Sushant Singh Rajput Case : भीमा कोरेगांव मामले में अमेरिकी एजेंसी की जांच को झूठा कहने वाली CBI लेगी सुशांत सिंह सुसाइड में अमेरिका से मदद
Sushant Singh Rajput Case : खबर आई है कि CBI इस मामले में USA से मदद की गुहार लगा रहा है। यह मदद सुशांत के ई-मेल और सोशल मीडिया एकाउंट्स से डिलीट हुए डेटा से सम्बंधित जानकारी हासिल करने के लिए है
वरिष्ठ पत्रकार महेंद्र पाण्डेय की टिप्पणी
Sushant Singh Rajput Case। सुशांत सिंह राजपूत (Sushant Singh Rajput) मामले को डेढ़ साल से अधिक हो चुके हैं, पर यदि आपको लगता है कि यह मामला ख़त्म हो गया तो निश्चित तौर पर आप गलत हैं। इस मामले में नई दिल्ली स्थित अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (AIIMS) भी बता चुका है कि यह मामला खुदकुशी का था, पर सरकार, सरकारी जांच एजेंसियां और मीडिया इस मामले को जिन्दा रखना चाहता है। मीडिया तो पिछले वर्ष भी बड़ी शिद्दत से अपने 6 महीने इस मामले में अफवाहें गढ़ने में बिताये थे, फिल्म इंडस्ट्री पर खूब आरोप गढ़े गए, दो राज्यों की पुलिस और सरकार में खटास पैदा की गयी, सरकारी जांच एजेंसियां भी जांच कम और मीडिया पर वक्तव्य ज्यादा देती रहीं, और इस बीच में सरकार बड़े आराम से अपने जनता विरोधी और धार्मिक अजेंडा को पूरा करती रही. इसी दौरान कृषि कानून बनाए गए थे और दिल्ली दंगों की हजारों पृष्ठ की बकवास रिपोर्ट प्रस्तुत की गयी थी.
अब खबर आई है कि सीबीआई (CBI) इस मामले में अमेरिका (USA) से मदद की गुहार लगा रहा है। यह मदद सुशांत के ई-मेल और सोशल मीडिया एकाउंट्स से डिलीट हुए डेटा से सम्बंधित जानकारी हासिल करने के लिए है। सीबीआई अमेरिका से म्यूच्यूअल लीगल असिस्टेंस ट्रीटी (Mutual Legal Assistance Treaty) के तहत मदद मांग रही है। इसके अलावा गूगल और फेसबुक से भी डिलीट किये डेटा की जानकारी माँगी जा रही है।
सरकारी जांच एजेंसियां कितने पक्षपातपूर्ण रवैये से अपना काम करती हैं, यह उसका जीता-जागता उदाहरण है – एक मामले में अमेरिका से मदद माँगी जा रही है, तो दूसरे मामले में अमेरिका की एक प्रतिष्ठित साइबर-क्राइम प्रयोगशाला बार बार बता रही है कि भीमा कोरेगांव मामले में जिस ई-मेल को आधार बनाकर सरकारी जांच एजेंसी मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के विरुद्ध षड्यंत्र रच रही है, वह ई-मेल बाहर से ट्रांसप्लांट किया गया था।
भीमा कोरेगांव काण्ड (Bhima Koregaon Case) के नाम पर मोदी सरकार के नेशनल सिक्यूरिटी एजेंसी (NSA) ने मोदी सरकार की नीतियों के विरोध में खड़े लीगों को, जिसमें बहुत बुजुर्ग और अशक्त लोग भी हैं, लम्बे समय से जेल में डाला है। उन्हें आतंकवादी बताया गया और कहा गया कि इनलोगों ने प्रधानमंत्री मोदी की हत्या का षड्यंत्र रचा। रोना विल्सन (Rona Wilson) के लैपटॉप से ई-मेल भी अचानक बरामद कर लिए गए, जिसमें प्रधानमंत्री मोदी के हत्या की साजिश रचने की बात कही गयी थी। रोना विल्सन शुरू से ही कहते रहे थे कि उन्हें ई-मेल की और सम्बंधित फाईलों की जानकारी नहीं है और इसे किसी और ने उनके लैपटॉप में डाला है।
फरवरी में अमेरिका के मेस्सचुस्सेट्स स्थित प्रतिष्ठित डिजिटल फोरेंसिक कंपनी आर्सेनल कंसल्टिंग (Arsenal Consulting) ने जांच के बाद पाया था कि विल्सन के लैपटॉप में 10 फाईलें मैलवेयर द्वारा डाली गईं थीं, इन दस फाईलों में वह बहुचर्चित ई-मेल भी शामिल था, जिसमें एनआईए के अनुसार प्रधानमंत्री की हत्या की साजिश बात कही गयी थी। हालां की रिपोर्ट के अनुसार इन फाईलों को लैपटॉप में किसने डाला यह पता नहीं किया जा सका है। इस समाचार को सबसे पहले अमेरिका के प्रतिष्ठित समाचारपत्र वाशिंगटन पोस्ट (Washington Post) ने उजागर किया था, पर हमारे देश में ऐसी खबरों का क्या हश्र होता है, यह सभी जानते हैं।
वाशिंगटन पोस्ट ने 20 अप्रैल को फिर से इस विषय में समाचार प्रकाशित किया है, Further evidence in case against Indian activists accused of terrorism was planted, new report says। इस समाचार के अनुसार आर्सेनल कंसल्टिंग ने एनआईए कोर्ट में 27 मार्च को अपनी दूसरी रिपोर्ट प्रस्तुत की है, जिसके अनुसार पहले की 10 फाईलों के अतिरिक्त 22 दूसरे डॉक्यूमेंट भी रोना विल्सन के लैपटॉप में मैलवेयर (Malware) के माध्यम से डाले गए थे। रिपोर्ट के अनुसार यह काम किसने किया है, इसका पता नहीं चल पाया है। इस रिपोर्ट से यह चिंता तो स्वाभाविक है की मोदी सरकार अपने विरोधियों का दमन करने के लिए किसी भी हद तक जा सकती है। मानवाधिकार कार्यकर्ता और कानूनी विशेषज्ञ शुरू से ही इस मुकदमे को मोदी सरकार की साजिश बताते रहे हैं। वाशिंगटन पोस्ट के अनुसार मोदी के भारत में विरोध का दायरा संकुचित हो चला है, विरोध करने वाले पत्रकारों, एक्टिविस्ट और आंदोलकारियों को या तो जेल में ठूंस दिया जाता है, या फिर तरह-तरह से प्रताड़ित किया जाता है।
भीमा कोरेगांव के नाम पर अब तक एक शिक्षाविद, एक अधिवक्ता, एक जनकवि, एक जूरिस्ट पादरी (जिनकी मृत्यु भी हो गयी) और दो गायकों को जेल में डाला गया है, जहां तीन साल भी इस मुकदमे की सुनवाई भी शुरू नहीं की गयी है। जेल में बंद सभी मानवाधिकार कार्यकर्ता समाज के सबसे पिछड़े वर्ग के बीच काम करने के लिए जाने जाते हैं और सरकार की नीतियों के मुखर विरोधी रहे हैं। इन मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के वकील ने फरवरी में ही आर्सेनल की पहली रिपोर्ट न्यायालय में प्रस्तुत कर दी थी, पर इसपर सुनवाई अबतक नहीं की गयी है।
एनआईए की प्रवक्ता जया रॉय के अनुसार एनआईए को अपनी जांच में मैलवेयर से समन्धित कोई जानकारी नहीं मिली, और किसी प्राइवेट कंपनी की जांच के आधार पर हम फिर से जांच नहीं करेंगे। दूसरी तरफ वाशिंगटन पोस्ट ने अपनी तरफ से पहली रिपोर्ट को मैलवेयर और डिजिटल फोरेंसिक के तीन अमेरिकी विशेषज्ञों से और दोनों रिपोर्ट की जांच एक अलग विशेषज्ञ से कराई और हरेक विशेषज्ञ ने इसे सही माना।
हमारा देश इस दौर में मानवाधिकार हनन के सन्दर्भ में अतुलनीय है, यहाँ तक कि चीन और रूस भी हमारे तुलना में बहुत पीछे छूट गए हैं। यहाँ मानवाधिकार कार्यकर्ता सबसे पहले आतंकवादी, माओवादी और देशद्रोही बता कर बिना किसी आरोप या सबूत के ही जेल में डाल दिए जाते हैं। मीडिया और सोशल मीडिया उन्हें तरह तरह से अपराधी करार देने की साजिश रचता है। फिर पुलिस और जांच एजेंसियाँ उनके विरुद्ध आरोपों का आविष्कार फेक विडियो, फेक सीडी, फेक फोनकॉल्स या फिर लैपटॉप में अपनी तरफ से कुछ डाक्यूमेंट्स डाल कर करती हैं। फिर सालों-साल सुनवाई में लगते हैं। इनमें से कुछ आरोपी तो बिना सुनवाई के ही जेल में बंद रहते दम तोड़ देते हैं, शेष अनेक वर्ष बाद सबूतों के अभाव में बरी हो जाते हैं। इस न्यू इंडिया में ऐसी लम्बी फेहरिस्त है। दूसरी तरफ सुशांत सिंह राजपूत का मामला है, जहां अमेरिका से मदद मांगी जा रही है। दोनों मामलों में सरकार केवल अपना हित साध रही है।