हिंदू राष्ट्र का लक्ष्य हासिल करने के लिए 1925 में की गयी थी RSS की स्थापना, संघ समेत हिंदू महासभा का नजरिया भी नहीं था मुस्लिम लीग से अलग

जहां तक राष्ट्रवाद की अवधारणा की बात है, हिन्दू महासभा (और आरएसएस) और मुस्लिम लीग का नजरिया एक सा था। सावरकर ने अपनी पुस्तक ‘हिन्दुत्व ऑर हू इज ए हिन्दू' में लिखा था कि इस देश में दो राष्ट्र हैं, एक मुस्लिम राष्ट्र और एक हिन्दू राष्ट्र...

Update: 2025-08-27 08:45 GMT

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वरिष्ठ लेखक राम पुनियानी की टिप्पणी

सीबीएसई से संबद्ध विद्यालयों के लिए पुस्तकें तैयार करने वाली संस्था एनसीईआरटी पाठ्यक्रम एवं पूरक अध्ययन सामग्री में तेजी से बदलाव कर रही है। ज्यादातर बदलाव सत्ताधारी दल के एजेंडे के अनुरूप किए जा रहे हैं। भाजपा हिंदू राष्ट्रवाद के एजेंडे को आगे बढ़ाने में जुटी हुई है। वह पुस्तकों में इतिहास का विवरण इस तरह से प्रस्तुत करवा रही है जिससे यह सुनिश्चित हो सके कि नई पीढ़ी की सोच ऐसी बन जाए जो भाजपा-आरएसएस की राजनीति के अनुकूल हो। पाठ्य पुस्तकों से मुगलों से संबंधित सामग्री पहले ही हटाई जा चुकी है और प्राचीन इतिहास का विवरण इस प्रकार प्रस्तुत किया जा रहा है, जो इस भूमि पर सबसे पहले आने वालों के रूप में आर्यों का यशोगान करता है, ताकि उनका हिन्दू राष्ट्रवाद का दावा मजबूत हो क्योंकि आर्य नस्ल हिंदू राष्ट्रवाद का एक प्रमुख स्तंभ है। इस श्रृंखला में इतिहास को तोड़ने-मरोड़ने का ताजा मामला विभाजन से संबंधित गलतबयानी का है। उन्होंने दो माडयूल प्रस्तुत किए हैं जो विभाजन के भयावह दिनों और विभाजन से संबंधित हैं। ये माडयूल प्रोजेक्ट, वाद-विवाद प्रतियोगिता आदि के लिए पूरक अध्ययन सामग्री के रूप में उपलब्ध कराए गए हैं।

माडयूल में विभाजन पर टिप्पणी करते हुए कहा गया है ‘अंततः 15 अगस्त 1947 को भारत का विभाजन हो गया, लेकिन यह किसी एक व्यक्ति का कारनामा नहीं था। भारत के विभाजन के लिए तीन कारक जिम्मेदार थेः विभाजन की मांग पेश करने वाले जिन्ना, दूसरी कांग्रेस, जिसने इसे मंजूर किया और तीसरे माउंटबेटिन जिन्होंने इसे अमली जामा पहनाया।'

माडयूल में सरदार पटेल को उद्धत करते हुए कहा गया है कि भारत में विस्फोटक हालात बन गए थे। ‘भारत एक युद्ध का मैदान बन गया था और इसलिए गृहयुद्ध छिड़ जाने से बेहतर था कि देश का विभाजन हो जाए।' जवाहरलाल नेहरू इसे ‘बुरा' किंतु ‘अपरिहार्य' बताते हैं। गांधीजी को उद्धत करते हुए कहा गया है कि वे विभाजन की प्रक्रिया में एक पक्ष नहीं बन सकते किंतु वे कांग्रेस को इसे मार-काट के साथ स्वीकार करने से नहीं रोकेंगे।'

माडयूल विभाजन की जड़ मुस्लिम नेताओं के अलग पहचान के उस नजरिए को मानता है जिसके मूल में था ‘राजनीतिक इस्लाम' जिसके बारे में उसका दावा है कि वह ‘गैर-मुस्लिमों के साथ किसी भी तरह की स्थायी समानता को खारिज करता है।' उनका कहना है कि इस विचारधारा ने ही पाकिस्तान समर्थक आंदोलन को शक्ति प्रदान की... जिन्ना जिसके ‘काबिल वकील' थे।

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एक तरह से यह अंग्रेजों की ‘फूट डालो और राज करो' की नीति और इसके समानांतर किंतु विपरीत दिशा वाली हिंदू साम्प्रदायिकता की भूमिका को पूरी तरह नजरअंदाज करते हुए पूरा ठीकरा मुस्लिम साम्प्रदायिकता पर फोड़ देता है, जिसे राजनीतिक इस्लाम की संज्ञा दी गई है।

यहां यह उल्लेख करना प्रासंगिक होगा कि उस समय राजनीतिक इस्लाम शब्द को न तो इस्तेमाल किया गया था और न ही गढ़ा गया था, और इसे मुस्लिम साम्प्रदायिकता कहा जाता था। It ersaes the role fo the social bsaes fo Hindu communalism and Mu Communalism.अंग्रेजों के आने के बाद से सामाजिक बदलाव हो रहे थे और नए वर्ग जैसे उद्योगपति, व्यापारी, कामगार और आधुनिक शिक्षा प्राप्त व्यक्ति, आदि उभरे। इन वर्गों के संगठन बने जो अंततः भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना के रूप में सामने आया। नारायण मेघाजी लोखंडे और कामरेड सिंगारवेलू द्वारा शुरू किए गए कामगारों के आंदोलन के चलते कामगारों के अधिकारों के पक्ष में आवाज उठाने वाले उनके संगठन अस्तित्व में आए। भगत सिंह और उनके साथियों ने औपनिवेशिक शासन और उत्पीड़न के खिलाफ व बराबरी के पक्ष में सबसे बुलंद आवाज उठाई।

जोतिराव फुले, सावित्रीबाई फुले, भीमराव अंबेडकर और पेरियार रामासामी नायकर आदि ने सामाजिक बराबरी के पक्ष में कार्य किए, यह आंदोलन राष्ट्रीय आंदोलन के समानांतर चला और इसे हमारे संविधान में स्थान मिला।

पुराने, अस्त होते जमींदारों, दोनों धर्मों के राजाओं को इन परिवर्तनों से चिंता हुई और उन्होंने मुस्लिम लीग और हिन्दू महासभा जैसे संगठनों की स्थापना की। मुस्लिम लीग ने मुस्लिम राष्ट्र के पक्ष में आवाज उठाई और हिंदू महासभा ने यह नारा बुलंद किया कि हम एक हिंदू राष्ट्र हैं। हिंदू राष्ट्र का लक्ष्य हासिल करने के उद्धेश्य से सन् 1925 में आरएसएस की स्थापना की गई। इन साम्प्रदायिक संगठनों ने भारतीय राष्ट्रवाद और उसके स्वतंत्रता, समानता, बंधुत्व और सामाजिक न्याय के मूल्यों का विरोध किया। अंग्रेजों ने अपने फायदे के लिए इतिहास का साम्प्रदायिक लेखन करवाया, जिससे साम्प्रदायिक घृणा के बीज पड़े और मारकाट हुई। इस मारकाट और हिंसा की वजह से ही कांग्रेस के गांधीजी और मौलाना आजाद को चुप्पी साधकर विभाजन की त्रासदी को स्वीकार करना पड़ा।

यह कहना कि कोई भी ब्रिटिश वायसराय विभाजन नहीं चाहता था, एक बहुत ही सतही वक्तव्य होगा। इसमें लार्ड वावेल की भूमिका राजिन्दर पुरी के लेख से स्पष्ट होती है ‘विंस्टन चर्चिल के ब्रिटिश जीवनीकार सर मार्टिन गिल्बर्ट ने यह खुलासा किया था कि चर्चिल ने जिन्ना से कहा था कि वे उन्हें गोपनीय पत्र लिखें जो चर्चिल की सचिव रह चुकी महिला एलिजाबेथ गेलिएट को संबोधित हों। यह गोपनीय पत्र व्यवहार कई सालों तक जारी रहा। जिन्ना द्वारा सन् 1940 और 1946 के बीच लिए गए कई महत्वपूर्ण फैसले, जिनमें 1940 में उठाई गई पाकिस्तान की मांग भी शामिल थी, चर्चिल या लार्ड लिलनीगो और वावेल की सहमति के बाद ही लिए गए थे।'

पाकिस्तान का निर्माण मुख्यतः अंग्रेज चाहते थे, क्योंकि उनका ध्यान अपने भविष्य के लक्ष्यों की ओर था। उस समय दुनिया में दो महाशक्तियां- अमेरिका और सोवियत संघ- थीं और अंग्रेजों को यह भय था कि यदि भारत अविभाजित रहा तो वह सोवियत संघ का पक्षधर बन सकता है, क्योंकि भारत के स्वतंत्रता संघर्ष के प्रमुख नेता वामपंथी झुकाव वाले थे। अंग्रेजों को डर था कि भारत सोवियत संघ का मित्र बन सकता है इसलिए वे उसका प्रभाव सीमित करने के लिए उसका विभाजन चाहते थे।

लार्ड माउंटबेटन को भारत का विभाजन करवाने का निर्देश देकर ही भेजा गया था जिसमें वे सफल रहे। अंतरिम सरकार में शामिल नेहरू और पटेल को यह अहसास हो गया था कि देश को एक रखना बहुत मुश्किल होगा। जिन्ना के ‘डायरेक्ट एक्शन' के आव्हान के नतीजे में हिंसा का ऐसा सिलसिला शुरू हुआ जो कांग्रेस नेतृत्व के मुस्लिम लीग की मांग के आगे झुकने की मुख्य वजह बना। इस मांग को अंग्रेजों का पूरा समर्थन प्राप्त था।

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जहां तक राष्ट्रवाद की अवधारणा की बात है, हिन्दू महासभा (और आरएसएस) और मुस्लिम लीग का नजरिया एक सा था। सावरकर ने अपनी पुस्तक ‘हिन्दुत्व ऑर हू इज ए हिन्दू' में लिखा था कि इस देश में दो राष्ट्र हैं, एक मुस्लिम राष्ट्र और एक हिन्दू राष्ट्र।

यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि ‘वास्तविकता यह है कि डॉ. बी.आर. अम्बेडकर इस नतीजे पर पहुंचे थे कि विनायक दामोदर सावरकर और मोहम्मद अली जिन्ना की इस संबंध में पूर्ण सहमति थी कि भारत में दो अलग-अलग राष्ट्र हैं - एक मुस्लिम राष्ट्र और एक हिन्दू राष्ट्र।' सावरकर ने 1938 में महासभा के सम्मेलन में घोषणा की थी कि हिंदुओं और मुस्लिमों का सहअस्तित्व संभव नहीं है। जिन्ना का 1940 का लाहौर प्रस्ताव इससे मिलता-जुलता था। उनकी यह समानता उनकी विचारधारा में और सन् 1942 के बाद बंगाल, सिंध और उत्तर-पश्चिमी सीमांत प्रांत (एनडब्लूएफपी) हिंदू महासभा-मुस्लिम लीग की गठबंधन सरकार में भी प्रतिबिंबित होती है।

अब कुटिलतापूर्वक हिंदू राष्ट्रवादी विचारक इतिहास को तोड़-मरोड़कर विभाजन के लिए मुस्लिम लीग और कांग्रेस को दोषी ठहराने का प्रयास कर रहे हैं, जबकि सच्चाई इससे बहुत अलग है। जहां इन माडयूलों में अंग्रेजों को लगभग निर्दोष बताया गया है, जबकि हकीकत यह है कि उनकी चालाकी भरी चालबाजियों से मुस्लिम लीग और हिंदू राष्ट्रवादियों को वह सब करने का प्रोत्साहन मिला, जिसका नतीजा इस भयावह त्रासदी के रूप में सामने आया। विभाजन के समय हुई डरावनी घटनाएं साम्प्रदायिकता की इस होड़ और अंग्रेजों द्वारा पर्याप्त एहतियाती कदम उठाए बिना जल्दबाजी में विभाजन करने के कारण हुईं।

बेशक इसका गहन कारण वह साम्प्रदायिकता थी, जिसे विचारधारात्मक जामा पहनाने वाले पहले व्यक्ति सावरकर थे। जहां दोनों साम्प्रदायिकताएं एक दूसरे के समानांतर और विपरीत चल रही थीं, जिससे नफरत का माहौल बना और हिंदुओं और मुसलमानों दोनों का कठिनाईयों और बहुत बड़े पैमाने पर पलायन और विस्थापन और उससे जुड़े कष्टों का सामना करना पड़ा।

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