Patriarchy In India : मजहब और संस्कृति की आड़ में दब जाती हैं मर्दवाद के खिलाफ उठने वाली आवाजें

Patriarchy In India : भारत में अधिकांश मिडिल क्लास मर्द ऐसे हैं जिन्होनें पूरी जिन्दगी ना तो कभी बर्तन साफ किये हैं ना कपड़े धोये हैं। बचपन में मर्दों के कपड़े धोना और पकाकर खिलाना उनकी मां के जिम्मे रहता है.....

Update: 2022-03-07 15:06 GMT

हिमांशु कुमार का विश्लेषण

Patriarchy In India : मैं एक बार एक संस्था के कार्यालय के संग बने अतिथि गृह में ठहरा था। वहाँ दिन में पुरुष कार्यकर्ता रहते थे। हरेक सुबह एक महिला (Womens) सफाई करने आती थी। वो बर्तन भी साफ करती थीं। मुझे बहुत आश्चर्य हुआ और बुरा भी लगा कि वहां काम करने वाले पुरुष दिन में वहां अपने लिए जितनी बार भी चाय बनाते थे वे हर बार एक नया धुला हुआ पतीला इस्तेमाल करते थे। हरेक बार चाय पीने के बाद बिना साफ किये अपने कप सिंक में डाल देते थे और हर बार नए धुले कप निकाल कर चाय पीते थे। सिंक में डालने के बाद वे लोग अपने इस्तेमाल किये हुए कपों में पानी भी नहीं डालते थे, ना ही पतीले में पानी डालते थे। जाहिर है इसके कारण अगले दिन बर्तन साफ करने वाली महिला को बर्तन में जमी हुई चाय साफ करने में परेशानी होती होगी।

लेकिन यह भारत (India) के ज्यादातर मर्दों की आदत है। भारत में अधिकांश मिडिल क्लास (Middle Class) मर्द ऐसे हैं जिन्होनें पूरी जिन्दगी ना तो कभी बर्तन साफ किये हैं ना कपड़े धोये हैं। बचपन में मर्दों के कपड़े धोना और पकाकर खिलाना उनकी मां के जिम्मे रहता है। जवानी में पत्नी उनके लिए यह काम करती है और बुढ़ापे में बहु या बेटी या फिर बूढ़ी हो चुकी बीबी ही घिसट-घिसटकर उनकी सेवा करती रहती है।

जयपुर में रहने वाली सामाजिक कार्यकर्ता संघमित्रा (Social Worker Sanghmitra) कहती हैं- मैं कुछ दिन पहले बीमार थी तो मेरे बड़े भाई ने कहा जयपुर में ही मेरा बेटा हास्टल में रहता है वह कुछ दिन तुम्हारे पास आ जाएगा। तो मैंने कहा वह आकर भी क्या करेगा? मुझे उठकर उसके लिए भी खाना बनाना पड़ेगा। हमने लड़कों को किसी की सेवा करना सिखाया ही कहाँ है ?

भारत में इसे मर्दानगी वाला व्यवहार माना जाता है। मर्द अगर घर का काम करता है तो उसे जनाना व्यवहार या जनखा या जोरू का गुलाम कहा जाता है। मैंने इसकी इन्तहा यहां तक देखी है कि पुरुष पेशाब करने के बाद पानी तक डालना गवारा नहीं करते और पेशाब की धार से पूरी दीवार खराब कर देते हैं जिसे महिला साफ करती हैं। यह व्यवहार कुत्तों और अन्य जानवरों वाला है जो जंगल में अपने पेशाब से अपनी टेरेटरी मार्क करते हैं। इसके अलावा घर में अंग्रेजी कमोड पर खड़े होकर इस तरह पेशाब करते हैं जिससे पेशाब की बूंदें सीट पर गिर जाती हैं जो घर की अन्य महिलाओं के अन्दरूनी हिस्सों के या बाहरी त्वचा के इन्फेक्शन का कारण बनता है।

नहाने के बाद अपने कच्छे ना धोना अपना रुमाल, मोजे, बेल्ट, टिफिन तक के लिए औरतों के ऊपर पूरा बोझ डाल देना भी भारतीय मर्दों का आम व्यवहार है। इस मामले में जयपुर में रहने वाली सामाजिक कार्यकर्ता अपर्णा देवल जो आजकल विस्थापितों के अधिकारों के लिए काम कर रही हैं और जो पहले दैनिक भास्कर की पत्रकार थीं बताती हैं कि हम महिलाएं तो यह भूल ही जाती हैं कि हमारी आंतों को क्या अच्छा लगता है। हमारा सारा जीवन तो पुरुषों के कच्छों में निकले हुए उनके मल को देखकर यह समझने और अगली बार गलती ना करने के सबक सीखने में ही गुजर जाता है कि क्या खाकर मेरे मर्द का पेट खराब हो जाता है और क्या खाकर यह ठीक रहता है।

अपर्णा पूछती हैं कि पुरुष के पास एक मांस के एक टुकड़े के अलावा ऐसी क्या खासियत है जिसके बल पर वह औरतों से खुद को बेहतर मानता है और उस पर हुकूमत चलाना अपना अधिकार समझता है।

भारत में मर्दों की यह मर्दवादी हुकूमत बहुत मजबूत है। भारत की राजनीतिक सत्ता भी इस मर्दवादी वर्चस्व को बनाकर रखने का वायदा करती है। भारत में इसे हमारी प्राचीन सभ्यता तहजीब का नाम दिया जाता है। इसमें औरतों को मर्दों के बनाये हुए नियमों नैतिकता की लकीरों के अंदर रहना सिखाया जाता है। औरतें किस से शादी कर सकती हैं, किसके साथ दोस्ती कर सकती हैं, कब घर से बाहर जा सकती हैं, कितने बजे से पहले उन्हें घर लौटना जरूरी है, क्या पहन सकती हैं, यह सब तय करने का अधिकार मर्द अपने हाथ में रखना चाहते हैं।

इस मर्दवाद के खिलाफ उठने वाली आवाज को मजहब और संस्कृतियों के खिलाफ कहकर कुचल दिया जाता है। यही वजह है कि आज भी दुनिया को चलाने वाली ज्यादातर जगहों पर मर्दों का कब्जा है, चाहे वह नौकरी हो व्यापार या राजनीति।

लेकिन महिलाएं इस मर्दवाद को ना सिर्फ पहचान रही हैं बल्कि वह इसे चुनौती भी दे रही हैं। आश्चर्य नहीं कि कुछ वर्षों बाद यह मर्दवाद भी इतिहास की चीज बन जाएगा।

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