कोरोना के बहाने मोदी सरकार ने लोकतंत्र के गर्दन पर कसा शिकंजा, महामारी के खिलाफ लड़ाई का किया दिखावा

पिछले सात महीने में कोरोना के बहाने मोदी सरकार ने सत्ता को एक किस्म की तानाशाही में रूपांतरित कर दिया है, महामारी पर नियंत्रण करना उसका मकसद कभी नहीं था-यह भी स्पष्ट हो चुका है.......

Update: 2020-10-24 10:02 GMT
(पांच दिसंबर 2020 को लक्षद्वीप में प्रफुल्ल पटेल को प्रशासन ने नियुक्त किया गया था।)

दिनकर कुमार का विश्लेषण

एक वैज्ञानिक का कथन है कि भय परमाणु बम से भी अधिक विध्वंसक होता है। इस भय का विध्वंसक इस्तेमाल करते हुए भारत में मोदी सरकार ने कोविड-19 महामारी रूपी आपदा को खुद के स्वार्थ के लिए अवसर में बदल दिया है। बर्बरता पूर्वक कठोर लॉकडाउन लागू कर उसने पहले पूरे देश को एक जेल में तब्दील कर दिया। जब अर्थव्यवस्था का भट्ठा पूरी तरह बैठ गया और आम लोग त्राहि-त्राहि करने लगे तब उसने दया का नाटक करते हुए रियायत देने का फैसला किया। लेकिन इस महामारी के बहाने उसने लोकतंत्र की गर्दन पर जो शिकंजा कसा है, उससे निजात पाना इस देश के लिए कठिन साबित होने वाला है।

इसी कोरोना के बहाने भारत में राजनीतिक शक्ति अब गृह मंत्रालय और वर्तमान प्रधान मंत्री कार्यालय तक केंद्रित होकर रह गई है। यह कोविड-19 महामारी से लड़ने के नाम पर हुआ है और इसलिए इस पर ज्यादा टिप्पणी नहीं की गई है। इसका मतलब न केवल अन्य केंद्रीय मंत्रालयों के अधिकारों और जिम्मेदारियों को कम करना है, बल्कि इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि राज्य सरकारों और प्रशासन के निम्न स्तर तक सारे अधिकार छीन लिए गए हैं। मोदी सरकार ने इस विविधतापूर्ण देश में निरंकुश रणनीति को लागू करके महामारी के खिलाफ लड़ाई का दिखावा किया है। कोविड-19 संक्रमण के नगण्य या कुछ मामलों वाले जिलों में भी बार्बर लॉकडाउन को लागू किया गया। बहाना बनाया गया कि महामारी से लड़ने की तैयारी के लिए आवश्यक व्यक्तिगत सुरक्षा उपकरण (पीपीई) और अन्य उपकरणों की खरीद की आवश्यकता थी। पूरे देश को नौकरशाही की मानक संचालन प्रक्रिया के भरोसे छोड़ दिया गया। नौकरशाही ने विगत सात महीने में नियम बनाने के मामले में मूर्खता और क्रूरता का परिचय दिया है।

कोरोना का पहला मामला जनवरी के अंत में पाए जाने के बाद के शुरुआती हफ्तों में कुछ राज्यों ने बढ़ते संकट से निपटने के लिए ब्रिटिश युग की महामारी रोग अधिनियम (1897) लागू किया, साथ ही लोगों के एकत्र होने पर प्रतिबंध लगाने के लिए आपराधिक प्रक्रिया संहिता के सामान्य प्रावधानों के साथ मोदी सरकार ने खुद इसे लागू करने की सलाह दी। कुछ विशेषज्ञों द्वारा इस अधिनियम को औपनिवेशिक प्रशासन द्वारा पारित सबसे कठोर कानूनों में से एक के रूप में वर्णित किया गया है। इसमें केवल चार खंड हैं, और यदि आप उन्हें पढ़ते हैं तो आप समझेंगे कि यह कैसे राज्य सरकारों को महामारी से निपटने के लिए व्यापक, निरंकुश शक्तियां प्रदान करता है। इनमें लोगों को गिरफ्तार करने, उन्हें अलग-थलग करने, बल का उपयोग करने, संपत्ति को नष्ट करने आदि के लिए अप्रयुक्त शक्तियां शामिल हैं। राज्यों द्वारा इस अधिनियम के तहत बनाए गए विनियम जारी किए गए थे और वे आम लोगों के जीवन में दाखल देने के मामले में कई कदम आगे निकल गए।

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हालांकि, राज्य स्तर की प्रतिक्रियाओं की यह शुरुआती अवधि अंधेरे में टटोलने की अवधि थी। मोदी सरकार ने डिजास्टर मैनेजमेंट एक्ट, 2005 लागू किया था, लेकिन जादू की छड़ी को केंद्रित करने वाली शक्ति के रूप में इसकी क्षमता शायद अभी भी उसके लिए पर्याप्त साबित नहीं हो रही थी। यह सच ब्रह्मास्त्र (अंतिम हथियार) के रूप में तब सामने आया जब मोदी ने 24 मार्च को अपनी विशिष्ट नाटकीय शैली में देशव्यापी लॉकडाउन की घोषणा की। देश के 1.5 बिलियन लोगों को चार घंटे का नोटिस देते हुए इसका ऐलान किया गया था। उसके बाद भारत एक जेल बन गया, जिसमें केवल आवश्यक सेवाओं को ही छूट दी गई थी।

यह अधिनियम हालांकि शुरू में मोदी सरकार द्वारा लागू किया गया था, 24 मार्च के बाद सबसे बड़ा अस्त्र बन गया जब केंद्र सरकार ने सभी राज्य सरकारों और स्थानीय निकायों को आदेश जारी किया कि वे इस कानून द्वारा लॉकडाउन के निर्देशों का पालन करने के लिए बाध्य थे। एक झटके में महामारी से निपटने के नाम पर सभी शक्तियां छीन ली गईं और गृह मंत्रालय में केंद्रित हो गईं।

इस अधिनियम का मूल उद्गम अस्पष्ट क्षेत्र में निहित है। संविधान में 'आपदा प्रबंधन' के लिए कोई प्रविष्टि नहीं है। लेकिन 2004 की एशियाई सुनामी के बाद, तत्कालीन यूपीए सरकार ने इस कानून को "सामाजिक सुरक्षा और सामाजिक बीमा" की समवर्ती सूची प्रविष्टि के रूप में स्वीकार करते हुए विवादास्पद रूप से केंद्रीय कानून के रूप में पारित किया था। इस बारे में ऐसी अस्पष्टता थी कि 2006 में दूसरे प्रशासनिक सुधार आयोग को यह बताना पड़ा था कि इस अधिनियम को कानूनी रूप से पवित्रता प्रदान करने के लिए संविधान की सातवीं अनुसूची में आपदा प्रबंधन पर एक प्रविष्टि की जानी चाहिए। यह कहने की आवश्यकता नहीं है कि किसी ने भी इस पर ध्यान नहीं दिया और अधिनियम जारी रहा। कोविड-19 महामारी के बहाने मोदी सरकार इसीका इस्तेमाल लोकतंत्र और नागरिक अधिकारों को कुचलने के लिए कर रही है।

इस अधिनियम के तहत प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में एक राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (एनडीएमए) स्थापित करने का प्रावधान है। यह निकाय इस प्रकार अधिनियम के तहत विभिन्न नीतियों को लागू करने के लिए सर्वोच्च निकाय बन जाता है। केंद्र सरकार और एनडीएमए को व्यापक शक्ति दी जाती है। केंद्र सरकार भारत में कहीं भी किसी भी प्राधिकरण को आपदा प्रबंधन की सुविधा या सहायता के लिए कोई भी निर्देश जारी कर सकती है। केंद्र सरकार और एनडीएमए द्वारा जारी किए गए ऐसे सभी निर्देशों का सभी केंद्रीय मंत्रालयों, राज्य सरकारों और राज्य आपदा प्रबंधन प्राधिकरणों को आवश्यक रूप से पालन करना पड़ेगा।

याद रखें, पूरी शक्ति गृह मंत्रालय के अधीन है, क्योंकि सभी 'आपदा प्रबंधन' पर उसका प्रशासनिक नियंत्रण है और यह भी प्रावधान है कि प्रधानमंत्री एनडीएमए की सभी शक्तियों का प्रयोग कर सकता है। इसलिए पीएम मोदी और गृह मंत्री अमित शाह अब कानूनी रूप से पूरे देश को चलाने के लिए अधिकृत हैं - और जो कोई भी सवाल उठाता है, उसे दंडित किया जा सकता है।

लॉकडाउन 1.0 को एनडीएमए के 24-03-2020 के आदेश के अनुसार लगाया गया था ताकि सामाजिक दूरी सुनिश्चित करने के लिए उपाय किए जा सकें और कोविड-19 के प्रसार को रोका जा सके। विस्तृत दिशानिर्देश उसी दिन गृह मंत्रालय द्वारा जारी किए गए थे।

तब से गृह मंत्रालय द्वारा लगभग 80 आदेश जारी किए गए हैं। इनमें विभिन्न अनर्गल निर्देश से लेकर एक दर्जन से अधिक स्पष्टीकरण शामिल रहे हैं। ज्यादातर लॉकडाउन से छूट को परिभाषित करते हैं। उदाहरण के लिए 27 मार्च को जारी स्पष्टीकरण में कृषि कार्यों को लॉकडाउन से छूट दी गई। ऐसा इसलिए करना पड़ा क्योंकि रबी फसल (गेहूं, सरसों इत्यादि) खेतों में तैयार और पकी हुई थी। यह सब ध्यान देने योग्य है क्योंकि यह एक विशिष्ट पैटर्न का अनुसरण करता रहा है कि अगर अन्य हितधारकों (राज्य सरकार, अन्य मंत्रालयों, स्थानीय निकायों) को नहीं रखा जाता है तो कैसे एक अत्यधिक केन्द्रित रणनीति भटकाव का शिकार हो जाती है।

यह विचित्र लगता है, लेकिन फिर भी यह सच है कि शाह और मोदी के मार्गदर्शन में आदेशों की धज्जियां उड़ाने वाले नौकरशाहों को यह पता नहीं था कि: रबी फसलों की कटाई करने की आवश्यकता है; लाखों प्रवासी कामगार फंसे हुए हैं और घर वापस जाना चाहते हैं। उन्होंने एक झटके और विस्मयकारी शैली में सब कुछ बंद कर दिया और बाद में बार-बार फैसले में बदलाव करते रहे।

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राज्य सरकारें इन विचित्र नीतियों और अपने अधिकारों के क्षरण के दबाव को काफी महसूस कर रही हैं। लॉकडाउन में शराब के उत्पादन और बिक्री पर प्रतिबंध लगाकर मोदी सरकार ने प्रभावी रूप से 30-40% राजस्व में कटौती की, जो राज्यों को अपने उत्पाद शुल्क से मिलता था। इस बारे में कोई परामर्श नहीं किया गया था, और फिर राज्य सरकारों ने एक बैठक में अपने स्वयं के करों से राजस्व गिरने का मुद्दा उठाया था। रिपोर्टों से पता चलता है कि राज्यों के राजस्व में 80-90% तक की गिरावट आई है, जो महामारी से लड़ने के उनके प्रयासों को गंभीर रूप से बाधित कर रहा है। उन्हें ऋण जुटाने की अनुमति नहीं दी जा रही है, और यहां तक कि तेल मूल्य निर्धारण के माध्यम से कुछ राजस्व जुटाने की संभावना को केंद्र सरकार ने जल्दबाजी में ड्यूटी बढ़ोतरी की घोषणा करते हुए छीन लिया।

पिछले सात महीने में कोरोना के बहाने मोदी सरकार ने सत्ता को एक किस्म की तानाशाही में रूपांतरित कर दिया है। महामारी पर नियंत्रण करना उसका मकसद कभी नहीं था-यह भी स्पष्ट हो चुका है। सारे नियम आम लोगों के जीवन में दखलंदाजी के लिए लागू हो रहे हैं लेकिन भाजपा के लोग इन नियमों से ऊपर हैं। वे खुलकर चुनाव प्रचार करते हैं, रैली करते हैं। लेकिन जनता को विरोध प्रदर्शन की इजाजत नहीं है। लोगों को घरों के अंदर कैद कर रेलवे सहित तमाम राष्ट्रीय संपत्तियों को बेचने का सिलसिला जारी है। बेहयाई की हदों को लांघते हुए भाजपा ने बिहार के मतदाताओं से कहा है- तुम हमें वोट दो, हम तुम्हें मुफ्त वैक्सीन देंगे।

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