आरक्षण से देश बढ़ेगा, सवर्ण भी टटोलकर देखें कि रिजर्वेशन से इनका नुकसान नहीं फायदा ही है

आरक्षण का विरोध करने वाले सोचें कि उनके लिए ही फायदा है कि सबको आगे बढ़ने का मौका मिलेगा, बड़े व्यापारी, शिक्षण संस्थान, उद्योग, हॉस्पिटल, सिविल एविएशन, सर्विस क्षेत्र सवर्ण समाज के पास हैं, अगर ये निष्पक्षता से देखें तो आरक्षण से हानि नहीं, बल्कि लाभ इनका भी है और अंततः देश का...

Update: 2023-01-13 08:54 GMT

file photo

पूर्व सांसद डॉ. उदित राज की टिप्पणी

हिन्दी में सन्मार्ग अखबार कोलकाता से प्रकाशित होता है। क़रीब दो माह पूर्व जब मुझे आरक्षण पर वाद-विवाद में शरीक होने का निमंत्रण मिला तो कुछ हैरानी हुई। दिल्ली में बड़े मीडिया हाउस तमाम वार्षिक कार्यक्रम कराते रहते हैं जिसमें दुनिया से ताकतवर लोगों को आमंत्रित करते हैं। भारत के गणमान्य तो वक्ता और अतिथि बनकर विद्वता झाड़ने आते हैं। विषयवस्तु ऐसी होती है जो उनके पसंद का हो या उन विषयों को चुनते हैं जो बहुजन समाज से लेना देना नहीं होता। किसान, असंगठित कामगार, बेरोजगारी, महंगाई आदि को भी विषय में शामिल नहीं करते।

धन्यवाद योग्य हैं विवेक गुप्ता और रुचिका गुप्ता जिन्होंने आरक्षण जैसे विषय को चुना। त्रासदी रही है और है कि बड़े सवालों पर विमर्श कम ही होता है। आरक्षण पहले करीब 85% को छू रहा था और आर्थिक रूप से गरीब को जबसे मिलने लगा तो अब 100 % को छूने लगा है। इसके बावजूद चर्चा न हो तो क्या इसे मीडिया कहेंगे? वाद-विवाद से विपक्ष को भी समझ आएगा कि हजारों वर्ष से जिसके साथ अन्याय हुआ है उनको न्याय देने की बात है और जब तक सबको मुख्यधारा से नहीं जोड़ा जाएगा, तब तक देश तरक्की नहीं कर सकता और गुलामी का मुख्य कारण यही था हम जातियों में बंटे थे।

वाद-विवाद में दोनों पक्षों को बराबर का मौका मिला। बहुसंख्यक श्रोता ज़रूर आरक्षण के विपक्ष में ज्यादा थे और स्वाभाविक है कि जो जिस जाति से आता है उसका जान-पहचान और दोस्ती उसी में होगी। पत्रकारिता के दुनिया में तथाकथित सवर्ण ही हैं। शिक्षित होने का अवसर इन्हीं को पहले मिला। सदियों से सामाजिक पूंजी जिसके पास है बुद्धिजीवी और शिक्षित भी वहीं होंगे। जैसा समाज वैसे ही भागीदारी होगी।

जांच पड़ताल करना जरुरी है कि हम समझें कि आरक्षण से कितना लाभ-हानि हो रहा है। इसे दो तरह से देखा जा सकता है। आरक्षण के पहले का भारत जिसमें शासन और प्रशासन से बहुजन समाज वंचित था तब कौन सा आरक्षण था कि देश बार-बार गुलाम हुआ। चंद घुड़सवार देश जीत लेते थे और कारण कभी बताया जाता था कि धोखे से किया या अन्दर के भेदिया जिम्मेदार थे। कभी कहना एक राजा दूसरे से आपस में लड़ रहे थे। यह तो अन्य देशों और समाजों में होता रहा। असली कारण था 3 % क्षत्रिय ही की जिम्मेदारी थी, बाकि एससी, एसटी और ओबीसी के लोग तमाशबीन बने रहते थे। अगर सब पत्थर उठा लेते तो चंद हजार आक्रमणकारी भाग खड़े होते। क्या यह आरक्षण नहीं था, जिसकी वजह देश का बेड़ा गर्क हुआ। सरकारी आरक्षण के पहले जो जाति के आधार पर था, उसका नतीज़ा देखा कि देश गुलाम रहा।

दूसरी तरह से आरक्षण के असर को देखा जाए जिसकी शुरुआत बहुत देर से हुई। सन् 1902 में कोलापुर के महाराजा क्षत्रपति शिवाजी महाराज ने किया। उत्तर भारत में आरक्षण बहुत बाद में आया और तुलना करें कि जिसने विकास ज्यादा किया? उत्तर भारत के लोग नौकरी करने वहीं जा रहे हैं जहां आरक्षण पहले आया और प्रतिशत भी ज्यादा रहा। ट्रावनकोर रियासत में सरकारी नौकरियों में आरक्षण का आंदोलन 1891 में प्रारभ हुआ, को बाद में जाकर मिला। केरल के उन्नति के बारे में चर्चा करने की जरुरत नहीं है। मद्रास में आरक्षण 1921 में लागू हुआ और तमिलनाडु आज उत्तर भारत के राज्यों कई गुना आगे है। 1918 में मैसूर के महाराजा नलवाड़ी कृष्णराजा वाडियार ने आरक्षण देने के लिए समिति का गठन किया? जिसका ब्राह्मणों ने विरोध किया, लेकिन आरक्षण लागू हुआ।

केरल, तमिलनाडु, कर्नाटक और महाराष्ट्र उत्तर भारत के राज्य कई गुना ज्यादा तरक्की कर चुके हैं। आरक्षण विरोधी कुछ बातों से बहुत क्षुब्ध रहते हैं, जैसे कि मेरिट की अवहेलना। इनके लिए मेरिट का मतलब रट्टा लगाकर परीक्षा में उगल देना। इस मेरिट को अंग्रेजों ने गढ़ा था कि भारतीयों को कैसे तोता बनाकर राज करें। मेरिट में ईमानदारी, समझदारी, मेहनत करने की छमता, मानवता और निष्ठा आदि को शामिल करके देखा जाना चाहिए। एक अजीब तर्क दिया जाता है कि आरक्षण के कारण टैलेंट विदेश भाग जाता है। विदेश जाकर पैसा ही तो कमाने का उद्वेश्य है और कारण आरक्षण को बता दिया जाता है।

क्या बिल गेट्स ड्रॉपआउट है और न कोई पूंजी और फॉर्मल शिक्षा फिर भी विंडो सॉफ्ट बनाकर दुनिया का सबसे अमीर बना। जकरबर्ग जब शिक्षा ले रहा था तभी फेसबुक बना डाला। एलन मस्क बचपन में स्कूल जाने से नफरत करता था और वो भी ड्रॉपआउट है। अधिकतर दुनिया के उदाहरण ऐसे ही हैं, लेकिन भारत न कुछ कर पाने का कारण आरक्षण बताया जाता है। उद्योग जगत में कोई आरक्षण नहीं है तब क्यों नही नई तकनीक खोज पाते हैं। बैंक कर्ज और आईपीओ के पैसे से ही बड़े व्यापारी बने हैं। अब तो सरकारी सम्पत्ति को औने पौने दाम पर खरीदकर मालदार बन रहे। कभी इंपोर्ट ड्यूटी में घपला तो कभी शेयर मार्केट के जरिए और बिजली चोरी और कर हेराफेरी आम बात है।

शत-प्रतिशत वैज्ञानिक, प्रोफेसर, कुलपति अनारक्षित से ही हैं तो क्यों नहीं नई खोज और तकनीक का आविष्कार कर पाते। न कर पाने की स्थिति में दोष आरक्षण को। विदेश जाते हैं तो शिक्षित रोजगार के अलावा क्या हो पाते। एकाध उच्च स्तर पर पहुंच जाते हैं तो फिर क्या डंका पीटने लगते हैं देखो विदेश में जाकर कमाल कर लिया। अरे भाई, यहां कौन रोक रहा है करने को। कभी वो अमेरिका, यूरोप भी तो ऐसे थे। चीन का उदाहरण क्यों लेते की 1980 तक भारत के समकक्ष था। सिंगापुर तो 1965 तक गांव था।

आरक्षण से देश स्वाधीन बना हुआ है। कमोवेश सबकी भागीदारी शासन प्रशासन में है, नहीं तो देश में अलगाववादी आंदोलन खड़े हो जाते। दलितों और पिछड़ों को जब कुछ आगे बढ़ने का मौका मिला तो इनकी खरीद शक्ति बढ़ी तभी तो अर्थव्यवस्था बड़ी हो रही है। आरक्षण से नौकरी पाने वाले ही तो स्कूटर, कार, बाइक, कपड़ा, सीमेंट, लोहा, आदि तमाम वस्तुएं खरीदते हैं तभी तो उत्पादन बढ़ेगा। क्या 15% आबादी की क्रय शक्ति से देश की जीडीपी बड़ी होगी।

आरक्षण का विरोध करने वाले सोचें कि उनके लिए ही फायदा है कि सबको आगे बढ़ने का मौका मिलेगा। बड़े व्यापारी, शिक्षण संस्थान, उद्योग, हॉस्पिटल, सिविल एविएशन, सर्विस क्षेत्र सवर्ण समाज के पास हैं, अगर ये निष्पक्षता से देखें तो आरक्षण से हानि नहीं, बल्कि लाभ इनका भी है और अंततः देश का। सन्मार्ग अखबार और मीडिया हाउस को भी इससे सीखना चाहिए।

(डॉ. उदित राज, पूर्व सांसद, असंगठित कामगार एवं कर्मचारी कांग्रेस (केकेसी) के राष्ट्रीय चेयरमैन तथा राष्ट्रीय प्रवक्ता हैं।)

Tags:    

Similar News