अंधेरे में गीत गाने से परहेज़ नहीं, लेकिन सुर सही लगना चाहिए!

अंधेरे के बारे में गीत गाने के आग्रह से हम इतना ज़्यादा ऑब्सेस्ड हो चुके हैं कि क्या गा रहे हैं उसे खुद ही सुन नहीं पा रहे। जिन्हें इस देश को चौपट करने का पांचसाला लाइसेंस मिला हुआ है, उनसे क्या ही शिकायत....

Update: 2020-06-20 09:00 GMT

वरिष्ठ पत्रकार अभिषेक श्रीवास्तव का साप्ताहिक कॉलम 'कातते-बीनते'

फिल्म अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत की मौत ने सबको हिला दिया। सबने अपने-अपने तरीके से प्रतिक्रिया दी। इन प्रतिक्रियाओं में सबसे आम बात यह रही कि लोगों ने अवसाद और आत्मघात से बचने के अपने-अपने संस्मरण सार्वजनिक (और सामान्यीकृत) किए। कुछ ऐसे भी लोग रहे जिन्होंने आत्महत्या की अपनी तैयारियों को क्षणिक आवेग में सार्वजनिक कर दिया, लेकिन हेठी के मारे बाद में अपना लिखा मिटा दिया। सबसे बड़ी संख्या ऐसे लोगों की रही जो अपने सफल तजुर्बे के आधार पर अवसाद और निराशा से बचने के नुस्खे बताते नज़र आए। कुल मिलाकर मोटे तौर पर सुशांत की घटना से प्रभावित और चिंतित हर एक व्यक्ति ने जीवन के विषय में अपने-अपने हिस्से का ज्ञान बांटा। ऑनलाइन और ऑफलाइन।

किसी के ज्ञान बांटने से किसी दूसरे को भला क्यों दिक्कत होगी? बेहतर ही है कि समाज में ज्ञान का इतना प्रकाश फैले जिससे ज्यादा से ज्यादा लोगों को रोशनी मिल सके। अंधेरा वाकई घना है। जिंदगी पर मौत की परछाइयां लहरा रही हैं। हम सब वाकिफ़ हैं। कोई छुपी हुई बात नहीं है ये। बिलकुल सतह पर जीने वाले सबसे छिछले प्राणी भी आज गोताखोर बने तल्ली में पैठे हैं। कुछ तो अंधेरे में डूब उतरा रहे हैं।

शायद ऐसे ही किसी वक़्त ने लिए बेर्टोल्ट ब्रेष्ट ने पूछा था: 'क्या अंधेरे में भी गीत गाए जाएंगे?' फिर खुद ही उसका जवाब भी दिया था, 'हां, अंधेरे के बारे में भी गीत गाए जाएंगे।' कुछ सभ्य, पढ़े-लिखे लोगों ने इस पंक्ति को तुलसीदास की चौपाई की तरह रट लिया है। हर बार जब अंधेरा सघन होता है, वे रेंकने लग जाते हैं। अपने रेंकने को वे गीत का नाम देते हैं, भले ही उससे किसी की नींद हराम हो रही हो या खराब सुर से माथा पीट कर कोई मर ही क्यों न जाए।

गलती ब्रेष्ट की थी कि उन्होंने गीत गाने का शऊर बताने की ज़रूरत नहीं समझी गोकि हर इंसान पैदाइशी सही सुर लगाना जानता हो। ब्रेष्ट कवि थे, सुरसाधक तो थे नहीं। एक बार की बात है, मेहदी हसन लाइव गा रहे थे। ख़ूबसूरत नज़्म थी क़तील शिफ़ाई की- 'तूने ये फूल जो ज़ुल्फ़ों में सजा रखा है / इक दिया है जो अंधेरों में जला रखा है...।' शुरुआती सरगम में ही अचानक मेहदी हसन साहब एक जगह अटक गए। हारमोनियम चों से कर के रुका और वे बोले, 'हज़रात, सुर गलत लग गया था।' पूरा सभागार ठहाकों से गूंज उठा। दरअसल, 'म' कठोर लग गया था। अपनी ग़लती पर मेहदी साहब भी हंस कर दिए। फिर जो उठान उन्होंने ली, जो कोमल 'म' लगाया, कि नायिका के बालों में लगे महज एक फूल ने ज़माने भर का अंधेरा एक झटके में छांट दिया।

जो बात ब्रेष्ट ने कही, क़तील शिफाई भी अपने ढंग से वही कह रहे थे लेकिन उसे मुकम्मल कर के दिखाया मेहदी हसन ने क्योंकि उन्हें अंधेरे में गाने का शऊर था। तानसेन के गाये से दीपक यूं ही नहीं जलता था। आज के तरक्कीपसंदों की तरह नकलची नहीं थे ये लोग कि अंधेरे में गा-गा कर गला फाड़ लें लेकिन अपने घर का बच्चा ही उन्हें अनसुना कर के हरामी निकल जाए। ये तो आज तक यही नहीं तय कर सके कि ब्रेष्ट को ब्रेख्त कहें या ब्रेष्ट। फूल को फ़ूल तो ये ज़माने से कहते आए हैं। ख़ैर… लब्बोलुआब ये कि अंधेरे में गीत गाने से परहेज़ नहीं, लेकिन सुर सही लगना चाहिए।

अपने एक मित्र हैं पुराने, वे इस बात को बड़े अच्छे से समझते हैं। कल उनसे फोन पर बात हो रही थी। कह रहे थे कि मैं भी चाहता तो अवसाद और आत्मघात से निकलने के अपने तरीके, अपने जीवन अनुभव को लिख देता, लेकिन यह करुणा में वीरगाथा जैसा मामला हो जाएगा। अहंमन्यता हो जाएगी। 'करुणा में वीरगाथा'- सुशांत सिंह की मौत के बाद अवसाद और मानसिक स्वास्थ्य पर लिखे गए लाखों शब्दों को इस एक पद में बटोरा जा सकता है। मुझे उनकी यह बात जंच गयी है। पिछले एक हफ्ते में चीन और नेपाल के मोर्चे पर जो कुछ घटा है, वो इसी तर्ज पर करुणा में विद्रूप कहा जा सकता है।

अपने बीस फौजी सरहद पर खेत रहे। यह कारुणिक दृश्य था। हमारे तरक्कीपसंदों ने इसे विद्रूप में बदल दिया। उनके भीतर का वीरबालक अपनी समूची नफ़रत के साथ बाहर निकल आया। बाकायदे ललकारा गया प्रधान को। छप्पन इंच का हवाला दिया गया। सबने ये काम किया। कांग्रेस तक ने, जिसे इस वक़्त शांत होना था। ठीकठाक वाम बौद्धिक भी ललकारते हुए स्वर में नज़र आए। मान लीजिए प्रधान ने जंग छेड़ ही दी, तो क्या आप उन्हें गुलदस्ता भेंट करेंगे? चीन को छोड़िए, नेपाल के मामले में आप कैसे ऐसा गैर-ज़िम्मेदाराना बरताव कर सकते हैं? हमारे दोस्त विष्णु शर्मा ने बहुत सही सवाल उठाया था लेकिन उन्हें कोई क्यों सुनता? उन्होंने क्या लिखा था, ज़रा पढ़िए:

'जो सेक्युलर-लिबरल लोग मोदी को चिढ़ा रहे हैं कि 'नेपाल को 56 इंच का सीना दिखाओ' उन्हें समझना चाहिए कि अपनी तमाम 'भलमनसाहत' के बावजूद वे मोदी पर एक देश की संप्रभुता के खिलाफ जाने का दबाव डाल रहे हैं। ये लोग मोदी को घेरने के चक्कर में अपने भीतर दबे बैठे मर्दवादी राष्ट्रवादी अहंकार को ही एक्सपोज़ कर रहे हैं। केवल अक्ल के अंधे के लिए सेक्युलर उपनिवेशवाद मोदी के हिन्दू उपनिवेशवाद से बेहतर होगा।'

अपने यहां की बारातों में एक शब्द चलता है- 'शामिलबाजा'। धुन कोई भी हो, शामिलबाजा को बस झांझ हिलानी होती है। विष्णु जिस सेक्युलर-लिबरल जमात को संबोधित कर रहे हैं, वो मोदी-विरोध की बारात में शामिलबाजा बन चुका है। मुद्दा कोई भी हो, नेपाल से लेकर चीन से लेकर करोना तक का, ये समूह बस झांझ हिला रहा है। पूरे वृंद का ही सुर यहां गलत लगा पड़ा है। गलत सुर गलत प्रभाव पैदा करता है। जैसे जुमांजी का खेल। एक पासा गलत पड़ा और सारे आदिम जीव बाहर! अलग-अलग मंचों पर बीते हफ्ते आये लेखन को देखें तो समझ आ जाएगा कि कैसे बिना किसी कोशिश के, केवल प्रधान की चुनी हुई चुप्पी ने, एक तरक्कीपसंद जमात के अधिकांश हिस्से को सैन्य-राष्ट्रवाद का हरकारा बना डाला है। विष्णु शामिलबाजा नहीं हैं, इसलिए उनकी आवाज़ नक्कारखाने की तूती बन कर रह गई है।

अंधेरे के बारे में गीत गाने के आग्रह से हम इतना ज़्यादा ऑब्सेस्ड हो चुके हैं कि क्या गा रहे हैं उसे खुद ही सुन नहीं पा रहे। जिन्हें इस देश को चौपट करने का पांचसाला लाइसेंस मिला हुआ है, उनसे क्या ही शिकायत। वे तो अपने एजेंडे पर लगे ही हुए हैं। जिन्हें अंधेरे के बारे में गा-गा कर लोगों को समझाना था कि उन्होंने गलत आदमी को ठेका दे दिया, शिकायत दरअसल उनसे है। कभी ये जमात युद्ध-विरोधी हुआ करती थी। आज वह युद्ध के लिए ललकार रही है। और कितना पतन देखना बाकी है? उन्हें क्या यह नहीं पता कि चीन से युद्ध हो न हो, लेकिन यहां भीतर जो युद्ध चल रहा है उसमें पहला निशाना वे खुद हैं?

अगर इन्होंने जानबूझ कर गलत सुर लगाया है (जिसे मैं नहीं मानता) तो कहना ही क्या! अगर सुर गलती से गलत लग गया है, तो मेहदी हसन साहब जैसी विनम्र क्षमायाचना में कोई हेठी नहीं होनी चाहिए। सत्तापक्ष से इतर सभी ताकतों और राजनीतिक-सामाजिक परिवर्तन के सभी कथित ठेकेदारों को कम से कम उन एक अरब लोगों से यह क्षमायाचना करनी चाहिए जिन्होंने मौजूदा सरकार को अपना मत नहीं दिया था। सारा गाजा-बाजा बीच में रोक के कहना चाहिए जनता से एक बार, 'हज़रात, सुर गलत लग गया था!'

असल में, बार-बार गलत सुर लगाने से वही सुर थोड़े समय बाद गवैये को सही लगने लग जाता है। विडंबना ये है कि अंधेरा अपनी जगह कायम रहता है और वह समझ नहीं पाता कि ऐसा क्यों है। आज भारत में ज़्यादातर सत्ता विरोधी ताकतें इस बीमारी का शिकार होती जा रही हैं। अफ़सोस इस बात का है कि यह बीमारी अंधेरे की नहीं, उससे पहले वाले उजाले की पैदाइश है। 

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