सत्ताधारी नेताओं का विरोधियों के लिए सोशल मीडिया पर अशिष्ट भाषा के इस्तेमाल का बढ़ता चलन जनता पर छोड़ रहा नकारात्मक प्रभाव
भारत को छोड़कर किसी भी दूसरे देश की मेनस्ट्रीम मीडिया सत्ता में बैठे नेताओं के ऐसे हिंसक और भौंडे वक्तव्यों का महिमामंडन करते हुए दिनभर उसे जनता के बीच नहीं परोसती, वैसे भी हमारे देश में भूखी, बेरोजगार और गरीब जनता की खुशी आर्थिक समृद्धि में नहीं है बल्कि धर्म और मंदिरों में है...
महेंद्र पाण्डेय की टिप्पणी
Uncivil statements on opposition is widespread trend globally, but people show less interest in such comments. सत्ताधारी नेताओं द्वारा विपक्ष या विरोधियों पर क्रूर शाब्दिक हमले या फिर उन पर फब्तियां कसना आज के दौर में वैश्विक राजनीति की मुख्य धारा है। लगभग हरेक देश में यह देखने को मिलता है, पर हाल में ही एक नए अध्ययन से यह स्पष्ट होता है कि ऐसे वक्तव्य तत्काल तो तालियाँ बजवा सकते हैं, नारे लगवा सकते हैं, पर इनका दीर्घकालीन प्रभाव जनता पर नहीं होता है।
जनता ऐसे वक्तव्यों को जल्दी ही भूल जाती है। सोशल मीडिया पर तो ऐसे वक्तव्यों के बाद नए फॉलोवेर्स की संख्या में ही कमी आने लगती है। इस अध्ययन को यूनिवर्सिटी ऑफ़ टोरंटो में ओर्गनाईजेशनल बिहेवियर के असिस्टेंट प्रोफ़ेसर मैथ्यू फेंबेर्ग और यूनिवर्सिटी ऑफ़ विन्निपेग के प्रोफ़ेसर जेरेमी फ्रिमेर ने संयुक्त तौर पर किया है और इसे सोशल साइकोलॉजिकल एंड पर्सनालिटी साइंस नामक जर्नल में प्रकाशित किया गया है।
इस अध्ययन के लिए अमेरिका में सोशल मीडिया पर अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प और मौजूदा राष्ट्रपति जो बाईडेन के उन पोस्टों का चयन किया गया जो विपक्ष पर हिंसक या अभद्र वक्तव्य थे। इन दोनों ने जब भी ऐसे वक्तव्य पोस्ट किये, उनके नये फोलोवर्स की संख्या में कमी आई। इस अध्ययन के लिए डोनाल्ड ट्रम्प के वर्ष 2015 से 8 जनवरी 2021 के बीच 32000 ट्वीट का विस्तृत अध्ययन किया गया। 8 जनवरी 2021 के दिन से डोनाल्ड ट्रम्प को ट्विटर ने पूरी तरह से ब्लॉक कर दिया था। वर्ष 2015 में ट्रम्प के 30 लाख फॉलोवर्स थे, पर जनवरी 2021 तक यह संख्या 8 करोड़ 90 लाख तक पहुँच गयी थी। अध्ययन से यह स्पष्ट हुआ कि ट्रम्प ने जब भी शिष्ट ट्वीट किये तब उसके बाद उनके औसतन 43000 नए फोलोवर्स बने, जबकि क्रूर हिंसक भाषा या फब्तियों वाले ट्वीट के बाद उनके नए फोलोवर्स की औसत संख्या 16000 पर सिमट गयी।
ट्वीट में शिष्ट और हिंसक भाषा का आकलन मशीन लर्निंग सिस्टम से किया गया था। जो बाईडेन के वर्ष 2012 से जून 2021 के बीच किये गए 7000 ट्वीट का आकलन किया गया। वर्ष 2012 में जो बाईडेन के 50 लाख फोलोवर्स थे, जिनकी संख्या वर्ष 2021 तक 3 करोड़ 20 लाख तक पहुँच गयी थी। इनके शिष्ट ट्वीट के वाद औसतन 45000 नए फोलोवर्स बने, जबकि अशिष्ट ट्वीट के बाद नए फोलोवर्स की औसत संख्या 11000 ही रह गयी। प्रोफ़ेसर मैथ्यू फेंबेर्ग के अनुसार जो बाईडेन द्वारा किये गए अशिष्ट ट्वीट के बाद नए फोलोवर्स की संख्या में तेजी से कमी का एक बड़ा कारण यह भी है कि जो बाईडेन से जनता अशिष्ट और अमर्यादित शब्दों की उम्मीद नहीं करती।
इन्ही वैज्ञानिकों द्वारा किये गए एक दूसरे अध्ययन में 2000 चुनिन्दा लोगों से नेताओं द्वारा विपक्ष के लिए क्रूर हिंसक भाषा या फब्तियों वाली भाषा के उपयोग पर उनके विचार मांगे गए थे और यह भी पूछा गया था कि ऐसे नेताओं को आप राजनैतिक समर्थन देंगें या नहीं। इसमें से अधिकतर प्रतिभागियों ने बताया कि वे ऐसे किसी नेता का समर्थन नहीं कर सकते, जिसकी भाषा शिष्ट नहीं हो।
इस अध्ययन में अमेरिका के राजनीतिक दलों के कुछ समर्थक भी थे, इन्होने भी अपने दल के नेताओं के अशिष्ट वक्तव्यों की भी आलोचना की। एक अन्य अध्ययन के अनुसार अधिकतर जनता अशिष्ट भाषा का प्रयोग करने वाले नेताओं को नैतिक समर्थन नहीं देती है।
अमेरिका में किये गए इन अध्ययनों से दूर हटकर यदि हम अपने देश की बात करें तो यहाँ राजनीतिक माहौल के साथ ही मेनस्ट्रीम टीवी समाचार चैनलों पर क्रूर हिंसक और समाज को विभाजित करने वाली भाषा का ही वर्चस्व है। हमारे देश की सत्ता में बैठे लोगों की यही राष्ट्रीय भाषा है और सत्ता पर जब भी नाकामी के प्रश्न उठते है तब उनके जवाब के बदले हिंसक भाषा और उग्र हो जाती है। इसके बाद भी जनता के समर्थन में कोई कमी नहीं आती है।
सवाल यह उठता है कि अमेरिका में किये गए अध्ययन के निष्कर्ष क्या भारत में अमान्य हैं? यहाँ यह समझना आवश्यक है कि भारत को छोड़कर किसी भी दूसरे देश की मेनस्ट्रीम मीडिया सत्ता में बैठे नेताओं के ऐसे हिंसक और भौंडे वक्तव्यों का महिमामंडन करते हुए दिनभर उसे जनता के बीच नहीं परोसती। वैसे भी हमारे देश में भूखी, बेरोजगार और गरीब जनता की खुशी आर्थिक समृद्धि में नहीं है बल्कि धर्म और मंदिरों में है।