एक तरफ दमन का दांव खेलती मोदी सरकार और दूसरी ओर रोती है अहिंसा का रोना

26 जनवरी को उनकी असफलता की एक बड़ी वजह यह रही कि वे शांति बनाए रखने में किसानों की व्यापक अनुशासित जत्थेबंदियों के सहयोग का फायदा नहीं उठा सके..

Update: 2021-02-04 04:20 GMT

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पूर्व आईपीएस वीएन राय का विश्लेषण

जनज्वार। 26 जनवरी पर लाल किले में घंटों चले व्यापक हिंसक उत्पात के सन्दर्भ में दिल्ली पुलिस एक खालिस पेशेवर आत्म-परीक्षण से बचती आ रही है। हर महत्वपूर्ण राष्ट्रीय स्मारक की सुरक्षा ड्रिल में संभावित आपात स्थितियों से निपटने के लिए 'अलार्म स्कीम' की व्यवस्था होती है जिसमें, अवांछित समूह के आ जाने पर, प्रवेश द्वार बंद करना निश्चित ही शुरुआती उपायों में शामिल होगा।

फिर सैकड़ों उत्पातियों के धमकने पर भी लाल किले के द्वार खुले कैसे रह गए थे? या खोल दिए गए थे? इसके बरक्स, जब 13 दिसंबर 2001 को संसद भवन पर आतंकी हमला हुआ था तो समय रहते सभी बिल्डिंग गेट बंद किये जाने से ही अंदर घिरे सांसदों और अधिकारियों-कर्मचारियों की जान बच पायी थी।

समझना मुश्किल नहीं कि अब दिल्ली पुलिस राष्ट्रीय राजधानी की सीमा पर बैठे आंदोलनरत किसानों को वहीं सीमित रखने के लिए सिंघु, टीकरी और गाजीपुर पर सड़कें खोदने, कंक्रीट की दीवार उठाने, कंटीले तारों की बाड़ लगाने और ऊंची-ऊंची कीलें बिछाने में क्यों व्यस्त है। वे किसान गणतंत्र ट्रैक्टर परेड के दौरान लाल किले और कुछ अन्य जगहों पर हुयी बेलगाम हिंसा की पुनरावृत्ति नहीं झेलना चाहते।

लेकिन इस पैमाने पर निषेधात्मक नाकेबंदी स्वतंत्र भारत के लोकतांत्रिक इतिहास में क्या, औपनिवेशिक ब्रिटिश शासन काल में भी कभी नहीं देखी गयी थी। तब भी, एक हद तक, यह भी ट्रैक्टर को ही रोक सकेगी न कि किसान को।

मोदी सरकार की राजनीति मरीज का दमन करने की अधिक नजर आती है न कि मर्ज के निदान की। ऐसे में, यदि सरकार और किसानों के बीच ठप पड़ी बातचीत जल्द शुरू नहीं हो पाती तो दिल्ली पुलिस के पास नाकेबंदी के अलावा गिरफ़्तारी के विकल्प ही रह जाते हैं।

26 जनवरी को उनकी असफलता की एक बड़ी वजह यह रही कि वे शांति बनाए रखने में किसानों की व्यापक अनुशासित जत्थेबंदियों के सहयोग का फायदा नहीं उठा सके थे जिससे उकसावे पर उतारू कुछ समूहों को खुल कर शरारत का मौका मिलता गया।

आज भी पुलिस की सड़क बंदी जैसी किसी निषेधात्मक कार्यवाही के मुकाबले किसानों का अपना अनुशासन संभावित हिंसा के विरुद्ध कई गुणा प्रभावशाली गारंटी सिद्ध होगी। लेकिन लगता नहीं कि दिल्ली पुलिस को इस विकल्प पर काम करने दिया जा रहा है, हालाँकि संयुक्त किसान मोर्चा का नेतृत्व शुरू से ही उनके बीच उकसावा करने वाले तत्वों से स्वयं को अलग रखने की मंशा जताता आ रहा है।

वर्तमान किसान आन्दोलन के दौरान हिंसा भड़कने के रंग-ढंग पर नजर डालें तो किसान-पुलिस टकराव की नौबत तभी आई है जब किसानों के किसी घोषित कार्यक्रम को बलपूर्वक रोकने का प्रयास किया गया है। हरियाणा में अंततः एक अच्छी रणनीति विकसित हुयी कि कैमला, करनाल में मुख्यमंत्री खट्टर का किसान सम्मलेन आयोजित करने में विफलता के बाद, 26 जनवरी के असर को छोड़कर, किसानों और पुलिस बल को आमने-सामने लाने से बचा गया है।

इसके विपरीत, उत्तर प्रदेश में योगी शासन की किसानों को नियंत्रित करने की जिद के चलते बार-बार टकराव की स्थिति उत्पन्न हुयी जब तक कि 28 जनवरी देर शाम राकेश टिकैत के आंसुओं से उमड़े जन-सैलाब ने इसे पूरी तरह अव्यावहारिक नहीं कर दिया।

फिलहाल दिल्ली पुलिस की अभूतपूर्व सड़क बंदी के सन्दर्भ में एक तर्क यह भी दिया जा रहा है कि उन्होंने 26 जनवरी की दिल्ली में किसान परेड की स्वीकृति स्वतः नहीं बल्कि आकाओं के राजनीतिक दखल के बाद दी थी।

हालाँकि अब कौन नहीं जानता कि तब हिंसा कहीं अधिक हुयी होती, क्योंकि स्वीकृति मिले या न मिले किसान अपनी ट्रैक्टर परेड दिल्ली में निकालने को लेकर अडिग थे। यह समीकरण आज भी बदला नहीं है| किसानों का अगला घोषित कार्यक्रम 6 फरवरी को तीन घंटे का देशव्यापी 'चक्का जाम' है। इसे यदि बलपूर्वक रोका गया तो शांति भंग की कीमत पर ही।

सड़कबंदी, किसी न किसी रूप में पुलिस की जन उभार से निपटने में निषेधात्मक रणनीति का पारंपरिक हिस्सा रही है। सर्वोच्च न्यायालय से जवाब मिलाने के बाद, किसानों की ट्रैक्टर बंदी से पार पाने में दिल्ली पुलिस आज जिन नए डरावने आयामों को इस कवायद में शामिल कर रही है वे बिना राजनीतिक एजेंडे की स्वीकृति के संभव नहीं हो सकते। डर है, कहीं यह बड़ी हिंसा को निमंत्रण न सिद्ध हो!

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