उत्तर प्रदेश निकाय चुनाव में OBC आरक्षण का हुआ खात्मा?
बीजेपी आरक्षण विरोध की वजह से आज सत्ता में है, निकाय में ओबीसी को आरक्षण देने के लिए योगी सरकार ने आयोग नहीं बनाया, मंडल लागू करने से ही कमंडल पैदा हुआ और बीजेपी का विशालकाय में इसका बड़ा योगदान है...
पूर्व सांसद डॉ. उदित राज की टिप्पणी
उत्तर प्रदेश में होने वाले नगर निकाय चुनाव को लेकर इलाहाबाद हाई कोर्ट की लखनऊ बेंच ने 27 दिसम्बर, 22 को अहम फैसला सुनाया। हाईकोर्ट ने बिना ओबीसी आरक्षण के नगर निकाय चुनाव कराने का फैसला सुना दिया है। हाईकोर्ट ने कहा कि जब तक ट्रिपल टेस्ट न हो, तब तक ओबीसी आरक्षण नहीं होगा, सरकार या निर्वाचन आयोग बिना ओबीसी आरक्षण के चुनाव करवा सकता है। ओबीसी के लिए आरक्षित सभी सीटें अब सामान्य मानी जाएंगी। हाईकोर्ट ने तत्काल निकाय चुनाव कराने का निर्देश दिया है। 2021 में सुप्रीम कोर्ट ने शर्तें रखी थी कि बिना ट्रिपल टेस्ट के ओबीसी को अरक्षण न दिया जाय। यह संविधान के मंशा के विरूद्ध था।
निकाय चुनाव में रिजर्व सीटों का यूपी में 762 शहरी निकाय हैं। इसमें 17 म्युनिसिपल कॉरपोरेशन, 200 नगरपालिका परिषद और 545 नगर पंचायत हैं। 762 शहरी निकाय की कुल आबादी करीब 5 करोड़ है। 17 म्युनिसिपल कॉरपोरेशन में से दो सीट अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित है, इसमें से एक सीट अनुसूचित जाति की महिला उम्मीदवार के लिए आरक्षित है। आगरा की मेयर सीट अनुसूचित जाति की महिला के लिए रिजर्व है, जबकि झांसी की सीट अनुसूचित जाति के लिए रिजर्व है।
इसके अलावा 4 मेयर सीट ओबीसी के लिए रिजर्व है। अलीगढ़, मथुरा-वृंदावन की सीट ओबीसी महिला के लिए आरक्षित है। मेरठ और प्रयागराज की सीट ओबीसी के लिए रिजर्व है। अयोध्या, सहारनपुर और मुरादाबाद की मेयर सीट महिला के लिए आरक्षित है। इसके अलावा 8 बची मेयर की सीट अनारक्षित श्रेणी की हैं। इनमें फिरोजाबाद, गाजियाबाद, लखनऊ, कानपुर, गोरखपुर, वाराणसी, बरेली और शाहजहांपुर की सीटें शामिल हैं।
हाईकोर्ट ने बिना ओबीसी के आरक्षण के निकाय चुनाव का आधार सुप्रीम कोर्ट के 2021 एक फैसले को आधार को मानकर किया है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा था ट्रिपल टेस्ट फॉर्मूला के अनुसार- राज्य को एक कमीशन बनाना होगा, जो अन्य पिछड़ा वर्ग की स्थिति पर अपनी रिपोर्ट देगा और जिसके आधार पर आरक्षण लागू होगा। आरक्षण देने के लिए ट्रिपल टेस्ट यानी 3 स्तर पर मानक रखे जाएंगे, जिसे ट्रिपल टेस्ट फॉर्मूला कहा गया है।
इस टेस्ट में देखना होगा कि राज्य में अन्य पिछड़ा वर्ग की आर्थिक-शैक्षणिक स्थिति क्या है? उनको आरक्षण देने की जरूरत है या नहीं? उनको आरक्षण दिया जा सकता है या नहीं? साथ ही कुल आरक्षण 50 फीसदी से अधिक न हो इसका भी ध्यान रखना था। हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने एक निर्देश में सुप्रीम कोर्ट के फैसले को आधार मानते हुए हाईकोर्ट ने यूपी सरकार द्वारा जारी ओबीसी आरक्षण को रद्द कर दिया है।
दरअसल यह बीमारी नागराज के मामले में सुप्रीम कोर्ट द्वारा 2006 में दिए गए निर्णय से आई। 85वें संवैधानिक संशोधन को चुनौती कर्नाटक हाईकोर्ट में दी गई थी। मामला संवैधानिक संशोधन से जुड़ा था इसलिए इसकी सुनवाई सुप्रीम कोर्ट में हुई। इरादा था कि यह संवैधानिक संशोधन को निरस्त करने का, लेकिन हो न सका। उस समय यूपीए की सरकार थी और अनुसूचित जाति जनजाति संगठनों के अखिल भारतीय परिसंघ ने मुकदमे की पैरवी की और उस समय की सरकार से सहयोग मांगा, जो मिला भी।
निजी वकील रखने के लिए भारी कीमत सरकार ने दी थी, ताकि पैरवी ठीक से हो। भारी कीमत पर निजी वकीलों से पैरवी कराई और अंत में संशोधन बच गया, लेकिन अगर मगर के साथ। तीन शर्तें जैसे प्रतिनिधित्व की कमी हो तो पदोन्नति में आरक्षण दिया जाए, दक्षता पर असर न पड़े और पिछड़ापन की जांच हो। कुछ इस तरह की ट्रिपल टेस्ट की शर्ते हैं। हम ट्रिपल टेस्ट से समझ सकते हैं। ओबीसी को निकाय में आरक्षण देने के लिए शर्तें- पिछड़ापन की जाँच, आबादी का पता लगाना किसी भी स्थिति में 50% सीमा का उल्लंघन न हों।
यक्ष प्रश्न यह उठता है कि किस आधार पर सुप्रीम कोर्ट ने ऐसी शर्तें लगाई। क्या यह कानून बनाने वाली संस्था है? ओबीसी की जनगणना होने नहीं देते तो किस आधार पर इनकी संख्या तय की जाए। आर्थिक व सामाजिक पिछड़ेपन का अध्ययन क्या कोई आसान काम है? यहां आंकड़ा जनगणना से ही निकल सकता है। राज्य सरकार भी करा सकती है, लेकिन बड़ा साधन और ताना बाना की आवश्यकता है। एक भी उच्च न्यापालिका का फैसला अभी तक देखने को नहीं मिला, जिसमें कहा गया हो कि ओबीसी की जनगणना हो। सुप्रीम कोर्ट ईडब्ल्यूएस के मामले में 50% की सीमा हटा चुका है फिर भी ये शर्त क्यों?
जब दलित-पिछड़ों को आरक्षण देना होता है तो न्यायाधीशों का नजरिया अलग अलग होता है। मंडल आयोग की सिफारिश पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला था कि किसी स्थिति में आरक्षण 50% से अधिक नहीं हो सकता। क्या ऐसा संविधान में था या है? नहीं! यह 9 जजों के पीठ का फैसला था और इससे बड़ी पीठ ही फैसला पलट सकती थी, लेकिन जब गरीब सवर्णों को आरक्षण देने की बात आई तो लक्ष्मण रेखा टूट गई। छोटी पीठ बड़ी का फैसला नहीं पलट सकती, लेकिन जब सवर्णों को आरक्षण देना हो तो नजरिया अलग हो जाता है।
सवाल यह उठता है कि ऐसी स्थिति बीजेपी शासित राज्यों में ही क्यों आती है। इसके पहले मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र में ऐसा ही हुआ। यह बात सत्य है जो अप्रिय कार्य खुद से न कराकर न्यायपालिका से करा लिया जाता है। उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा पैरवी उचित न की गई। ऐसा बीएसपी के शासनकाल में हुआ था और उस समय की सरकार ने कोई रुचि नहीं दिखाई। लिहाजा 4 जनवरी 2011 को ऐसा ही एक फैसला आया था जिसमें पदोन्नति में अनुसूचित जाति का आरक्षण खत्म कर दिया था।
नागराज के फैसले के अनुसार एक कमेटी बनाकर शर्तों को पूरा करके पदोन्नति में आरक्षण चालू किया जा सकता था। जब अन्य राज्य सरकारें जैसे राजस्थान और बिहार समिति गठन कर नागराज में लगी शर्तों को पूरा करके आरक्षण चालू रखा तो क्या मायावती की सरकार नहीं कर सकती थी? उस समय की सरकार को कोई फिक्र न थी और पैरवी नहीं हुई, अंत में मुकदमा हारा गया। नतीजा हुआ कि लाखों कर्मचारी और अधिकारी पदावन्नत हो गए।
बीजेपी आरक्षण विरोध की वजह से आज सत्ता में है। निकाय में ओबीसी को आरक्षण देने के लिए योगी सरकार ने आयोग नहीं बनाया। मंडल लागू करने से ही कमंडल पैदा हुआ और बीजेपी का विशालकाय में इसका बड़ा योगदान है। पिछड़ा वर्ग कहीं कहीं पर जातीय चेतना और संख्या बल पर सत्ता में आ गया है, लेकिन इनमें एकता का अभाव है, सामाजिक और आरक्षण मुद्दे पर उदासीन हैं। ट्रिपल टेस्ट की शर्तें ही असंवैधानिक हैं।