कुछ कवितायें जो आज की गुलामी की दास्ताँ कहती हैं
गुलामों पर हिंदी कविता किसी भी दौर में लिखी गयी हो, किसी भी पृष्ठभूमि पर लिखी गयी हो, पर आप उनमें से अधिकतर के बारे में यही कहेंगे कि यह कविता इसी दौर की है और इसी हुकूमत के लिए लिखी गयी है....
वरिष्ठ पत्रकार महेंद्र पाण्डेय की टिप्पणी
जनज्वार। हम आज जिस दौर में हैं और जिस देश में हैं, वहां जनता की गुलामी का जश्न इश्तहारों, जश्नों और जलसों के साथ सरकार मनाती है। 5 अगस्त 2021 को पूरी केंद्र सरकार इससे ठीक दो वर्ष पहले पूरे कश्मीर को गुलाम बनाने का जश्न मना रही थी। कश्मीर तो एक उदाहरण है, सरकार की कवायद पूरे देश को गुलाम बनाने की है – जाहिर है तभी नए संसद भवन से एक नया भारत दिखेगा। एक ऐसा भारत, जहां भूख, बेरोजगारी और पूंजीवाद का गुलाम पूरा देश होगा।
भूख से जनता की गुलामी का जश्न तो सरकार और सरकार के चरणों को धोकर पीने वाली मीडिया लगातार इश्तहारों, होर्डिंग्स, तथाकथित उत्सव और समाचार चैनलों पर मान्य जा रहा है और हम पिछले कुछ दिनों से लगातार देख रहे हैं – एक बड़े राज्य जिसमें चुनाव भी जल्दी होने वाले हैं वहां 5 किलो अनाज के भाव से 15 करोड़ गुलाम खरीदने की तैयारी जोर-शोर से की जा रही है। अनाज की थैली पर बैठकर देश के प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री आदित्यनाथ मुस्कराते हुए गुलामों के घर-घर में पहुँच रहे हैं।
गुलामों पर हिंदी कविता किसी भी दौर में लिखी गयी हो, किसी भी पृष्ठभूमि पर लिखी गयी हो, पर आप उनमें से अधिकतर के बारे में यही कहेंगे कि यह कविता इसी दौर की है और इसी हुकूमत के लिए लिखी गयी है।
सुप्रसिद्ध पत्रकार, कवि और लेखक रघुवीर सहाय की एक चर्चित कविता है, गुलामी।
मनुष्य के कल्याण के लिए
पहले उसे इतना भूखा रखो कि
वह औऱ कुछ सोच न पाए
फिर उसे कहो कि
तुम्हारी पहली ज़रूरत रोटी है
जिसके लिए वह गुलाम होना भी मंज़ूर करेगा
फिर तो उसे यह बताना रह जाएगा कि
अपनों की गुलामी विदेशियों की गुलामी से बेहतर है
और विदेशियों की गुलामी वे अपने करते हों
जिनकी गुलामी तुम करते हो तो वह भी क्या बुरी है
तुम्हें रोटी तो मिल रही है एक जून।
युवा और सशक्त आदिवासी कवि, अनुज लुगुन की एक कविता है, गुलामगिरी।
गुलाम खरीद रहे हैं
चावल सौ रूपये किलो
तेल सौ रूपये किलो
प्याज सौ रूपये किलो
टमाटर अस्सी रूपये किलो
आलू पच्चास रूपये किलो
कपड़ा हजार रूपये जोड़े
खपड़ा सौ रूपये जोड़े
स्कूल फीस पांच हजार रूपये प्रति
अस्पताल फीस पांच हजार रूपये प्रति
जो नहीं खरीद सक रहे हैं वे मर रहे हैं ,
मालिक बाजार में खड़ा है
हँस रहा है -
टमाटर अस्सी रूपये किलो ..?
हँसता है, कहता है –
'कोल्ड स्टोरेज में रखवा लो'
आलू ,प्याज, दाल, चावल,..सड़ रहा है.?
हँसता है, कहता है-
'कुत्ते को दे दो .!'
गुलाम ही तो हैं
सब्जी खरीदने वाले
मोल भाव करने वाले ..?
कीमत चुकाने वाले ..?
चुप रहने वाले .?
मेरा हम-उम्र राजकुमार था
राजा हो गया, मालिक हो गया
मेरा पड़ोसी लोहार था
सांसद हो गया, मालिक हो गया
मेरा भाई मेरे साथ
कचरा ढोता था
अफ़सर हो गया, मालिक हो गया
एक मैं था –
किसान था, गुलाम हो गया
मजदूर था, गुलाम हो गया
बेरोजगार था, गुलाम हो गया
क्लर्क था, गुलाम हो गया
शिक्षक था, गुलाम हो गया
सिपाही था, गुलाम हो गया
मैं एक देश था
अपने ही देश में गुलाम हो गया
कुछ गुलाम जिन्होंने
आजादी का मतलब जान लिया है
वे विद्रोही हो गये हैं
वे बगावत पर उतर आए हैं
वे छापामारी कर रहे हैं
वे मारे जा रहे हैं
कुछ गुलाम उन्हें मारने में
मालिक का सहयोग कर रहे हैं
गुलाम हैं,गुलामगिरी को
जिन्दा किये हुए हैं
कुछ देर में गुलाम
मालिक के कहने पर
सड़कों पर आयेंगे वोट डालेंगे
और जश्न मनाएंगे -
"लोकतंत्र..लोकतंत्र..लोकतंत्र ..
कवि सर्वत एम जमाल की एक कविता है, गुलामी सब अभी तक ढो रहे हैं|
गुलामी सब अभी तक ढो रहे हैं
और इस पर भी सभी खुश हो रहे हैं
घरों तक पैठ है दुश्मन की लेकिन
हमारे शहर में सब सो रहे हैं
बुलंदी, रौशनी, सम्मान, दौलत
ये सारे फायदे किस को रहे हैं
कटाई का समय सर पर खड़ा है
किसान अब खेत में क्या बो रहे हैं
दरिन्दे भी, किसी पल आदमी भी
यहाँ चेहरे सभी के दो रहे हैं
सुना है आप हैं बेदाग़ अब तक
तो दामन फिर भला क्यों धो रहे हैं
अभी तक रो रहे थे बंदिशों पर
अब आज़ादी का रोना रो रहे हैं
हमें छालों का दुखडा मत सुनाओ
सफर में साथ हम भी तो रहे हैं
अंधेरों ने किया दुनिया पे कब्जा
उजाले अपनी ताक़त खो रहे है
कवि रमाशंकर यादव विद्रोही ने गुलाम और गुलामी पर अनेक कवितायें लिखीं हैं| इसी श्रंखला की एक कविता है, गुलाम -3|
तब बने बाज़ार और बाज़ार में सामान आये,
और बाद में सामान की गिनती में खुल्ला बिकते थे गुलाम,
सीरिया और काहिरा में पट्टा होते थे गुलाम,
वेतलहम-येरूशलम में गिरवी होते थे गुलाम,
रोम में और कापुआ में रेहन होते थे गुलाम,
मंचूरिया-शंघाई में नीलाम होते थे गुलाम,
मगध-कोशल-काशी में बेनामी होते थे गुलाम,
और सारी दुनिया में किराए पर उठते गुलाम,
पर वाह रे मेरा जमाना और वाह रे भगवा हुकूमत!
अब सरे बाजार में ख़ैरात बंटते हैं गुलाम।
लोग कहते हैं कि लोगों पहले ऐसा न था,
पर मैं तो कहता हूं कि लोगों कब, कहां, कैसा न था ?
दुनिया के बाजार में सबसे पहले क्या बिका था ?
तो सबसे पहले दोस्तों .... बंदर का बच्चा बिका था।
और बाद में तो डार्विन ने सिद्ध बिल्कुल कर दिया,
वो जो था बंदर का बच्चा,
बंदर नहीं वो आदमी था।