भाजपा की जड़ें सेक्युलर और भद्र लोग वहां नहीं देख पाते जहां से होती है वह लोकप्रिय
घोर हिंदुत्ववादी-वर्णवादी राजनीतिक-संरचना के होने के बावजूद हाल के वर्षो में भाजपा ने कांग्रेस या किसी भी अन्य दल के मुकाबले हाशिये के समूहों(सबाल्टर्न) से अपनी नजदीकियों का दायरा बहुत तेजी से बढ़ाया है।
वरिष्ठ पत्रकार उर्मिलेश की टिप्पणी
हमारे देश के सेक्युलर डेमोक्रेट और भद्र लोग भारतीय जनता पार्टी के अभूतपूर्व उत्थान के कारणों में उसके 'सांप्रदायिक-अभियानों', 'भारी कारपोरेट-समर्थन' और जबरदस्त 'मीडिया-प्रबंधन' आदि को गिनाते हैं। निश्चय ही ये महत्वपूर्ण कारण हैं। पर वे एक महत्वपूर्ण पहलू को अक्सर नज़रंदाज़ कर देते हैं। वह है: भाजपा की कारगर सोशल इंजीनियरिंग!
घोर हिंदुत्ववादी-वर्णवादी राजनीतिक-संरचना के होने के बावजूद हाल के वर्षो में भाजपा ने कांग्रेस या किसी भी अन्य दल के मुकाबले हाशिये के समूहों(सबाल्टर्न) से अपनी नजदीकियों का दायरा बहुत तेजी से बढ़ाया है। कई बड़े प्रदेशों में तो उसने 'सबाल्टर्न लीडरशिप' को सुसुप्तावस्था में रहने की 'सुंघनी' सूंघा दी है। जरूरत के हिसाब से 'मनुवाद' को चतुराई से छुपाने की भी कोशिश की है।
बंगाल के चुनाव में वह इसी रणनीति पर काम करती नजर आ रही है, जबकि ममता बनर्जी के शीर्ष चुनाव-सलाहकार उन्हें पारंपरिक चुनावी-रणनीति के घेरे से बाहर ही नहीं जाने देते। मार्क्सवादी इस बार थोड़े सुधरे दिख रहे हैं पर निश्चय ही उनके लिए अभी लंबी दूरी तय करनी है।
सबसे बुरा हाल कांग्रेस का है। बंगाल में वह और पिचकने के लिए अभिशप्त है। अपवाद सिर्फ असम नजर आ रहा है, जहां उसने अटकलों के विपरीत बेहतर 'सोशल इंजीनियरिंग' की है। बोडो समुदाय के बड़े संगठन को साथ लाना बड़ी घटना है। यह भी अच्छी बात है कि तमिलनाडु में उसने द्रमुक को इस बार ज्यादा परेशान(पिछले चुनाव की तरह) नहीं किया।
मुझे लगता है, कांग्रेस का असल संकट उसके राष्ट्रीय नेतृत्व के स्तर से है और वह बुनियाद तौर पर दृष्टि और दिशा का है। उसके कामकाज की शैली में भयानक तदर्थवाद है। इसके अलावा बड़ी समस्या है कि उसका नेतृत्व एक ही तरह के लोगों से घिरा रहना पसंद करता है। भाषण में वह 'विविधता' की बात करता है पर व्यावहारिक स्तर पर वह विविधता से परहेज़ करता है। उसे चाटुकारिता मस्त कर देती है। नेतृत्व और उसकी शीर्ष सलाहकार-मंडली की सामाजिक-पृष्ठभूमि की जटिलताएं उसे वर्ग-वर्ण की सीमाओं से आमतौर पर बाहर नहीं होने देतीं!
बीते तीन दशकों से कांग्रेस कभी साफ नहीं कर पाती कि वह किन लोगों की पार्टी है! कहती है कि वह सबकी पार्टी है! अच्छी बात है, पर उसके वास्तविक कार्यकारी और निर्णयकारी लोग कौन हैं? कांग्रेस ने हाल के बीसेक सालों में अपने ही अंदर के जितने लोगों को निराश किया है, उनकी संख्या पार्टी के नये समर्थकों से दस गुना ज्यादा होगी। आंध्र, तेलंगाना, ओडिशा, बंगाल, यूपी और बिहार सहित दर्जन भर राज्य इसके गवाह हैं।
अच्छी बात है, वह इन दिनों कारपोरेट-इजारेदारी से दूरी बना रही है। लेकिन दलित, पसमांदा ग्रुप्स और शूद्र समूहों यानी संपूर्ण सबाल्टर्न मामले में उसकी नीति और नीयत क्या है? अगर वह एक 'मास-पार्टी' है तो पार्टी के शीर्ष निर्णयकारी ग्रुप और 'पर्दे के पीछे के पांडित्य-भरे' असल सलाहकारों के कुलीन-घेरे में ही क्यों कैद रहती है? इस अतिशय कुलीनता और जमीनी अनुभव की घोर कमी के चलते नाजुक क्षणों और जटिल मुद्दों पर कांग्रेस की 'सेक्युलर-लोकतांत्रिक वैचारिकी' की चादर बार-बार उसके शरीर से हट जाती है। दलित, शूद्र और पसमांदा मामलों में वह अक्सर नंगी हो जाती है! भाजपा को इससे खूब फायदा होता है। ।
कांग्रेस को यह समझने में बहुत देर हो चुकी है कि आज के दौर में सिर्फ कुछ प्रतीकात्मक कदमों से कुछ नहीं होने वाला है। ग्रासरूट स्तर पर करके दिखाना होगा। कांग्रेस क्या, यह बात सभी कथित या अकथित विपक्षियों पर लागू होती है।