नोटबंदी, जीएसटी और लाॅकडाउन के फायदा गिनाने वाला गोदी मीडिया अब किसान कानून के फायदे गिनाने में व्यस्त
सरकार की चाटुकारिता के लती गोदी मीडिया के लिए आन्दोलनकारी आतंकवादी हो जाते हैं, उनके पास एके 47 भी होता है, वे खालिस्तान का झंडा भी उठाने लगते हैं और पाकिस्तान के एजेंट भी बन जाते हैं...
वरिष्ठ लेखक महेंद्र पांडेय की टिप्पणी
जनज्वार। वर्तमान की केंद्र सरकार के काम का एक सेट पैटर्न है – पहले जनता पर कोई क़ानून या आदेश थोपा जाता है और फिर जब विरोध के स्वर उठते हैं तब प्रधानमंत्री की अगुवाई में पूरा सरकारी अमला इसके फायदे गिनाने में जुट जाता है। आज के दौर में सरकारी नीतियों के विरोध करने वालों के जितने जत्थे नहीं निकलते, उससे अधिक विरोध के बाद फायदे गिनाने वाले और आन्दोलनकारियों को आतंकवादी बताने वाले सरकारी जत्थे निकलते हैं।
पहले नोटबंदी लागू की गई, फिर प्रधानमंत्री इसके काल्पनिक फायदे गिनाते रहे। कश्मीर का विभाजन कर दिया गया, अनुच्छेद 370 हटा लिया गया और जब पूरा कश्मीर सेना के हवाले कर दिया गया तब फिर प्रधानमंत्री की अगुवाई में तमाम मंत्री कश्मीर के विकास पर लच्छेदार भाषण देने लगे, हालांकि यह विकास आज तक दिखा नहीं है। यही हाल नागरिकता संशोधन क़ानून का किया गया।
तीन कृषि क़ानून आनन-फानन में संसद से अनुमोदित हो गए, इसके बाद जब किसानों का जत्था विरोध की आवाज बुलंद कर दिल्ली की तरफ बढ़ रहा था, तब प्रधानमंत्री और सरकारी अमले को अचानक इसके फायदे गिनाने का ध्यान आया। अब, कोविड 19 के टीकाकरण अभियान के साथ यही किया जा रहा है। इस अभियान के शुरू होने के लगभग 10 दिनों बाद स्वास्थ्य मंत्रालय और दूसरे सम्बन्धित विभाग इसके फायदे बताने के लिए पोस्टर तैयार कर रहे हैं।
अर्थशास्त्र और समाजशास्त्र में बताया जाता है कि आबादी अमीर और गरीब होती है। ऐसा हमारे देश में भी है। गरीबी के भी अनेक स्वरुप होते हैं – अनाज की गरीबी, बेरोजगारी की गरीबी, सर्दियों में कपडे की गरीबी, शिक्षा की गरीबी, स्वास्थ्य की गरीबी, सैनिटरी नेपकिन की गरीबी। इन सब गरीबी से उबरने के लिए अनेक सिद्धांत हैं और उपाय भी हैं, पर यदि किसी देश का पूरा सरकारी अमला, लगभग पूरा मीडिया और लगभग आधी आबादी वैचारिक गरीबी या फिर दरिद्रता का शिकार हो जाए तो फिर इसका उपाय न तो समाजशास्त्र बताता है और न ही अर्थशास्त्र।
हमारा देश आज के दौर में इसी वैचारिक दरिद्रता का शिकार है। यह दरिद्रता इस हद तक पहुँच गई है कि प्रधानमंत्री और सरकार को यह महसूस होने लगा है कि किसी भी क्षेत्र में वास्तविक विशेषज्ञों की सलाह के बिना भी प्रधानमंत्री और कुछ चुनिन्दा मंत्रियों के पास देश और दुनिया की हरेक समस्या का हल है।
दुनिया के लगभग सभी लोकतांत्रिक देश किसी क़ानून या आदेश को लागू करने से पहले सम्बंधित विशेषज्ञों से विचार-विमर्श करते हैं, फिर विभिन्न माध्यमों से जनता की राय लेते है, इसके बाद ही क़ानून बनाते हैं। क़ानून बनाकर फिर उसे जनता के बीच रखा जाता है, जिससे जनता को क़ानून लागू करने के पहले ही पर्याप्त सम्बंधित जानकारी हो। हमारे देश में सबकुछ गोपनीय होता है। इतना गोपनीय रखा जाता है कि विशेषज्ञों, विपक्ष और जनता को ही नहीं बल्कि अनेक मंत्रियों को भी नए क़ानून या आदेश की भनक तब लगती है, जब उसे लागू कर दिया जाता है। इसके बाद मीडिया और देश की आधी आबादी नए क़ानून को पढ़े बिना ही इसके प्रचार और प्रसार में जुट जाती है।
सरकार के इसी वैचारिक गरीबी से उपजे अतिवादी आत्मविश्वास ने पिछले 6 वर्षों में एक नया ट्रेंड पैदा कर दिया है। यह ट्रेंड है – जब एक समस्या पर जनता चर्चा करने लगे तब उस समस्या का समाधान खोजने के बजाय पहले से भी बड़ी एक नई समस्या खड़ी कर देना। जब तक जनता दूसरी समस्या के प्रति आवाज उठाती है, तब तक तीसरी नई समस्या सिर पर डाल दी जाती है। जब आप वैचारिक गरीबी से ग्रस्त होते है तभी आप हिंसक भी होते हैं और जनता से दूर भी। हिंसा के भी अनेक स्वरुप है।
पिछले 6 वर्षों से प्रधानमंत्री समेत तमाम मंत्रियों और बीजेपी के नेताओं ने जिस भाषा का इस्तेमाल किया है, वह आक्रामक नहीं बल्कि हिंसक है। हिंसक भाषा का इस्तेमाल तभी किया जाता है, जब आप अन्दर से महसूस करते हैं कि आप वैचारिक स्तर पर कमजोर हैं, और तर्कविहीन भी। समाज में सबकुछ एक चेन रिएक्शन की तरह होता है। हिंसक भाषा समर्थकों को हिंसक बनती है और समाज ऐसा ही होता जा रहा है। कहीं भी कोई अख़लाक़, कोई तबरेज और कोई युसूफ मारा जा सकता है।
दुनिया में चीन और रूस जैसे साम्यवादी देशों में भी पूरा मीडिया ऐसी वैचारिक दरिद्रता का शिकार नहीं है, जैसा इस दौर में हमारे देश में है। किसी भी लोकतांत्रिक व्यवस्था में सरकार की जनता से जुडी नीतियों का आंकड़ों और प्रमाणों के साथ विरोध तो मीडिया का अधिकार और कर्तव्य भी है। मीडिया के इसी कर्तव्य ने अमेरिका में प्रजातंत्र को वापस खड़ा कर दिया। पर, हमारे देश का मीडिया तो खबरविहीन हो गया है, तथ्यविहीन हो गया है।
सरकार की चाटुकारिता की ऐसी लत भारतीय मीडिया को लग चुकी है कि जनता से जुड़े समाचार के बदले दिनभर मीडिया आम जनता के विरुद्ध समाचार गढ़ने लगा है। आन्दोलनकारी आतंकवादी हो जाते हैं, उनके पास एके 47 भी होता है, वे खालिस्तान का झंडा भी उठाने लगते हैं और पाकिस्तान के एजेंट भी बन जाते हैं।
दूसरी तरफ बीजेपी नेताओं और मंत्रियों के ऑन-कैमरा गोली मारो, बदला लेंगे, पाकिस्तान भेज देंगें, हम देख लेंगें, गर्दन काट देंगें, आँखे फोड़ देंगें, रेप कर देंगे जैसे नारे मीडिया कभी नहीं दिखाता। फिर ऐसे ही समाचार देखकर हमारे नेता ठीक ऐसा ही वक्तव्य देते है। इसके बाद हंगामा होने पर अचानक से सेंसेक्स नई उचाईयों पर पहुँच जाता है, पाकिस्तान की तरफ से गोलियां चलने लगती हैं और इसी बीच एक नया और वीभत्स समाचार ब्रेकिंग न्यूज़ के तौर पर चलने लगता है।
ध्यान से देखिये तो पता चलेगा कि आज के दौर में देश में वैचारिक गरीबी से ग्रस्त जो नहीं हैं, वे सभी आन्दोलन कर रहे हैं, सरकार की नीतियों को परख रहे हैं और सरकार के विरुद्ध कुछ कहने का साहस कर पा रहे हैं। वैचारिक तौर पर जब आप सजग रहते हैं तभी निडर भी होते हैं और कुछ कर गुजरने का माद्दा भी रखते हैं। आजकल वैचारिक सजगता का और वैचारिक दरिद्रता का उदाहरण तो रोज ही सामने आ रहा है।
वैचारिक तौर पर सजग किसान अपनी बात दोटूक सामने रख रहे हैं, अपने मुद्दे पर अडिग हैं और अपने शहीद साथियों के बलिदान को पूरी इज्जत दे रहे हैं। दूसरी तरफ वैचारिक तौर पर दरिद्र सरकार है, जिसने जिन कानूनों के अनगिनत फायदे कुछ दिन पहले तक गिनाये थे, अब उन कानूनों को होल्ड करने का आश्वासन दे रही है, उनमें संशोधन का प्रस्ताव दे रही है और दूसरे प्रलोभन दे रही है।
सर्वोच्च न्यायालय को आन्दोलनकारी बुजुर्गों और महिलाओं की चिंता सता रही है। दरअसल किसान आन्दोलन अनोखा है और इसे समझना वैचारिक गरीबी के शिकार लोगों के लिए असंभव है। अनेक राज्यों और संगठनों के प्रतिनिधित्व होने के बाद भी सभी किसान आन्दोलनकारी अपने घरों से दूर होने के बाद भी आपस में एक समाज की तरह जुड़े हैं और यही इस आन्दोलन की सबसे बड़ी ताकत भी है।
इस समाज में केवल युवा ही नहीं हैं और न ही केवल पुरुष हैं, इस नए समाज में बच्चे, युवा, बुजुर्ग, महिलायें सभी शामिल हैं और सभी अपनी भूमिका बखूबी निभा रहे हैं और यही इस आन्दोलन को नई ऊर्जा देता है। यह समाज राम और रहीम को बांटने वाला समाज नहीं है और इसमें खुले मन से विचारों का आदान-प्रदान किया जा रहा है।
सबसे बड़ी बात यह है कि हरेक आन्दोलनकारी किसान और उसका परिवार केवल दिखावा के लिए समर्थन नहीं दे रहा है, बल्कि हरेक व्यक्ति खेती से जुडी समस्या और तीनों कानूनों के बाद अपने भविष्य की चुनौतियों को भलीभांति जानता है।
किसानों के आन्दोलन ने सरकार और मीडिया के वैचारिक दरिद्रता को गंभीर चुनौती दी है, जिसका जवाब अब तक सरकार नहीं खोज पाई है। नागरिकता क़ानून के विरुद्ध चल रहे आन्दोलन को ख़त्म करने के लिए अचानक देशव्यापी लॉकडाउन लगाया गया था, कहीं किसान आन्दोलन को ख़त्म करने के लिए राष्ट्रीय सुरक्षा को मुद्दा तो नहीं बनाया जाएगा? एक वैचारिक दरिद्र सरकार से केवल जनविरोधी, तर्कहीन और बेतुके समाधान की ही उम्मीद कर सकते हैं।