क्या 26 जनवरी को किसानों और पुलिस के बीच खूनी खेल की तैयारी में है मोदी सरकार?
26 जनवरी के प्रस्तावित किसान गणतंत्र परेड और मोदी सरकार के रुख से कैसी चुनौतियां उत्पन्न होंगी और आगे की राह क्या हो सकती है। पढिए पूर्व आइपीएस वीएन राय का विश्लेषण...
पूर्व आइपीएस वीएन राय की टिप्पणी
किसान आंदोलनकारी के नजरिये से, सर्वोच्च न्यायालय की नामित किसान कमिटी और मोदी सरकार के बनाये काले कृषि कानून एक-दूसरे के मौसेरे भाई सिद्ध हुए हैं। उसने दोनों को समान रूप से तिरस्कृत कर वर्तमान आंदोलन को कूड़ेदान में फेंक दिया है। हरियाणा के मुख्यमंत्री खट्टर का हेलिकॉप्टर, स्थानीय किसानों के उग्र विरोध के चलते, उनके विधानसभा शहर करनाल के कैमला गाँव में 10 जनवरी की सरकारी किसान महापंचायत में नहीं उतर सका था। क्या इस हेलिकॉप्टर वापसी में कानून वापसी को लेकर किसानों की किसी भी सीमा तक जाने की वर्गीय इच्छाशक्ति ही नहीं दिख रही?
कैलेंडर किसी की प्रतीक्षा नहीं करता। 26 जनवरी की तारीख करीब आती जा रही है और आशंका गहरा रही है कि देश की राजधानी में किसान और पुलिस आमने-सामने दिखेंगे। यह भी तय है कि हजारों ट्रैक्टरों पर सवार दिल्ली में घुसते दृढ़ निश्चयी आंदोलनकारियों के समूह में स्त्रियाँ, बुजुर्ग और बच्चे भी बड़ी संख्या में शामिल होंगे। ऐसे में कानून-व्यवस्था का ऊंट किस असहज करवट बैठेगा, कोई नहीं कह सकता। किसान आंदोलन के राष्ट्रीय उफान को बांधने में जहाँ सर्वोच्च स्तर की राजनीतिक और अदालती पैंतरेबाजियां विफल होती लग रही हों, पुलिसिया दखलंदाजी की अंतिम रणनीति से उम्मीद रखना मोदी सरकार के लिए आपदा में अवसर नहीं होने जा रहा।
अभी तक मोदी सरकार किसान आंदोलन की घेरेबंदी में पुलिस के रक्षात्मक इस्तेमाल से अपनी मंशा जताती आ रही है। जबकि, साथ ही उसने अनुकूल मीडिया और अपने राजनीतिक-सामाजिक प्रचारतंत्र के द्वारा खुद की कॉर्पोरेटपरस्ती पर पर्दा डालने और किसान नेतृत्व को बदनाम करने की मुहिम में कोई कसर नहीं छोड़ी हुई है। किसानों ने न केवल सरकारी प्रचार का राजनीतिक रूप से भी तार्किक जवाब दिया है, उन्होंने अनुशासित और शांतिपूर्ण बने रहकर 26 जनवरी के दिल्ली मार्च की तैयारी के लिए एक ठोस नैतिक मंच हासिल कर लिया है। अंतरराष्ट्रीय परिदृश्य पर भी, कोरोना वैक्सीन और अमेरिकी संसद पर ट्रंप समर्थकों के धावा बोलने जैसे ज्वलंत मुद्दों के होते हुए भी, भारतीय किसान कानूनों के विरोध में होने जा रहा दिल्ली मार्च कम सुर्खियाँ नहीं बटोरने जा रहा।
मोदी के संकटमोचक गृह मंत्री अमित शाह ने भाजपा सरकारों को कैमला के कटु अनुभव के बाद उस जैसे भड़काऊ किसान सम्मलेन आयोजित करने से परहेज रखने को कहा है। लेकिन, फिलहाल गेंद सीधे शाह के अपने पाले में आने जा रही है। दिल्ली में कानून व्यवस्था सीधे शाह के गृह मंत्रालय की जिम्मेदारी बनती है। गत फरवरी में उत्तर-पूर्व दिल्ली के साम्प्रदायिक दंगों से निपटने में दिल्ली पुलिस की भूमिका, जानकार हलकों में, पक्षपातपूर्ण ही नहीं, प्रभावहीन भी ठहराई गयी थी। अब इस बंदरबांट वाली भूमिका की पुलिस से काम नहीं चलेगा। दो टूक समीकरण सामने है कि वर्गीय चेतना से उद्वेलित किसान जन समुद्र को क्या किसी कानून व्यवस्था के बाँध से रोका जा सकेगा?
यह टकराव क्या स्वरूप लेगा? सरकार का बस चले तो वह इसे एक और शाहीनबाग़ बनाना चाहेगी, सीमित और अलग-थलग। लेकिन, भुलाना नहीं चाहिये कि इस किसान आंदोलन की तुलना गांधी के सत्याग्रह आधारित राष्ट्रीय आंदोलन से भी की गयी है। उस ऐतिहासिक दौर से तुलनात्मक बिंब भी उधार लिए जा सकते हैं। जाहिर है, मोदी और शाह के सलाहकार दिल्ली को जलियांवाला बाग़ नहीं बनाना चाहेंगे। न आंदोलनकारी नेतृत्व चौरीचौरा दोहराये जाना देखने को इच्छुक होगा। गांधी-इरविन पैक्ट का समय भी तेजी से निकलता जा रहा है और करो या मरो की हुंकार हवा में गूंज रही है। क्या मोदी सरकार यू-टर्न ले सकती है? क्यों नहीं? किसान अब यू-टर्न नहीं ले सकता।