कनाडा में आंदोलनकारियों को मुआवजा देगी पुलिस, क्योंकि वहां स्वतंत्र और निष्पक्ष हैं संवैधानिक संस्थाएं

कनाडा में शांतिपूर्ण प्रदर्शनकारियों पर पुलिस ज्यादती के लिए प्रदर्शनकारियों को मुआवजा दिलाने का आदेश न्यायालय दे सकता है क्योंकि वहां का लोकतंत्र परिपक्व है और न्यायालय समेत हरेक संवैधानिक संस्थाएं निष्पक्ष हैं और स्वतंत्र हैं, हमारे देश में केवल तंत्र है, लोक नहीं....

Update: 2020-08-21 04:30 GMT

वरिष्ठ पत्रकार महेंद्र पाण्डेय की टिप्पणी

कनाडा के टोरंटो में वर्ष 2010 में जी-20 सम्मलेन हुआ था और उस दौरान हजारों की तादात में बाहर प्रदर्शनकारी शांतिपूर्ण धरना-प्रदर्शन कर रहे थे। इन प्रदर्शनकारियों का एक छोटा सा हिस्सा उग्र भी हो गया और कुछ गाड़ियों को जला डाला और कुछ भवनों के शीशे तोड़ डाले थे। इसके बाद पुलिस ने सभी प्रदर्शनकारियों को, जिसमें लगातार शांतिपूर्ण प्रदर्शन कर रहे लोग भी सम्मिलित थे, लाठियों से पीटा, उनपर आंसू गैस के गोले छोड़े, मिर्ची पाउडर और रबर बुलेट का भी इस्तेमाल किया।

कुल मिलाकर पुलिस ने अत्यधिक बल का प्रयोग किया। इसके बाद तूफानी बारिश में भी अगले दो घंटे प्रदर्शनकारियों को पुलिस ने घेरे रखा और प्रदर्शनकारी सर्दी से बेहाल रहे। बारिश बंद होने के बाद पुलिस ने प्रदर्शनकारियों को बसों में भरकर अस्थाई डिटेंशन सेंटर पर कई दिनों तक बंद रखा। डिटेंशन सेंटर ने प्रदर्शनकारियों की कैमरे के सामने कपड़े उतारकर तलाशी ली गई।


इसके बाद रिहा होने के बाद कुछ प्रदर्शनकारियों ने एक स्थानीय मानवाधिकार संगठन 'क्लास एक्शन ग्रुप' के साथ मिलकर ओंटारियो की अदालत में पुलिस की ज्यादती के खिलाफ एक याचिका दायर की थी। पूरे दस साल की लंबी बहस और सुनवाई के बाद अदालत में पुलिस ज्यादतियों को माना है और पुलिस विभाग को हरेक प्रदर्शनकारी को उसपर किए गए दुर्व्यवहार के पैमाने के अनुसार 5000 से 24700 डॉलर (कैनेडियन) का मुवावजा देगी।

इसके अलावा जी-20 सम्मलेन स्थल के बाहर मौजूद पुलिस के सर्वोच्च अधिकारी सुपरिडेटेट डेविड फांटों के अर्जित अवकाश से 60 छुट्टियां भी काटने का आदेश अदालत ने दिया। अदालत ने कहा कि पुलिस की यह बर्बरता नागरिकों के मानवाधिकार का हनन है और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और शांतिपूर्ण धरना/प्रदर्शन नागरिकों का मौलिक अधिकार है। अदालत के आदेश के अनुसार पुलिस को एक अपील जारी कर नागरिकों से इस घटना के लिए माफी मांगनी पड़ेगी, साथ ही जनता को यह भी बताना पड़ेगा कि भविष्य में धरना/प्रदर्शन के समय पुलिस के समुचित व्यवहार के लिए पुलिस विभाग में क्या बदलाव किए गए हैं।

हमारे देश में सरकार, न्यायालय और पुलिस तो इस खबर की अहमियत को नहीं समझ पायेंगे, पर जनता भी शायद ही इसका मतलब समझ पाए। इस खबर की अहमियत समझाने के लिए एक लोकतांत्रिक व्यवस्था का मस्तिष्क जरूरी है, जो हमारे देश में तो कम से कम नहीं है। यहां तो सरेआम ह्त्या करने वाले की तीमारदारी पुलिस करती है और न्यायालय भी उसे बरी कर देती हैं।

सरकारें और न्यायालायें मानवाधिकार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर लच्छेदार भाषण तो देती हैं पर इसके हनन की कोई कसर नहीं छोड़तीं। अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी, जामिया मिलिया इस्लामिया, जवाहरलाल नेहरु यूनिवर्सिटी जैसे शिक्षण संस्थाओं में सरकार के इशारे पर शांतिपूर्ण आंदोलनों के विरुद्ध पुलिस का तांडव दुनिया देख चुकी है, लेकिन यह बर्बरता किसी भी न्यायालय को नहीं दिखी।

न्यायालयों ने मानवाधिकार और शांतिपूर्ण धरना/प्रदर्शन के अधिकारों पर खूब भाषण देते हुए भी आंदोलनकारियों को ही राष्ट्रीय सुरक्षा का खतरा और राजद्रोही तक करार दिया। यह पुलिस, सरकार और न्यायालयों की एकजुटता ही है जिसमें एक गर्भवती प्रदर्शनकारी के लिए ऐसा इंतजाम कर दिया जाता है कि उसे जमानत भी न मिल सके, दूसरी तरफ कानपुर के विकास दुबे ने अगर पुलिस वालों को नहीं मारा होता तो आज भी इत्मीनान से पुलिस अधिकारियों, वरिष्ठ सरकारी कर्मचारियों और बड़े नेताओं के साथ दरबार लगा रहा होता।

जम्मू और कश्मीर का भी मानवाधिकार पूरी दुनिया पिछले साल से लगातार देख रही है। कनाडा में शांतिपूर्ण प्रदर्शनकारियों पर पुलिस ज्यादती के लिए प्रदर्शनकारियों को मुआवजा दिलाने का आदेश न्यायालय दे सकता है क्योंकि वहां का लोकतंत्र परिपक्व है और न्यायालय समेत हरेक संवैधानिक संस्थाएं निष्पक्ष हैं और स्वतंत्र हैं। हमारे देश में केवल तंत्र है, लोक नहीं। यदि हमारे देश में इस तरह का कोई मामला अदालत पहुंच जाए तो आप कल्पना कीजिए क्या होगा।


याचिका दायर करने वाले कुछ को पुलिस मुठभेड़ में मार डालती, कुछ को भीड़ मार डालती और कुछ राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा करार दिए जाते। अदालतें पहली ही सुनवाई में याचिका खारिज कर देतीं और याचिकाकर्ताओं पर अदालत का समय नष्ट करने के लिए भारी जुर्माना भी लगातीं। बड़े-बड़े मंत्री दिनभर समाचार चैनलों पर बैठकर हरेक याचिका दायर करने वालों का चरित्र हनन करते और साथ ही विपक्ष पर भद्दे आरोप लगाते, साथ ही प्रधानमंत्री जी को मानवाधिकार रक्षक के तौर पर इतिहास के किसी भी दौर के सर्वश्रेष्ठ शासक साबित करते।

सोशल मीडिया, जो हमारी सरकार का अभिन्न अंग है, पर अपशब्दों और धमकी की भरमार रहती, पर सरकार कहती कि उससे सरकार का कोई सरोकार नहीं है। मेनस्ट्रीम मीडिया, पुलिस की सहायता से याचिकाकर्ताओं की ढेर सारी फर्जी सीडी बनवाती और दिनभर उसे जनता को दिखाती। यही हमारा लोकतंत्र है और हम मरे हुए लोगों का मानवाधिकार भी।  

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