सरकार और समाज सेें उपेक्षित किसान हो रहे एकाकीपन और मानसिक अवसाद का शिकार
किसानों की स्थिति साल-दर-साल बदतर होती जा रही है और सामान्य समाज से उनका नाता पूरी तरह टूट चूका है, मीडिया किसानों की समस्याएं उजागर नहीं करता, बल्कि जब वे अपनी समस्याओं के लिए प्रदर्शन करते हैं तब उन्हें आतंकवादी, खालिस्तानी और पाकिस्तान-समर्थक करार देता है...
महेंद्र पांडेय की टिप्पणी
Society has excluded farmers from its mind and it is dangerous. किसानों को और साथ ही उनके काम की भी समाज और सरकारें हमेशा उपेक्षा करती हैं, इसीलिए किसान और उनका परिवार एकाकीपन का शिकार हो जाता है। एकाकीपन से तनाव और अवसाद जैसे मानसिक विकार उत्पन्न होते हैं जो गंभीर परिणाम दे सकते हैं। यह निष्कर्ष यूनिवर्सिटी ऑफ़ एक्सटर के वैज्ञानिकों द्वारा यूनाइटेड किंगडम के 22 किसानों और 6 ऐसे संगठनों के जो कृषि से सीधे जुड़े हैं, के विस्तृत साक्षात्कार के अध्ययन से निकला है, जिसे हाल में ही रूरल सोशियोलॉजी नामक जर्नल में प्रकाशित किया गया है। इस अध्ययन का नाम है, इट इज अ लोनली ओल्ड वर्ल्ड। इस अध्ययन को भले ही केवल यूनाइटेड किंगडम के किसानों तक सीमित किया गया हो, पर निश्चित तौर पर इसके निष्कर्ष पूरी दुनिया के किसानों, विशेष तौर पर छोटे किसानों, की सामाजिक और सांस्कृतिक स्थिति का बयान करते हैं।
पहले कभी ग्रामीण क्षेत्र की पूरी आबादी ही कृषि पर आश्रित होती थी और तब उसे कृषक नहीं बल्कि कृषक समुदाय कहा जाता था। कृषक समुदाय का समाज में केन्द्रीय स्थान होता था, और इसके महत्व का अंदाजा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि हमारे देश के सभी प्रमुख त्यौहार मौलिक तौर पर कृषक समुदाय से ही जुड़े हैं। इसके बाद विकास के क्रम में जब रोजगार के अवसर बढ़ते गए और शहरों का विस्तार होता गया – तब धीरे-धीरे किसानों का महत्व कम होने लगा। हरित क्रांति के बाद किसानों ने मांग से भी अधिक अनाज का उत्पादन शुरू कर दिया, और अनाज का बाजार किसानों के हाथ से छीन गया – तब से किसानों का समाज में महत्व कम होने लगा। पैकेटबंद खाने के बड़े बाजार ने किसानों से समाज की दूरी को और बढ़ा दिया।
अब किसानों का महत्व समाज में बस इतना है कि किसानों को कुचलने वाला हरेक नेता अपने आप को किसान-पुत्र बताता है। अब तो गाँव का भी स्वरुप और चेहरा बदलने लगा है – इससे गाँव में विभिन्न व्यवसाय के साथ ही विभिन्न आर्थिक स्तर के लोग रहने लगे हैं। खेती छोड़कर शेष सभी व्यवसायों में परिणाम तुरंत निकलता है, या फिर वेतन भोगी तबका हरेक महीने वेतन घर लेकर आता है। दूसरी तरफ खेती से जुड़े लोगों को कई महीने फसल उगाने में, और फिर फसल को बाजार में बेचने में लग जाते हैं – जिससे उनकी आमदनी अनिश्चित रहती है। अपनी अनिश्चित आमदनी के कारण भी किसान और उनका परिवार समाज से कट जाता है।
यूनिवर्सिटी ऑफ़ एक्सटर के वैज्ञानिकों द्वारा किये गए अध्ययन के अनुसार किसानों को यह महसूस होता है कि समाज और सरकारें उनकी और उनके काम की उपेक्षा करते हैं, कोई भी उनके श्रम को और समाज में योगदान को समझाना ही नहीं चाहता। इसीलिए किसान और उनके परिवार समाज से अलग-थलग पड़ जाते हैं। यह एकाकीपन उन्हें अनेक मानसिक समस्यायों से घेर लेता है। किसानों की अपनी समस्याएं हैं – खेती अब अधिक मुनाफे का कार्य नहीं है और दूसरी तरफ हरित क्रांति के बाद से खेती का लागत मूल्य बढ़ गया है, इसमें अधिक निवेश की जरूरत पड़ती है। खेती पूरी तरह मौसम के भरोसे होती है, और मौसम का मिजाज पूरी दुनिया में बदलता जा रहा है। समस्याएं तो किसानों को परेशान करती ही हैं, पर इससे भी बड़ी परेशानी यह है कि समाज से कटे होने के कारण इन समस्याओं की चर्चा भी किसी से नहीं की जा सकती है, ऐसे में अवसाद और तनाव की चपेट में किसान आ जाते हैं।
साक्षात्कार में कई किसानों ने बताया कि अनेक मौकों पर उन्हें अपने ही समाज के लोगों से अपशब्दों को भी झेलना पड़ा है। गाँव की सड़कें संकरी और टूटी-फूटी होती हैं, पर इन्हीं सडकों पर कारें और एसयूवी भी दौड़ने लगे हैं। किसान खेती के काम के लिए अधिकतर ट्रेक्टर-ट्राली का उपयोग करते हैं। जब किसान ट्रेक्टर-ट्राली लेकर गाँव की संकरी सडकों पर चलते हैं, तब अधिकतर मोटर-वाहन वाले जगह नहीं मिलने के कारण अपशब्दों की बौछार करते हैं। किसानों का कहना है कि अब तो अपने परिवेश में भी लोग पराये लोगों जैसा व्यवहार करने लगे हैं। किसानों को अपने पालतू मवेशियों के कारण भी कई बार लोगों से अपशब्द सुनने पड़ते हैं।
किसानों के अनुसार वे भी खेती में नए प्रयोग करते हैं, पानी की बचत करते हैं, कीटनाशकों की बर्बादी रोकते हैं, जलवायु परिवर्तन नियंत्रित करने में भी योगदान देते हैं – हरेक किसान की अपनी एक कहानी है, पर मीडिया और सोशल मीडिया पर शायद की किसी किसान की कहानी मिलती है। यदि वे अपनी कहानी सोशल मीडिया पर डालना भी चाहते हैं तब भी गाँव में इन्टरनेट नेटवर्क की स्पीड से हार जाते हैं। यूनिवर्सिटी ऑफ़ एक्सटर के वैज्ञानिक डॉ रेबेका व्हीलर्स किसान परिवारों का सांकृतिक एकाकीपन अब गंभीर समस्या बन चुका है, उनके काम की समाज और सरकारें लगातार उपेक्षा करती हैं।
ऐसा इसलिए हो रहा है कि जो आबादी खेती से जुडी नहीं है, वह खेती या किसानों से पूरी तरह अलग हो चुकी है। फार्मिंग कम्युनिटी नेटवर्क के सीईओ डॉ ज्युड मैकान के अनुसार हम सब दिन में कम से कम तीन बार खाने के लिए जिन किसानों पर आश्रित हैं, उन्ही के बारे में समाज को विशेष तौर पर शहरी समाज को कुछ भी पता नहीं है। किसानों की समस्या मौसम से जूझते हुए घंटों काम करना और अकेले काम करना भी है।
हमारे देश में किसानों की स्थिति साल-दर-साल बदतर होती जा रही है, और सामान्य समाज से उनका नाता पूरी तरह टूट चूका है। मीडिया किसानों की समस्याएं उजागर नहीं करता, बल्कि जब वे अपनी समस्याओं के लिए प्रदर्शन करते हैं तब उन्हें आतंकवादी, खालिस्तानी और पाकिस्तान-समर्थक करार देता है। मीडिया आन्दोलनकारी किसानों के खाने की, सुविधाओं की, टेंट में एसी की खबरें तो दिखाता है, पर उनकी समस्याओं के बारे में कुछ नहीं कहता। कुछ गंभीर पत्रकारों ने किसानों की समस्याओं को बस मिनिमम सपोर्ट प्राइस के इर्दगिर्द ही बांधे रखा। किसानों के सामाजिक स्तर के बारे में सभी खामोश रहते हैं, उनके एकाकीपन और मानसिक तनाव के बारे में कोई कुछ नहीं कहता।
पूरी दुनिया में किसानों की स्थिति लगातार बदतर होती जा रही है, और हरेक जगह किसान आत्महत्या कर रहे हैं। जाहिर है, यह सब मानसिक अवसाद के कारण है। आत्महत्या के मामले में हो हम विश्वगुरु हैं। हमारे देश में बड़े किसान, छोटे किसान और कृषक श्रमिक सभी आत्महत्या कर रहे हैं। वर्ष 2021 में देश में कुल 5318 किसानों ने और 5563 कृषक श्रमिकों ने आत्महत्या की। इस वर्ष जनवरी से अगस्त के बीच अकेले मराठवाडा क्षेत्र में ही 600 से अधिक किसान आत्मह्त्या कर चुके हैं।