शोषणमुक्त भारत का ख्वाब देखने वाले भगत सिंह और शंकर गुहा नियोगी जैसे महान क्रांतिकारियों का सपना आज भी अधूरा, Gen-Z आंदोलन में फूट रहा युवाओं का गुस्सा !

लगातार ऐसे हालात पैदा किए जा रहे हैं कि छात्र और युवा खुद को ठगा हुआ महसूस कर रहे हैं और केंद्र और राज्य सरकारों के खिलाफ भयंकर गुस्से से भरे हुए हैं, तमाम लुभावने वादे और दावे करके सत्ता हासिल करने वाली भाजपा की केंद्र और कई राज्यों की डबल इंजन सरकारों ने भारत के Gen-Z के सामने रास्ता ही क्या छोड़ा...

Update: 2025-09-28 06:45 GMT

सहकार रेडियो के संयोजक पवन सत्यार्थी की टिप्पणी

आज 28 सितंबर है। आज शहीद-ए-आज़म भगत सिंह की जयंती है और छत्तीसगढ़ के मज़दूर नेता शंकर गुहा नियोगी का शहीद दिवस भी। इन दोनों महान क्रांतिकारियों का सपना था भारत को एक शोषण मुक्त देश/समाज बनाने का, जो इनकी शहादत के बाद आज तक अधूरा है। आज का यह दिन ऐसे मौके पर आया है जब एक तरफ नेपाल के Gen-Z आंदोलन ने वहां की सत्ता पलट दी। बांग्लादेश में कुछ महीनों पहले ही तख्ता पलट हुआ। इस श्रृंखला की अगली कड़ी क्या भारत हो सकता है? इस पर विस्तार से बात करने से पहले आइए जान लेते हैं हमारे इन दोनों शहीद क्रांतिकारियों ने इस बारे में क्या कहा था।

भगत सिंह ने कहा था कि "क्रांति की तलवार विचारों की शान पर तेज़ होती है... बम और पिस्तौल क्रांति नहीं लाते।"

वहीं मज़दूर नेता शंकर गुहा नियोगी ने कहा था कि "संघर्ष और निर्माण दो कदमों की तरह हैं, दोनों कदम नहीं उठेंगे तो हम असंतुलित होकर गिर जाएंगे और आंदोलन आगे नहीं बढ़ पाएगा।"

तो हम Gen-Z के भारत में भी सक्रिय होने और व्यवस्था परिवर्तन के कयासों की बात कर रहे थे। निःसंदेह भारत में जिस तरह जगह—जगह छात्रों और युवाओं के प्रदर्शन हो रहे हैं, उसे देखते हुए यह कयास अव्यावहारिक भी नहीं हैं। सबसे ताज़ा मामला लद्दाख का है, जहां युवा सड़कों पर हैं, आगजनी और हिंसा जारी है। पुलिस की गोली से कुछ छात्रों की जान चली गई। फिलहाल लद्दाख में इंटरनेट बंद है। सामाजिक कार्यकर्ता सोनम वांगचुक को गिरफ्तार करके राजस्थान की किसी जेल में भेज दिया गया है। उत्तराखंड के देहरादून व अन्य शहरों में आंदोलन चल रहे हैं। बिहार और बेंगलुरु में भी युवा और छात्र आंदोलनरत हैं।

नेपाल या बांग्लादेश में हुए तख्तापलट के बाद सत्ता में आई ताकतों और वहां हुए बदलावों को देखते हुए हम खुशी तो ज़ाहिर नहीं कर सकते। इतिहास में ऐसे कई प्रमाण मौजूद हैं, जब क्रांतिकारी ताकतें अपना मजबूत जनाधार बनाते हुए लोगों के बीच क्रांतिकारी चेतना विकसित कर पाईं और उन्हें नेतृत्व दे पाने की स्थिति में थीं। ऐसा जब और जहां भी हुआ, वहां के सामाजिक/सांस्कृतिक/आर्थिक राजनीतिक ताने-बाने ने एक नए युग में प्रवेश किया और कई छलांगे मारते हुए नया नेतृत्व उस देश को बहुत आगे ले गया। लेकिन ऐसा न होने पर ऐसे आंदोलनों का जो हश्र हमने श्रीलंका, बांग्लादेश या नेपाल में देखा, कुछ ऐसे परिणाम ही भारत या किसी भी अन्य देश में आने की पूरी संभावना है, अगर क्रांतिकारी ताकतें उसे सही दिशा देने में समर्थ न हुईं।

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तो क्या किया जाए, हिंसा या आगजनी का समर्थन या विरोध?

किसी भी लोकतांत्रिक दायरे में निश्चित तौर पर इस तरह की जाने वाली हिंसक गतिविधियों का समर्थन तो नहीं किया जा सकता, लेकिन सवाल यह भी है कि इसका जिम्मेदार उन सामाजिक कार्यकर्ताओं को ही क्यों ठहराया जाए, जो लगातार शांतिपूर्ण तरीके से जनता के बीच और लोकतांत्रिक दायरे के भीतर रहते हुए उन्हें संगठित, जागरूक और आंदोलित करने की कोशिश करते हैं? और उन लोगों को कठघरे से बाहर क्यों रखा जाए, जिन्होंने लगातार ऐसे हालात पैदा किए कि छात्र और युवा ठगे से महसूस कर रहे हैं और केंद्र और राज्य सरकारों पर भयंकर गुस्से से भरे हुए हैं। तमाम लुभावने वादे और दावे करके सत्ता हासिल करने वाली भारतीय जनता पार्टी की केंद्र और कई राज्यों की डबल इंजन सरकारों ने भारत के Gen-Z के सामने रास्ता ही क्या छोड़ा?

सत्ता के नशे में चूर अघोषित तानाशाही थोपने वाली सरकारों ने एक तरफ़ अपने बच्चों को विदेशी शिक्षण संस्थानों में पढ़ने भेज दिया। भारत में रह रहे नेता मंत्री पुत्र पुत्रियों को ऊंचे ऊंचे ओहदों पर बिठाया जा रहा है, प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से उन्हें सत्ता की पूरी मदद देकर उनके सुनहरे भविष्य का रास्ता साफ किया जा रहा है। इसमें अमित शाह के बेटे जय शाह, नितिन गडकरी के बेटों, शिवराज सिंह चौहान के बेटे या अन्य तमाम नेताओं की कुंडली खोली जाए तो यही पैटर्न देखने को मिलेगा। वहीं दूसरी तरफ देश के छात्र और युवा रात दिन घोर अभावों में दिन गुजारते हुए करियर का भयंकर प्रेशर झेलते हुए परीक्षाएं देते हैं और फिर आए दिन पेपरलीक और परीक्षाएं रद्द होने का सिलसिला लगभग पूरे देश में अलग अलग राज्यों में देखने को मिला। गोदी मीडिया मैनेजमेंट के बल पर युवाओं और बेरोजगारों की एक ऐसी बड़ी फौज तैयार की गई, जो मंदिर-मस्जिद, हिन्दू-मुस्लिम तथा गौ-हत्या के नाम पर आपस में ही लड़ती रहे। सोशल मीडिया पर जनता के जायज़ मुद्दे उठाने वालों को देशद्रोही, नक्सली या अर्बन नक्सल आदि कहने वाली ट्रोल आर्मी तैयार की गई। बेरोजगारी और ग़रीब जनता की रोजमर्रा की दिक्कतों से ध्यान हटाने की पूरी कोशिश की गई।

इस सबके बीच हमारे सामने क्या ऐतिहासिक जिम्मेदारी खड़ी है, इसे पहचानना चाहिए और लोगों के बीच जाकर एक बार फ़िर पूरी ताक़त से जनता के असली मुद्दों को उठाना चाहिए और एक सही क्रांतिकारी चेतना के पीछे उन्हें लामबंद करना चाहिए। भगत सिंह के विचार आज भी पूरी तरह प्रासंगिक हैं। साथ ही शंकर गुहा नियोगी की ट्रेड यूनियन आंदोलन में नए प्रयोगों को तथा संघर्ष और निर्माण की पद्धति को लेकर आगे बढ़ने की जरूरत है, जिसके तहत जनता सिर्फ सड़कों पर तथा फैक्ट्री-कारखाने के गेटों पर नारे ही नहीं लगाती बल्कि शोषण और लूट से थोड़ी राहत पाने और समाजवादी मूल्यों को व्यवहार में उतारते हुए नए संस्थानिक ढांचे भी खड़े करती चलती है।

तो आज के दिन हम यही कह सकते हैं कि आइए, सबसे पहले हम, भगत सिंह और शंकर गुहा नियोगी जैसे क्रांतिकारी शहीदों के जीवन संघर्ष और उनके विचारों को जानें-समझें, फिर जनता को भी जागरूक और लामबंद करते हुए समाज परिवर्तन की मुहिम को आगे बढ़ाएं।

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