लिया था जो आज घटित हो रहा है।' किताब का उद्देशय अपने समाज और राजनीतिक माहौल को समझने के लिए आलोचनात्मक चिंतन को बढ़ावा देना है।
विपिन चन्द्र की प्रस्तावना अप्रैल 2007 में उत्तर प्रदेश विधनसभा (Uttar Pradesh Assembl Election) चुनाव प्रचार अभियान में चल रहे सीडीज़ के खेल से शुरू होती है। वह कहते हैं कि किताब पढ़ आप साम्प्रदायिकता (Communalism) के प्रचंड संकट से रूबरू हो जाएंगे।
आभार में यह पता चलता है कि यह किताब शिक्षा के साम्प्रदायिकरण के खिलाफ वर्ष 2001 में दिल्ली हिस्टेरियन ग्रुप (Delhi Histrian Group) के तहत शुरू हुए एक अभियान का हिस्सा है। किताब का पहला हिस्सा आरएसएस और स्कूली शिक्षा है।
यह हमें बताता है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) के नेतृत्व में संघ गठजोड़ की समझ बहुत साफ रही है कि साम्प्रदायिकता को मजबूत करने के लिए जरूरी है कि साम्प्रदायिक विचारधारा को प्रभावी ढंग से फैलाया जाए। यही वज़ह है कि संघ ने सबसे ज्यादा गम्भीर प्रयास विचारधारा के क्षेत्र में ही किए हैं। दूसरे समुदाय के प्रति घृणा और अविश्वास को भरने के लिए आरएसएस ने इस काम के लिए हजारों सरस्वती शिशु मंदिरों, विद्याभारती के प्राथमिक और माध्यमिक स्कूलों और अपनी शाखाओं को माध्यम के रूप में चुना है।
'मेरा यह मानना है कि धर्म की कट्टरता देश का विनाश ही करती है, इसके लिए हमें बस एक बार अफगानिस्तान की खबरों को गूगल पर सर्च करने की जरूरत है।'
किताब में लेखक ने इस मामले में नागरिक स्वतंत्रता के लिए लड़ने वाले अथक योद्धा गांधी जी के विचार दिए हैं कि सम्प्रदायिकता, धर्मांधता और घृणा फैलाने वाले सभी तरह के साहित्य पर राज्य की ताकत का इस्तेमाल कर प्रतिबंध लगा दिया जाना चाहिए।
ऐसा न किए जाने पर वह गोधरा कांड का उदाहरण देते हैं। किताब में आरएसएस द्वारा संचालित सरस्वती शिशु मंदिर प्रकाशन और विद्या भारती प्रकाशन से प्रकाशित पाठ्यपुस्तकों के मूल्यांकन के लिए बनाई गई समिति की रिपोर्ट और उसकी सिफारिश का जिक्र है।
दिल्ली के कुतुबमीनार (Qutub Minar) और उसको बनवाने का श्रेय समुद्रगुप्त को देना जैसे अस्पष्ट तथ्यों को स्कूली शिक्षा में शामिल करना सिफारिश की अहमियत भी प्रमाणित करता है। 'एनसीईआरटी (NCERT) के निदेशक ने वर्ष 2000 में नए राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा तैयार की, किताब में उसके परिणाम पढ़ फिर से गढ़े मुर्दे उखाड़ने जरूरी हैं।'
किताब में लिखा गया है कि जो लोग हिन्दू साम्प्रदायिक ताकतों के एजेंडे से सहमत नही थे, उन पर हमले होने शुरू हो गए। 'यह बात आज हम खुद भी अपने चारों और घटित होते देख रहे हैं।'
शिक्षा और समाज में फैलाई जा रही नफरत पर चर्चा करती किताब में आगे लिखा है कि राजा राम मोहन राय, ज्योतिबा फुले और यहां तक कि बीआर अंबेडकर जैसे समाज सुधारकों पर या तो बहुत कम अथवा कुछ भी नही लिखा गया है। जाहिर है कि परम्परागत हिन्दू समाज में किसी भी तरह के सुधार की जरूरत नही समझी गई है।
'किताब का यह हिस्सा पढ़ समझ आता है कि क्यों हम अब भी हम अपने समाज में धार्मिक और जातिगत भेदभाव की गहरी खाई देखते हैं और क्यों अब भी विधवा पुनर्विवाह जैसे गम्भीर मुद्दों पर समाज में चर्चा नही होती।'
किताब का दूसरा भाग 'गांधी की हत्या की प्रेतछाया' शुरू होने से पहले आपको यह भी पता चलेगा कि महात्मा गांधी (Mahatma Gandhi) की भूमिका को भी एनसीआरटी की इन पाठ्यपुस्तकों में कम कर दिखाया गया है। दूसरा भाग गांधी नाम को हटाने के डर की वजह और उनकी हत्या की साजिश से पर्दा न उठाने की वजह ढूंढते शुरू होता है। गोडसे, सावरकर, आरएसएस और हिन्दू महासभा (Hindu Mahasabha) के सम्बन्धों में प्रकाश डाला गया है। नाथूराम के भाई और हत्या की साजिश में सहभियुक्त गोपाल गोडसे के अदालत में बयान और नाथूराम ने फांसी पर चढ़ने से पहले जो प्रार्थना पढ़ी उनके बारे में जानने के लिए किताब पढ़नी जरूरी है।
किताब में 'न्यू स्टेट्समैन' के सम्पादक किंग्सले मार्टिन के द्वारा 1948 में अपने अखबार को भेजे तार के बारे में जो जिक्र किया गया है, वह बात आज सत्य साबित हो रही है। किताब एक महत्वपूर्ण तथ्य से भी पर्दा उठती है, जिसके बारे में अक्सर सवाल उठते हैं। हिन्दू साम्प्रदायिक समूहों के दुष्प्रचार के मुताबिक भारत सरकार धोखे का आखिरी सबूत पाकिस्तान को 55 करोड़ रुपए का भुगतान करना था। उसके लिए उन्होंने गांधी के उपवास को दोषी ठहराया। गोडसे ने भी यही कहा कि उपवास के बाद ही मैं बेकाबू हो गया। जबकि यह उपवास आंशिक तौर पर भारत सरकार को अपने वायदे का सम्मान करने और हिन्दू और मुसलमानों को शर्मिंदगी का एहसास कराने का संदेश देने के लिए था।
किताब में एक शीर्षक 'गांधी जी की हत्या का कोई अफसोस नही' में हमें पता चलता है कि आरएसएस (RSS) ने गांधी जी की हत्या की निंदा करते हुए कभी एक वक्तव्य तक जारी नही किया। भाजपा सरकार द्वारा बहुत से मौकों पर सावरकर को फिर से जिंदा किए जाने का वर्णन किताब में मिलता है, 2003 में भाजपा सरकार ने संसद भवन में सावरकर की तस्वीर को ठीक महात्मा गांधी (Mahatma Gandhi) की तस्वीर के सामने लगाया।
किताब यह स्पष्ट करती है कि राष्ट्रवादी का दावा करने वाली पार्टी के पास दिखाने के लिए थोड़े से स्वतंत्रता सेनानी होना थोड़ा शर्मनाक भी है इसलिए अपने राष्ट्रवादी प्रतीक खोजने की कवायद में सावरकर को सामने किया गया हो जबकि ये वही सावरकर थे जिन्होंने अंग्रेजों से माफ़ी मांगकर क्रांतिकारियों का सिर शर्म से नीचा कर दिया था। हमारे इतिहास के उन पहलुओं को पुनर्जीवित, पुननिर्मित और विकृत किया जा रहा है जो कि साम्प्रदायिक विचारधारा और आचरण से मेल खाते हों।
'इसे पढ़ते ही मुझे हाल ही में सम्राट मिहिरभोज (Samrat Mihibhoj) के वंशज होने का दावा करने वाले राजपूतों और गुर्जरों में बना गतिरोध याद आ जाता है और यह भी कि यह गतिरोध शुरू कैसे हुआ।'
किताब का तीसरा भाग ' हिन्दू साम्प्रदायिकता की विचारधारात्मक निर्मितियां' है। यह भाग बताता है कि हिंदुत्व (Hindutva) के विचारकों के लेखन में हिंदुत्व की जो धारणा पेश की गई है उसके अनुसार भारत सिर्फ हिंदुओं का देश है, मुसलमान हमारे दुश्मन हैं, वे राष्ट्रद्रोही और गद्दार हैं। इस धारणा के अंतर्गत भारतीय राष्ट्रवाद को हिन्दू राष्ट्रवाद तक सीमित कर दिया गया है। 'यही वह बात है जिसके दिमाग में भर जाने से महात्मा गांधी (Mahatma Gandhi) की हत्या की गई।'
'आमतौर पर हिंदुस्तान में 'स्तान' की जगह साम्प्रदायिक धारणा वाले शब्द 'स्थान' का इस्तेमाल किए जाने जैसे तथ्य लेखक इतिहास से खोज लाए हैं और साथ में वह कई चेहरों को बेनकाब करते हैं।
किताब खत्म होने से पहले एक और सच सामने लाती है कि 1937 में ही सावरकर (Vinayak Damodar Savarkar) ने हिन्दू महासभा में दो राष्ट्रों के बारे में बात की थी और मुस्लिम लीग में यह मांग 1938 में उठी, जिसकी प्रतिक्रिया में सावरकर द्वारा अपने बयान बदल दिए गए थे।
'मुसलमान विरोधी पूर्वाग्रह' और 'कांग्रेस विरोधी और गांधी विरोधी रवैया' शीर्षकों में आज़ादी के पहले से ही मुसलमानों को लेकर बनाई गई क्रूर छवि पर प्रकाश डाला गया है, इसमें यह भी लिखा है कि अपने धर्म के लोग जो साम्प्रदायिक नही हैं और उदारवादी हैं, वे भी दूसरे धर्म के लोगों की तरह ही साम्प्रदायिक शक्तियों के दुश्मन बन जाते हैं और कभी-कभी उनसे भी ज्यादा। यही कारण है कि हिन्दू साम्प्रदायिक शक्तियों के अंदर कांग्रेस और गांधी के खिलाफ ज़हर भरा है।
किताब के अंतिम हिस्से में पता चलता है कि हिन्दू साम्प्रदायिक विचारक भौगोलिक आधार पर बने राष्ट्रवाद की अवधारणा की कमजोरियां गिनाते हैं और कहते हैं कि यूरोप में यह असफल हो चुका है।
'बांटने के इस खेल में भी कैसे हार मिलती रही है उसका सटीक उदाहरण हमें किताब में इसे पढ़ने के साथ मिलता है'- हिन्दू महासभा से जुड़े लोगों की अंग्रेज़ों से वफादारी और उसके बाद भी हिन्दू समेत तमाम भारतीयों से ख़ारिज हो चुनावों में हार की हताशा ने गांधी हत्या की नींव तैयार करी। 'क़िताब के अंत तक पहुंचते-पहुंचते आप खुद को किताब लिखे जाने का उद्देशय पूरा कर सकने की स्थिति में पा सकते हैं।
इसे पढ़ सालों से एक ही विचारधारा से जुड़े लोग भी अपने समाज और राजनीतिक माहौल को समझते हुए स्वयं में एक आलोचनात्मक चिंतन कर सकते हैं, क्योंकि वह जनता ही है जिसे यह फैसला लेना है कि वह आज के भारत को किस स्थिति में कल की पीढ़ी को सौंपेगी। ऐसा भारत जो धर्म, जाति के नाम पर लड़ता रहे या ऐसा भारत जो विकास की पटरी पर दौड़ता रहे। हमारा एक फैसला ही कल का एक बेहतर लोकतंत्र स्थापित करने में मदद करेगा।'