तालिबान : कट्टरपन की बुनियाद पर खड़ी कोई भी हुकूमत आवाम को आजादी, बराबरी और सुकून नहीं दे सकती

अगर हमने सद्भावना, धर्मनिरपेक्षता और एकता को बढ़ाने वाली हुकूमत चुनी होती, तो वह दुनिया के साथ मिलकर गर्त में गिर रहे एक पड़ोसी को बचाने में लगी होती.....

Update: 2021-08-17 08:00 GMT

तालिबान शासन में बढ़ चुके हैं महिलाओं पर होने वाले अत्याचार (file photo)

हफीज़ किदवई की टिप्पणी

जनज्वार। मेरे लिए यह सवाल है कि हम तालिबान का विरोध क्यों करें, तो जवाब भी अन्दर से आता है कि तालिबान का पिछला अनुभव कहता है कि यदि मानवता, बराबरी, अहिंसा और आजादी में विश्वास रखते हों तो इसके विरुद्ध खड़े हों।

कुछ लोग कह रहे हैं कि 'यह वह तालिबान नहीं है, अबकी वह अपनी गलतियों को नहीं दोहराएंगे, वह बदल कर आए हैं', यह कहने वाले वही लोग हैं, जो 'सबका साथ सबका विकास' जैसे चमकीले नारे को जरा भी सच्चा नहीं मानते हैं, क्योंकि यह नारे और उसके पीछे खड़े लोगों का अनुभव इसका अंतर बताता है, ठीक वैसे ही हम भी उन दलीलों को नहीं मानते जो तालिबान को लेकर कोई दे रहा है।

अफगानिस्तान जिसकी किस्मत में खान अब्दुल गफ्फार खान जैसा नेतृत्व नहीं लिखा था, जो पूरे एक हिस्से की प्रयोगशाला बनकर रह गया है। दुनिया की दो महाशक्तियों के बीच भुनने वाली यह मिट्टी अपने अंदर से तालिबान जैसे लावे से भी भभक कर जल रही है, इसे कोई कैसे सही ठहरा सकता है।

कट्टरपन की बुनियाद पर खड़ी कोई भी हुकूमत आवाम को आजादी, बराबरी और सुक़ून नहीं दे सकती है। जब हमनें जीवन का सूत्र बना लिया कि कट्टरपन, नफरत, गैर-बराबरी, अन्याय, हिंसा जैसे तमाम गलत कामों के विरुद्ध रहेंगे, तो यकीन जानो, रहेंगे, इसके लिए हमें किसी के सर्टिफिकेट की आवश्यकता नहीं है।

अपने देश से लेकर दुनिया के हर कोने तक जहां भी जुल्म, गैर बराबरी, अन्याय, महिलाओं को कैद करने, बच्चों पर जुल्म और अपने से अलहदा ख्याल को जंजीरों में बांधा जाएगा, हम उसके खिलाफ खड़े मिलेंगे।

आज तालिबान के विरुद्ध अगर हमारे यहां सेक्युलर हुकूमत होती, तो आंखे में आंखे डालकर हिसाब कर रही होती। अगर हमने सद्भावना, धर्मनिरपेक्षता और एकता को बढ़ाने वाली हुकूमत चुनी होती, तो वह दुनिया के साथ मिलकर गर्त में गिर रहे एक पड़ोसी को बचाने में लगी होती। मगर हम बोलें तो बोलें कैसे, कहें तो भला कहें क्या, हम बस विरोध दर्ज कराने लायक रह गए हैं। तालिबान के मनहूस साए में एक मिट्टी को मिलते देखना बहुत दर्दनाक है, कम से कम यह वह लोग तो महसूस ही कर सकते हैं, जिन्हें यहां कपड़ों से उनकी हुकूमत पहचान लेती है।

तालिबान के समर्थन में वह कैसे खड़ा हो सकता है, जो अपने यहां एक तंग नजर हुकूमत से जूझ रहा है। मुझे हैरत होती है कि जो दर्द तुम झेल रहे हो, हजार गुना होकर अफगान जिस्मों को मिलने वाला है। तालिबान से हमदर्दी, हर ज़ुल्मी, कट्टर और बाँटने वाली हुकूमत से हमदर्दी कहलाएगी। आपको इसके नेचुरल ही इसके खिलाफ बोलना, खड़े होना होगा, न कि किसी की धमकी, उकसावे या सवाल पर, अपनी नियत से इसके खिलाफ रहिए।

तालिबान कभी भी एक अच्छी हुकूमत नहीं दे सकता क्योंकि उसकी बुनियाद कट्टरपन, नफ़रत और हिंसा है, जिसकी भी यह नींव में होगा, वह कभी शांति और तरक्की नही ला सकता। तालिबान एक घटिया हुकूमत साबित होगी, मान लो, क्योंकि विनाश के हाथ निर्माण के हाथ नहीं हो सकते, यह परखा हुआ सच है। मुझे अफगानी इंसानों की फिक्र है, इसलिए इस बदलाव के खिलाफ हैं।

दूसरी बात, तालिबान से जो हमें डराए, उसका खौफ दिखाकर वोट मांगे, उसके हव्वे को खड़ा करके अपनी रोटी सेके, तो समझ लेना तालिबान उसके दिल में बैठा उसका सबसे प्रिय साथी है।

हम गांधी के रास्ते के लोग हजार तालिबान जैसे लोगों से न डरते हैं और न रास्ते बदलते हैं और न ही इसके नाम से कोई लिजलिजा कमजोर झूठा व्यक्ति चुनकर सर पर बैठाते हैं। तालिबान के खिलाफ खड़े होकर लड़ना हमें आता है, मगर उसका इस्तेमाल करके अपनी दुकान चलाने की नीचता से हमें हमारे पुरखों ने मना किया है।

बहुत से लोगों को देख रहे, जो तालिबान को लेकर भारत की राजनीति में लामबंदी कर रहे हैं। वाट्सएप मैसेज चलाकर कह रहे हैं कि सम्भल जाओ यहां आ जाएंगे वह, अरे मूर्खों यहां वह नही आएंगे क्योंकि उनकी ही बिरादरी यहां ताकत में पहले से है। धर्म का राजनीति में जो भी इस्तेमाल करेगा, उनका ही मेले में बिछड़ा सगा भाई कहलाएगा।

आप हिन्दू-मुस्लिम दोनों के कुछ कट्टरपंथी को देखिये, दोनों तालिबान से खुश हैं। एक अपने मज़हब के कारण तो दूसरा अपनी जमीन पर इनका नाम लेकर नफरत फैलाने को अवसर समझ कर खुश हैं। असल मे एक कट्टरपंथी दूसरे कट्टरपंथी का सबसे बड़ा मददगार होता है। तालिबान, पूरी दुनिया के तालिबानी सोच रखने वाले लोगों के लिए बहुत उपजाऊ जमीन मुहैय्या कराता है।

मेरी सिर्फ एक लाइन है, जो भी अपने धर्म का राजनीति में प्रयोग करके, दूसरे धर्म के विरुद्ध हर जोर-जुल्म की वकालत करेगा, वह तालिबान कहलाएगा। मैं सिर्फ अफगानिस्तान में तालिबान नहीं मानता और सिर्फ मुसलमान को इसका हिस्सेदार नहीं मानता, हर धर्म, जो भी नफरत का राजनीति में इस्तेमाल करे, लोगों को बांटे, उन्हें तोड़कर सत्ता पाए, वह सब तालिबानी सभ्यता के ही स्तम्भ कहलाएंगे।

हम भयंकर उठते लावे के बीच पेट्रोल लेकर खड़े लोगों को तालिबान का भाई बहन मानते हैं। केवल वह ही तालिबान के खिलाफ हैं, जो अपनी जमीन पर प्रेम, भाईचारा, एकता, अहिंसा, न्याय, बराबरी का परचम उठाए हैं। जिनके लिए तालिबान एक अवसर है, वह ही तो तालिबानी हैं। जो इसके विरुद्ध हैं, वह हर कत्ल, बलात्कार, अत्याचार, नफरत, अन्याय और गैरबराबरी के विरुद्ध हैं।

रास्ता एक रखो, रास्ता नेक रखो, जिसमें किसी की भलाई शामिल न हो, जिसमे करुणा की अपील न हो, जो तुम्हें डराकर भेड़ का झुंड बनाना चाहे, ऐसी भेड़ की खाल ओढ़े भेड़िए से भी सावधान रहो। अपने आप को किसी कट्टरपंथी के इस्तेमाल से बचाव, बहुत महीन रेखा है, हर दर्द को उभारने वाला जरूरी नहीं मरहम लिए हो, टिटनेस भी कर सकता है, इसलिए बहुत सावधान रहो।

हम तालिबान के विरुद्ध 'अगर-मगर' 'लेकिन-वेकिन' लगाए बिना खिलाफ और मजबूत खड़े हैं, इसका मतलब यह नहीं की हमारी जमीन के कट्टरपंथियों की गोद में जाकर बैठ जाएंगे। तालिबान से भी लड़ेंगे और उसके जैसी हर सोच से लड़ेंगे, जो धर्म के नाम पर भेद करती है। तालिबान को बुरा कहने में मेरी ज़ुबान लचकती नहीं है, तो इसका राजनीति में इस्तेमाल करने वालों को भी नीच कहने में ज़ुबान हिचकेगी नहीं, जीवन का एक सिद्धांत है, जो आखिरी सांस तक चलेगा कि धर्म, जाति के नाम पर कभी किसी से नफरत नही करेंगे, चिढ़ेंगे नहीं, नीचा नहीं दिखाएंगे और फर्क भी नही करेंगे।

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