'आत्मनिर्भर भारत' के नाम पर पर्यावरण का चीरहरण कर रहे पीएम मोदी
हाल में ही पीएम मोदी ने 40 नए कोयला खदानों की नीलामी की, अबतक कोयला खदान पर सरकारी कंपनी कोल इंडिया लिमिटेड का एकाधिकार था, पर अब इसे निजी क्षेत्रों के लिए पूरी तरह से खोल दिया गया है......
वरिष्ठ पत्रकार महेंद्र पाण्डेय का विश्लेषण
आज के दौर में विश्व मंच पर आप जितने झूठ बोल सकते हैं, आप अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उतने ही महान नेता बन जाते हैं। हमारे प्रधानमंत्री विश्वमंच से पर्यावरण रक्षा की बहुत सारी बातें करते हैं, जलवायु परिवर्तन पर दुनिया को उपदेश देते हैं, पर वास्तविकता यह है कि हमारे देश में पर्यावरण संरक्षण एक मरीचिका है और हवा, पानी, भूमि और जंगलों पर अभूतपूर्व संकट है क्योंकि अब पर्यावरण को महज ऐसे संसाधन के तौर पर देखा जा रहा है, जिससे केवल कमाई की जा सकती है।
पिछले कुछ वर्षों से हमारा देश जलवायु परिवर्तन रोकने के क्षेत्र में विश्वगुरु बनाने का प्रयास कर रहा है, जंगलों के क्षेत्र बढ़ने का दावा करता है, नवीनीकृत ऊर्जा के क्षेत्र में दुनिया के अग्रणी देशों में शुमार है। लेकिन बड़े देशों में भारत अकेला ऐसा देश है, जहां कोयले की खपत साल-दर-साल बढ़ती जा रही है, कोयले पर आधारित नए ताप बिजली घर स्थापित किये जा रहे हैं और कोयले के खनन का क्षेत्र बढ़ रहा है। कोयले के खनन के लिए बड़े पैमाने पर घने जंगलों को काटा जा रहा है और स्थानीय वनवासियों और जनजातियों को अपना क्षेत्र छोड़ने पर विवश किया जा रहा है।
प्रधानमंत्री अब आत्मनिर्भर भारत के नाम पर पर्यावरण का चीर-हरण कर रहे हैं। हाल में ही उन्होंने 40 नए कोयला खदानों की नीलामी की है। अब तक कोयला खदान पर सरकारी कंपनी कोल इंडिया लिमिटेड का एकाधिकार था, पर अब इसे निजी क्षेत्रों के लिए पूरी तरह से खोल दिया गया है। प्रधानमंत्री जी कहते हैं कि नई खदानों के बाद भारत कोयले के मामले में पूरी तरह आत्मनिर्भर बन जाएगा। इसमें से 4 काल-ब्लॉक्स हसदेव अरंड वन क्षेत्र में हैं और 80 प्रतिशत कोयला उन क्षेत्रों से निकाला जाना है जहां वनवासी बसते है और बेहद घने जंगल का क्षेत्र है। कुल 7 कोल-ब्लॉक्स ऐसे हैं जहां पहले पर्यावरण संरक्षण के कारण कोई भी परियोजना निषिद्ध थी। इन कोल-ब्लॉक्स की नीलामी में संबंधिक राज्यों को शामिल भी नहीं किया गया था और अब पश्चिम बंगाल, महाराष्ट्र, झारखण्ड और छत्तीसगढ़ की सरकारों ने इसपर विरोध दर्ज कराया है और अगर जरूरत पडी तो कानूनी कार्यवाही की धमकी दी है।
कांग्रेस सरकार में जब जयराम रमेश पर्यावरण मंत्री थे, तब उन्होंने देश में कोयला के भंडारों का विस्तृत अध्ययन कराया था और बाद में पर्यावरण की दृष्टि से लगभग 30 प्रतिशत कोयला भंडारों को ऐसे क्षेत्र में शामिल किया था, जहां खनन के काम नहीं किया जा सकता था। इसका कारण पर्यावरण संरक्षण, घने जंगलों को बचाना, वन्यजीव अभयारण्य का क्षेत्र और वनवासियों का निवास था। लेकिन वर्ष 2014 के बाद से मोदी सरकार ने इस निषिद्ध क्षेत्र को महज 5 प्रतिशत कोयला भण्डार तक सीमित कर दिया। इसका सीधा सा मतलब है कि अब निजी क्षेत्र को घने जंगल काटने, अभयारण्य के क्षेत्र में खनन करने और वनवासियों को परम्परागत क्षेत्र से विस्थापित करने की पूरी आजादी है।
वर्तमान केंद्र सरकार जनता से जुड़े सभी मसलों पर इसी तरह के दुहरे मानदंड अपनाती है। विश्वमंच पर पहुंचाते ही प्रधानमंत्री नवीनीकृत ऊर्जा और जलवायु परिवर्तन रोकने पर चर्चा करने लगते हैं, जब कि देश में कोयले को बढ़ावा देकर आत्मनिर्भर भारत का नाम देकर पर्यावरण के विनाश का रास्ता खोल देते हैं। सेंटर फॉर रिसर्च ऑन एनर्जी एंड क्लीन एयर नामक संथा की एक रिपोर्ट के अनुसार देश में धीरे-धीरे कोयले की मांग कम होती जायेगी, ऐसे में नए कोयला-ब्लॉक्स में खनन आरम्भ करना व्यर्थ होगा।
रिपोर्ट के अनुसार अभी जितना भी कोयले का उत्पादन देश में किया जा रहा है, वह वर्ष 2030 की अनुमानित मांग से 20 प्रतिशत अधिक है। प्रधानमंत्री ने हाल में ही मध्य प्रदेश में देश के सबसे बड़े सौर-उर्जा केंद्र का शुभारम्भ किया था और सौर उर्जा के भविष्य पर चर्चा की थी। आंकड़े बताते हैं कि सौर-उर्जा पर आधारित बिजली उत्पादन संयंत्र की लागत कोयले की तुलना में 14 प्रतिशत कमी आती है और इससे अगले दो वर्षों के भीतर लगभग 16 लाख लोगों को रोजगार मिलेगा, जो कोयले के खनन और बिजली उत्पादन क्षेत्र के रोजगार की संख्या से बहुत अधिक है।
इस समय देश 27.4 करोड़ टन कोयले का आयात करता है और सरकार का दावा है कि नई कोयला खदानों के बाद यह आयात रुक जाएगा। लेकिन, यह संभव नहीं है क्योंकि देश में कोयले का आयात इसलिए नहीं होता कि देश में कोयला उपलब्ध नहीं है बल्कि इसलिए किया जाता है क्योंकि देश के कोयले की गुणवत्ता अच्छी नहीं है, यहाँ के कोयले का राख प्रतिशत 45 प्रतिशत है, इसलिए अपेक्षाकृत अधिक कोयले की जरूरत पड़ती है, राख अधिक उत्पन्न होती है और वायु प्रदूषण अधिक फैलता है। अदानी ग्रुप भी निश्चित तौर पर देश में कोयला खनन केवल बाजार के लिए करता होगा। यदि, ऐसा नहीं होता तो तमाम विरोधों और तिकड़मों के सहारे ऑस्ट्रेलिया में कोयला खनन की जरूरत क्यों होती। ऑस्ट्रेलिया के कोयले से उनके ताप-बिजली घर चलेंगे।
पूरी दुनिया में इस समय ताप-बिजली घरों को बंद करने की मुहीम चल रही है और नए ताप-बिजली घर नहीं लगाए जा रहे हैं, पर भारत इस परंपरा के विरुद्ध खड़ा है। कोयले को बिजली घरों में झोंक कर दुनिया के सामने जलवायु परिवर्तन और तापमान बृद्धि को रोकने का दिखावा कर रहा है। कोविड 19 के दौर में जब दुनिया के सभी देशों की अर्थव्यवस्था ध्वस्त हो चुकी है तब जाहिर है इसे नए सिरे से पुनः स्थापित करना कई। ऐसे में संयुक्त राष्ट्र के साथ ही दुनिया के सभी पर्यावरणविद दुनिया से ऐसी अर्थव्यवस्था की गुहार लगा रहे हैं जो पर्यावरण अनुकूल हो, पर आत्मंनिर्भरता का लबादा दाल कर भारत वही कर रहा है जिससे केवल पूंजीपतियों का फायदा हो।
छत्तीसगढ़ में स्थित हसदेव अरंड वन क्षेत्र देश का सबसे बड़ा और सबसे घना वन क्षेत्र है। इसका पूरा विस्तार 170000 हेक्टेयर है और जैविक विविधता के सन्दर्भ में बहुत समृद्ध है। इस पूरे वन क्षेत्र में बृक्षों की 86 प्रजातियाँ, औषधीय पौधों की 51 प्रजातियाँ, घास की 12 प्रजातियाँ, झाड़ियों की 19 प्रजातियाँ, हाथी, तेंदुवा और भालू जैसे स्तनधारियों की 34 प्रजातियाँ, सरिसृप की 14 प्रजातियाँ, पक्षियों की 111 प्रजातियाँ और मछलियों की 29 प्रजातियाँ ज्ञात है। इस जैव-विविधता के अतिरिक्त यह अति प्राचीन गोंड जनजाति के वनवासियों का सबसे महत्वपूर्ण आश्रय है। आधुनिक विकास से दूर ये वनवासी अपने सभी आवश्यकताओं की पूर्ती इन्हें जंगलों से करते हैं। पर, इस क्षेत्र की समस्या यह है की इन्ही जंगलों के नीचे उत्कृष्ट स्तर के कोयले का बड़ा भण्डार है, और सरकार पूरे जंगल को नष्ट कर कोयला निकालने पर आमदा है।
मार्च 2019 में भारत सरकार के पर्यावरण मंत्रालय ने लगभग पूरे हसदेव अरंड क्षेत्र में कोयला के खनन के लिए मंजूरी दे दी और कोविड 19 के दौर में इन की नीलामी भी कर डाली, अब वनवासी इसके विरोध में संघर्ष कर रहे हैं। वर्ष 2010 में तत्कालीन पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने पूरे क्षेत्र में खनन प्रतिबंधित कर दिया था, पर तत्कालीन वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी के हस्तक्षेप के कारण 2011 में पर्यावरण मंत्रालय ने इसके बाहरी इलाके में कुछ क्षेत्रों को कोयला खनन के लिए खोल दिया। उस समय भी मत्रालय की फारेस्ट एडवाइजरी कमेटी ने स्वीकृति नहीं दी थी, पर केन्द्रीय पर्यावरण मंत्री ने स्वीकृति की मुहर लगा दी थी। इस क्षेत्र में अधिकतर स्वीकृत खनन क्षेत्र अडानी इंटरप्राइजेज की सहयोगी कंपनी राजस्थान कोलिअरीज लिमिटेड के अधिकार क्षेत्र में हैं।
वर्ष 2013 से पर्सा ईस्ट और कांटे बसन ओपन कास्ट माइंस में उत्पादन भी शुरू कर दिया गया और इससे 1।5 करोड़ टन प्रतिवर्ष कोयले का खनन किया जा रहा है। अब जो नए खनन क्षेत्रो को स्वीकृति दी गयी है उसका विस्तार हसदेव अरंड वन के 80 प्रतिशत इलाके में है और इसके दायरे में गोंड जनजाति के 30 गाँव भी हैं। पर्सा ओपन कास्ट माइंस अदानी इंटरप्राइजेज के अधिकार में है, जिसका विस्तार 841 हेक्टेयर है और इससे अगले 42 वर्षों तक प्रतिवर्ष 20 करोड़ टन कोयले को निकाला जाएगा।
लगभग 20 गावों के निवासी इन सारी परियोजनाओं का लम्बे समय से विरोध कर रहे है और उनका आरोप है की नियम और क़ानून के हिसाब से गाँव की कौंसिल से कोई स्वीकृति नहीं ली गयी है, इसलिए ये सभी खनन क्षेत्र पर्यावरण कानूनों की अवहेलना कर रहे हैं, पर उनकी बातें कोई नहीं सुन रहा है। गोंड जनजाति की समस्या केवल कोयला खदान ही नहीं हैं, बल्कि कोयले खदान तक पहुँचने के लिए सडकों और रेल लाइनों के निर्माण के लिए अलग से जंगल काटे जा रहे हैं। इस पूरे क्षेत्र में 75 किलोमीटर लम्बी रेल लाइन बिछाने का काम किया जा रहा है। जो कुछ भी वन बचे हैं उसमें राज्य सरकार हाथियों के लिए अभयारण्य बनाने जा रही है, यानि गोंड निवासी उस क्षेत्र से भी बेदखल कर दिए जायेंगे।
इस पूरे क्षेत्र को कोयला खनन के लिए खोल देने पर केवल गोंड जनजाति ही प्रभावित नहीं हुई है, बल्कि जंगली जानवरों पर प्रभाव पड़ा है। हाथी और तेंदुए के भ्रमण के रास्ते बंद हो गए है, जिससे ये जानवर अब गाँव में पहुँच जाते है और इससे मानव और हाथियों के बीच संघर्ष बढ़ता जा रहा है। तेंदुवे भी अब गाँव में पहुँच जाते हैं।
ऐसे समय जब जलवायु परिवर्तन रोकने में भारत अग्रणी भूमिका निभा रहा है, तब सबसे घने वनों को तहस-नहस कर उसके नीचे से कोयला निकालना आश्चर्यजनक है। जलवायु परिवर्तन का सबसे बड़ा कारण कोयले को जलाना है, जबकि इसे रोकने में सबसे कारगर जंगल ही हैं। भारत में तो नहीं पर दुनियाभर में सरकारों के जलवायु परिवर्तन रोकने के लिए कारगर कदम नहीं उठाने के विरुद्ध आन्दोलन किये जा रहे हैं। हमारे देश में भी परियोजनाओं के विरुद्ध लम्बे समय से आन्दोलन किये जा रहे हैं, पर ये मीडिया की नज़रों से दूर है।
अडानी की ऑस्ट्रेलिया में कोयला खदानों के विरुद्ध लम्बे समय से आन्दोलन चल रहे हैं, और आन्दोलनकारियों के दबाव के कारण उस परियोजना को छोटा करना पड़ा और अनेक सहयोगी कंपनी अब इस परियोजना से अलग हो चुकीं हैं। सम्भवतः ऑस्ट्रेलिया की परियोजना से हो रहे नुकसान की भरपाई अडानी की कंपनी हसदेव अरंड के कोयला खदानों से करना चाहती है, पर इससे गोंड जनजाति का भविष्य निश्चित तौर पर खतरे में है। सरकार की प्राथमिकता पूंजीपतियों की जेबें भरना है, भले ही इसके लिए जंगल काट दिए जाएँ और वनवासियों को बेदखल कर दिया जाए।
सरकार और पूंजीपतियों की इन परियोजनाओं के समर्थन में वही घिसीपिटी सी दलील रहती है – क्षेत्र का विकास होगा, लोगों को रोजगार मिलेगा और पर्यावरण को कोई नुक्सान नहीं होगा। सरकार और पूंजीपति एक भी ऐसा उदाहरण दिखाकर अपनी बातों को साबित करने में नाकामयाब रहते हैं। पूरी दुनिया जानती है कि कम से कम भारत में किसी कोयला खनन क्षेत्र का कभी विकास नहीं हुआ है और पूरी आबादी हमेशा वायु प्रदूषण की चपेट और पानी की किल्लत का सामना करती है। जंगली जानवरों और निवासियों में द्वंद्व बढ़ जाते है, जिससे जंगली जानवर और मनुष्य दोनों ही मारे जाते हैं। इन क्षेत्रों में विकास के नाम पर बाहर से आकर बसने वाले माफिया गिरोह पसर जाते हैं और स्थानीय वनवासी माओवादी और नक्सलवादी करार दिए जाते हैं।