बांग्लादेश की आजादी के लिए जेल जाने का दावा करने वाले PM मोदी म्यांमार में नरसंहार पर खामोश क्यों?
प्रधानमंत्री का बांग्लादेश से सम्बंधित दावा एक ऐसे समय आया है, जब वैसी ही स्थितियां दूसरे पड़ोसी देश में है और इस संदर्भ में कालान्तर में मोदी जी की सोच का मूल्यांकन कर सकती है।
वरिष्ठ पत्रकार महेंद्र पाण्डेय की टिप्पणी
प्रधानमंत्री द्वारा जितने दावे किये जाते हैं, उनकी पड़ताल करने पर महाभारत से भी मोटा ग्रन्थ तैयार किया जा सकता है। पड़ताल का जिक्र इसलिए जरूरी है क्योंकि जिन विषयों पर प्रधानमंत्री मोदी के दावे आधारित होते हैं, वे सभी विषय आज के परिवेश में मौजूद हैं, अब मोदी जी एक शक्तिशाली नेता भी हैं – पर उन विषयों पर उनका रवैय्या दावों से ठीक उल्टा रहता है। बांग्लादेश की आजादी के बारे में उन्होंने दुनिया को यह बताकर चौका दिया कि इस सम्बन्ध में भारत में किये गए किसी सत्याग्रह का वे हिस्सा रहे और जेल भी भेजे गए थे। यह सब उन दिनों की बात है जब वे 20-22 वर्ष के युवा थे और आरएसएस के एक साधारण कार्यकर्ता थे।
चलिए एक बार इस दावे पर विश्वास करते हैं कि मोदी जी युवावस्था में, जब एक सामान्य नागरिक थे तब पूर्वी पाकिस्तान के नागरिकों पर की जाने वाली पाकिस्तानी सेना की बर्बरता के बारे में सुनकर वे पूर्वी पाकिस्तान की आजादी के लिए सत्याग्रह में शरीक होकर जेल पहुँच गए। इसका सीधा सा मतलब है कि युवावस्था में मोदी जी को भारत के पड़ोसी देशों के नागरिकों की आजादी की फ़िक्र थी, जब सेना इन नागरिकों पर जुल्म करती थी तब वे उद्वेलित हो जाया करते थे और अपने स्तर पर विरोध करते थे।
आज मोदी जी प्रधानमंत्री हैं, दुनिया के सबसे बड़े देशों में से एक के मुखिया हैं, समय-समय पर लोकतंत्र की माला जपते हैं, दुनिया के सबसे प्रभावशाली राष्ट्राध्यक्षों में एक हैं। म्यांमार भी बांग्लादेश की तरह भारत का पड़ोसी देश है, वहां भी सेना ने चुनी सरकार का तत्ख्तापलट कर शासन अपने कब्जे में कर लिया है, राष्ट्रपति और चुनी सरकार को बंदी बना लिया है और प्रजातंत्र की बहाली के लिए चल रहे आन्दोलन का दमन कर रही है। 1 फरवरी से 26 मार्च के बीच 330 आन्दोलनकारियों को सेना ने मार डाला था, और इसके बाद अकेले 27 मार्च को 90 से अधिक आन्दोलनकारी मार डाले गए।
27 मार्च को म्यांमार में सेना दिवस मनाया जाता है, जिसे संबोधित करते हुए सैन्य अधिकारी देश में जल्दी ही लोकतंत्र बहाली का आश्वासन दे रहे थे और सडकों पर भारी हथियारों से लैस सेना आन्दोलनकारियों की हत्या कर रही थी। इसमें 5 वर्ष से कम उम्र के बच्चे भी थे। आश्चर्य यह है की पूर्वी पाकिस्तान की आजादी के लिए सत्याग्रह करने और जेल जाने का दावा करने वाले प्रधानमंत्री जी म्यांमार के मामले में पूरी तरह से खामोश ही नहीं हैं बल्कि अप्रत्यक्ष तौर पर लोकतंत्र कुचलने वाली और नरसंहार करने वाली सेना का ही साथ दे रहे हैं।
यूनाइटेड किंगडम ने संयुक्त राष्ट्र के सुरक्षा परिषद् में एक प्रस्ताव प्रस्तुत किया था, जिसमें म्यांमार की सेना द्वारा लोकतांत्रिक सरकार को हिंसक तरीके से गिराए जाने की भर्त्सना की गयी थी और सेना के खिलाफ संयुक्त राष्ट्र के चार्टर के तहत कार्यवाही की बात की गयी थी। सुरक्षा परिषद में इस प्रस्ताव का चीन, रूस, भारत और विएतनाम ने सख्त विरोध किया। ये चारों देश आसियान समूह के सदस्य हैं, जिसका एक सदस्य म्यांमार भी है।
इन दिनों पूरी दुनिया में मानवाधिकार और नरसंहार कोई मुद्दा ही नहीं है, कुछ देश ऐसे हैं जो इसके विरुद्ध आवाज उठाते हैं, पर सख्त कदम कोई नहीं उठाता। जिस तरह आसियान के सदस्य होने के कारण म्यांमार की तख्ता पलट करने वाली सेना के समर्थन में सदस्य देश खड़े हैं, उसी तरह जी-20 का सदस्य होने के कारण सऊदी अरब को मानवाधिकार हनन की खुली छूट मिली है।
प्रधानमंत्री का बांग्लादेश से सम्बंधित दावा एक ऐसे समय आया है, जब वैसी ही स्थितियां दूसरे पड़ोसी देश में है और इस संदर्भ में कालान्तर में मोदी जी की सोच का मूल्यांकन कर सकती है। यदि प्रधानमंत्री का दावा सही है तो यह तो समझा ही जा सकता है कि एक सामान्य नागरिक के तौर पर 1970 के दशक में उनकी नजर में लोकतंत्र के मायने कुछ और थे और अब 2020 के दशक में सत्ता पर काबिज मोदी जी के लोकतंत्र की परिभाषा कुछ और है।
यह एक गहरे मनोवैज्ञानिक अध्ययन का विषय हो सकता है कि किसी व्यक्ति की सोच कुछ दशकों में ही कैसे बदल सकती है। खैर, मोदी जी के बारे में सबसे सटीक आकलन बिहार विधान सभा चुनावों से पहले तेजस्वी यादव ने किया था, प्रधानमंत्री जी हैं, कुछ भी बोल सकते हैं।