Mirza Ghalib Biography hindi: 'मिर्जा गालिब की पूरी कहानी : एक सवाल पर गालिब ने इसलिए कहा था मैं आधा मुसलमान हूं...
Mirza Ghalib Biography hindi: दुनिया में इस तरह की शायरी की बात हो तो बस एक नाम ही जुबां पर आता है। वो नाम है मिर्जा गालिब। इनकी शायरी के बीच में ना किसी मजहब का बंधन है और ना ही किसी जाति की दीवार। हर कोई बस सुनता है तो बरबस सुनता ही जाता है। फिर यही कहता है कि ये तो मिर्जा गालिब साहब की शायरी है।
मोना सिंह की रिपोर्ट
हुई मुद्दत कि 'ग़ालिब' मर गया पर याद आता है,
वो हर इक बात पर कहना कि यूँ होता तो क्या होता !
Mirza Ghalib Biography hindi: दुनिया में इस तरह की शायरी की बात हो तो बस एक नाम ही जुबां पर आता है। वो नाम है मिर्जा गालिब। इनकी शायरी के बीच में ना किसी मजहब का बंधन है और ना ही किसी जाति की दीवार। हर कोई बस सुनता है तो बरबस सुनता ही जाता है। फिर यही कहता है कि ये तो मिर्जा गालिब साहब की शायरी है।
वाकई मिर्जा गालिब की कोई भी बात करें वो कम ही पड़ जाएगी। लेकिन मिर्जा गालिब का असली नाम मिर्जा असद उल्लाह खान था। वो अंतिम मुगल काल के महान उर्दू शायर थे। अपनी मृत्यु के 150 साल बाद भी अपने उर्दू और हिंदी भाषी प्रशंसकों के बीच लोकप्रिय गालिब के प्रशंसकों में युवा हो या बुजुर्ग हर कोई शामिल है। गालिब की शायरी में जीवन का गहरा अर्थ, प्रेम और रोमांस छुपा हुआ है। उनके शेर या दोहे जीवन की लगभग सभी स्थितियों से जुड़े रहे हैं। 27 दिसंबर 2021 को ग़ालिब की 224वी जयंती पर जानते हैं उनके बारे में कुछ विशेष बातें।
मिर्जा गालिब का जन्म और परिवार
मिर्जा गालिब का आगरा के काला महल में 27 दिसंबर 1797 को जन्म हुआ था। वो तुर्कों के वंशज थे। जो सेलजुक राजाओं के पतन के बाद समरकंद उज़्बेकिस्तान चले गए थे। गालिब के दादा वहां से भारत के आगरा शहर आए थे। उस दौरान आगरा को अकबराबाद के नाम से भी जाना जाता था। इसी आगरा में उनका परिवार बस गया था। गालिब के पिता का नाम मिर्जा अब्दुल्लाह खान और माता का नाम इज्जत उन्नीसा बेगम था। मां भारतीय कश्मीरी मूल से ताल्लुक रखती थीं।
इस तरह गालिब पिता की तरफ से तुर्की और माता की तरफ से कश्मीरी थे। उनका असली नाम मिर्जा असद उल्लाह खान था। गालिब की उम्र जब 5 वर्ष की थी तभी उनके पिता की मृत्यु एक युद्ध के दौरान हो गई थी। इसके बाद उनके चाचा नसरुल्लाह बेग ने गालिब की देखभाल की जिम्मेदारी ले ली। लेकिन 4वर्ष बाद उनकी भी मृत्यु हो गई। इसके बाद बड़ी मुश्किलों में उन्होंने अपनी जिंदगी की शुरुआत की थी।
मिर्जा गालिब की शिक्षा
गालिब ने कभी भी औपचारिक शिक्षा प्राप्त नहीं की। वो कभी मदरसा नहीं गए थे। मुल्ला अब्दुल समद उनके शिक्षक थे। जिनसे उन्होंने अरबी फारसी और दर्शनशास्त्र की शिक्षा ली थी। इनकी अरबी फारसी और दूसरी भाषाओं पर इतनी पकड़ थी कि इन्हें पढ़ाने वाले भी इनके कायल हो गए थे।इन्होंने 11साल की उम्र से शायरी लिखनी शुरू कर दी थी।
शादी और परिवार
गालिब की शादी 13 साल की उम्र में लोहारू और झिरका के पहले नवाब की भतीजी उमराव बेगम से हुई थी। उमराव बेगम धार्मिक महिला थी। 13 वर्ष की उम्र में शादी के बाद में दिल्ली आ गए थे। दिल्ली में उनका घर पुरानी दिल्ली के गालिब की हवेली में रहता रहा। इसे लोहारू के नवाब की बहन ने दिया था। गालिब के 7 बच्चे हुए थे। लेकिन उनका दुर्भाग्य था कि सभी 7 बच्चों में से कोई भी जीवित नहीं रहा। बाद में गालिब ने अपनी पत्नी के भतीजे आरिफ को गोद लिया। जिनकी मृत्यु भी जल्द ही लगभग 36 वर्ष की आयु में हो गई थी।
गालिब की गिनती शहर के अमीर लोगों में होने लगी थी। गालिब की कोई निश्चित नौकरी या व्यवसाय नहीं था। लेकिन उनका जीवन अनुदान, चाचा की पेंशन और अपने ससुराल वालों की आर्थिक सहायता पर चलता था। उनके ससुराल वाले बहुत अमीर थे। नियमित आय ना होने के बावजूद उन्हें विलासिता पूर्ण जीवन जीने का शौक था। उन्हें महंगी शराब पीने का शौक था। इसके लिए उनके घर में कल्लू नामक नौकर था। जो शराब और गुलाब जल का उचित मिश्रण बनाकर पीने के कई घंटे पहले उसे मिट्टी में गाड़ देता था। इसके साथ ही साथ उन्हें अच्छे खाने और महंगी चीजों का भी शौक था।
कहा जाता है कि मौत से गालिब को डर नहीं लगता था। बल्कि इस बात से डरते थे कि कहीं इन विलासिता वाली चीजों की कमी ना पड़ जाए। वे दिल्ली में जब थे तब उस दौरान अकबर शाह द्वितीय ( 1806 से 1837) का शासन था। उसी दौरान 19 साल की उम्र में गालिब की कविताएं शहर में बहुत लोकप्रिय हो चुकीं थीं। इसके बाद में उन्होंने बहादुर शाह जफर द्वितीय के दरबार में महत्वपूर्ण दरबारी का स्थान हासिल किया। 1850 में बहादुर शाह जफर ने उन्हें" दबीर -उल- मुल्क"," नज़्म -उद- दौला" और 'मिर्जा निशा' की उपाधि प्रदान की थी। उन्हें बहादुर शाह जफर के बेटे फखरुद्दीन मिर्जा के कवि शिक्षक के रूप में नियुक्त किया गया। वह लगभग 50 वर्षों तक दिल्ली में रहे। उन्होंने कभी खुद का घर नहीं बनाया। वह रिश्तेदारों द्वारा दिए गए घरों में रहते थे।
मैं आधा मुसलमान हूं, क्योंकि शराब पीता हूं : गालिब
गालिब को पहली बार 1857 के विद्रोह के बाद गिरफ्तार किया गया था। उस समय कई मुसलमानों को गिरफ्तार किया गया था। उन्हें जब कर्नल ब्रून के सामने पेश किया गया तो उनसे पूछा गया कि क्या आप मुसलमान हैं। तो उनका जवाब था कि मैं आधा मुसलमान हूं। क्योंकि मैं शराब पीता हूं। लेकिन सुअर का मांस नहीं खाता। वे विनोद प्रिय व्यक्ति थे। 1841 में भी उनकी गिरफ्तारी जुए के आरोप में हुई थी। जिसमें उन्हें 6 महीने की कैद के साथ जुर्माना लगाया गया था।
मानवीय संवेदना और स्वाभिमान
गालिब की कविताओं में इतनी गहराई होती थी,कि उसका आकलन करना आसान नहीं था। उनकी कविताओं में मनुष्य के भाग्य, विरोधाभास होने के साथ खुद के अनुभव गहरे कष्टों और जीवन के संघर्ष दिखाई देता है। कविताओं में द्वंद्वात्मक स्पर्श और मानवीय संवेदना है। जिन्हें उन परिस्थितियों से समझा जा सकता है।
" बस कि दुश्मन है, हर काम का आसान होना... आदमी को भी मय्यसर नहीं इंसान होना" मतलब जिस तरह छोटा सा काम भी आसानी से नहीं हो पाता वैसे ही एक आदमी के लिए आदमी होना मुश्किल है।
मिर्जा गालिब के स्वाभिमान को समझना है तो इस बात से बेहतर समझा जा सकता है। दरअसल, एक बार दिल्ली कॉलेज को फारसी प्रोफेसर की जरूरत थी। ब्रिटिश सचिव थॉमसन ने मोमिन को नौकरी की पेशकश की थी। लेकिन उन्होंने गालिब का नाम सुझाया। प्रोटोकॉल की वजह से थॉमसन गालिब को लेने नहीं गए और दूसरे व्यक्ति को भेज दिया। बस यही बात ऐसी थी कि गालिब को ठेस लग गई। और वो कॉलेज तक तो पहुंचे लेकिन उसमें प्रवेश किए बिना ही वापस लौट गए थे।
गालिब का आध्यात्म और दर्शन
ग़ालिब कर्मकांडी नहीं थे। वे आध्यात्मिक और स्वघोषित सूफी थे। यह उनके उदाहरण में साफ दिखाई देता है। सैफ महमूद की पुस्तक 'प्यारी दिल्ली, एक मुगल शहर' में लिखा है कि ग़ालिब एक महान दार्शनिक हैं। जो समय, संस्कृत और भौगोलिक क्षेत्रों से परे हैं। वो लिखते हैं कि गालिब एक अध्यात्मवादी थे। अपनी शायरी में वह पहले भगवान की उपस्थिति का जश्न मनाते हैं और फिर तुरंत इसके खिलाफ भी हो जाते हैं। सभी प्रतिभाओं की तरह गालिब भी एक रहस्य की तरह हैं। साहित्यिक आलोचक अब्दुल गनी के अनुसार, गालिब हमेशा रहस्यमय मामलों के बारे में बात करते थे।
गालिब के बारे में कहा जाता है कि वो महान कवि के अलावा असाधारण लेखक भी थे। उनके लिखे पत्र पहली बार 1868 में प्रकाशित हुए थे। इसके बाद 1869 में उर्दू मुअल्ला द्वारा और फिर साल 1949 में भी ओड-ए- हिंदी द्वारा उनके लिखे पत्र प्रकाशित किए गए थे।
मुगलों और अंग्रेजों का प्रभाव
गालिब मुगलों और अंग्रेजों पर अनुदान और पेंशन के लिए निर्भर थे। एक बार उन्होंने पेंशन के लिए कोलकाता की लंबी यात्रा भी की थी। वह जानते थे कि उन्हें नाराज करना बुद्धिमानी नहीं है। लेकिन वे चापलूसी से बहुत दूर थे। उन्होंने मुगलों और अंग्रेजों दोनों की प्रशंसा में कई तमाशे लिखे। उन्होंने बिना किसी डर या पक्षपात के अपनी बात कही थी। उनकी कविताएं क्यों, क्या, कब, कहां और कैसे जैसे शब्दों से भरी हुई हैं। जो धर्म और पारंपरिक संरचना से संबंधित सवाल का प्रतीक है। साल 1828 अपने शिष्य हरगोपाल तफ्ता को लिखे पत्र में भी लिखते हैं, "कृपया सत्य और सही पर विचार ना करें, जो बड़ों ने लिखा है, पुराने जमाने में भी मूर्ख होते थे"
गालिब ने अपनी जिंदगी में कभी किताबें नहीं खरीदीं जबकि वह सारी जिंदगी लिखने पढ़ने का काम करते रहे। पढ़ने के लिए वह किताबें उस समय के चलते फिरते पुस्तकालय से उधार लेते थे।
गालिब की मृत्यु
उनकी मृत्यु 15 फरवरी 1869 में हुई। जब वो 71 वर्ष के थे। दिल्ली के अपने आखिरी निवास गालिब की हवेली में उन्होंने आखिरी सांस ली थी। गालिब की हवेली जो पुरानी दिल्ली के चांदनी चौक, बल्लीमारान की गली कासिम जान में एक प्राचीन जर्जर इमारत के रूप में है। मुगल युग के अंतिम महान कवि की कहानी उनकी मौत के 150 साल बाद भी जिंदा है।
गालिब की हवेली जो 300 साल पुरानी है, इसे भारतीय पुरातत्व सोसायटी द्वारा संग्रहालय में तब्दील कर दिया गया है। जिसमें उनकी हाथी दांत की मूर्ति, किताबें, दोहे, कपड़े, तस्वीरें और हुक्का का आनंद लेने वाली कवि की आदम कद प्रतिकृति शामिल है। कवि और गीतकार गुलजार ने मिर्जा गालिब नामक सीरियल भी बनाया था। इसके अलावा गालिब पर फिल्में और नाटक भी बन चुके हैं। गालिब को लोहारू के नवाब के पारिवारिक कब्रिस्तान में निजामुद्दीन बस्ती में दफन किया गया था। उनकी पत्नी जिनका निधन ठीक उनके निधन के 1 वर्ष बाद 15 फरवरी को हुआ था। उनकी पत्नी को भी मिर्जा गालिब के कब्र के ठीक पास में दफन किया गया था।
उनसे कुछ मीटर की दूरी पर तेरहवीं सदी के सूफी संत निजामुद्दीन औलिया की दरगाह है। जिस पर श्रद्धालुओं का तांता लगा रहता है। इसके पास ही अमीर खुसरो की कब्र है। गालिब के प्रशंसक उन्हें दूर-दूर से श्रद्धांजलि देने आते हैं। गालिब चाहते थे कि पृथ्वी पर उनकी कब्र कहीं भी ना हो। इस बारे में उन्होंने लिखा था कि "हुए मार के हम जो रूसा, हुए क्यूं न घर-ए-दरिया, ना कभी जनाजा उठा, न कहीं मजार होता " ( यानी वो कहना चाहते थे कि, ना कभी अंतिम संस्कार हो और ना कहीं कब्र बनाना)
गालिब की कुछ लोकप्रिय शायरी जो आज भी प्रासंगिक है -
हमको मालूम है जन्नत की हक़ीक़त लेकिन,
दिल के खुश रखने को 'ग़ालिब' ये ख़याल अच्छा है
रगों में दौड़ते फिरने के हम नहीं क़ायल
जब आँख ही से न टपका तो फिर लहू क्या है
वो आए घर में हमारे, खुदा की क़ुदरत हैं!
कभी हम उनको, कभी अपने घर को देखते हैं
हर एक बात पे कहते हो तुम कि तू क्या है
तुम्हीं कहो कि ये अंदाज़-ए-गुफ़्तगू क्या है
बिजली इक कौंध गयी आँखों के आगे तो क्या,
बात करते कि मैं लब तश्न-ए-तक़रीर भी था।
यही है आज़माना तो सताना किसको कहते हैं,
अदू के हो लिए जब तुम तो मेरा इम्तहां क्यों हो
इश्क़ पर जोर नहीं है ये वो आतिश 'ग़ालिब',
कि लगाये न लगे और बुझाये न बुझे
जला है जिस्म जहाँ दिल भी जल गया होगा
कुरेदते हो जो अब राख जुस्तजू क्या है
हाथों की लकीरों पर मत जा गालिब ।
नसीब उनके भी होते हैं जिनके हाथ नहीं होते।।
हजारों ख्वाहिशें ऐसी, कि हर ख्वाहिश पे दम निकले।
बहुत निकले मेरे अरमान, फिर भी कम निकले।।
कितना खौफ होता है, शाम के अंधेरों में।
पूछों उन परिंदों से, जिनके घर नहीं होते।।
दिल -ए- नादां, तुझे हुआ क्या है?
आखिर इस दर्द की दवा क्या है?
उनके देखे से जो आ जाती है, मुंह पर रौनक।
वह समझते हैं कि बीमार का हाल अच्छा है।।
इश्क ने गालिब निकम्मा कर दिया।
वरना हम भी आदमी थे काम के।।