कर्नाटक की जनता ने PM मोदी को बता दिया हिन्दुत्व और देवी-देवता के भरोसे नहीं मिलते वोट, BJP के ‘कुशासन’ से ऊबकर कांग्रेस पर खेला है दांव

Karnataka Election Result : कर्नाटक में पिछले ही साल से धार्मिक आधार पर हिन्दू वोटों के ध्रुवीकरण के प्रयास में बीजेपी लगी थी। हलाला, हिजाब और अजान तक के मुद्दे कर्नाटक में गूंजते रहे। बीजेपी को उम्मीद थी कि इसके जरिए हिन्दू वोटों का ध्रुवीकरण करना आसान होगा...

Update: 2023-05-14 13:02 GMT

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रामस्वरूप मंत्री की टिप्पणी

Karnataka Election Result : कर्नाटक में कांग्रेस की वापसी हो गई है। उसने सत्ताधारी बीजेपी को तगड़ी पटखनी दी है। कर्नाटक के मतदाताओं ने इस बार अपने स्पष्ट जनादेश के जरिए साफ कह दिया है कि उसे बीजेपी का शासन रास नहीं आया, इसलिए इस बार कांग्रेस को मौका दिया है। 224 सीटों वाली विधानसभा में कांग्रेस अकेले दम पर बहुमत के जादुई आंकड़े 123 से भी करीब 12 सीट आगे निकल गई है। इस कारण उसे सरकार गठन में कोई दिक्कत नहीं होगी।

दूसरी तरफ बीजेपी करीब 65 सीटों पर सिमटकर समझ गई होगी कि उसे कर्नाटक के मतदताओं ने सिरे से नकार दिया है, इसलिए विपक्ष में बैठना ही पड़ेगा। जेडीएस जरूर किंगमेकर बनने का ख्वाब देख रही होगी, जिस पर पूरी पानी फिर गया है। कुल मिलाकर कर्नाटक चुनाव के निहितार्थ यही हैं कि कांग्रेस अंदरूनी कलहों से उबरकर सरकार बनाए और खुद को साबित करे कि जनता ने उसे चुनकर सही फैसला किया है। कर्नाटक सरकार की नीतियों के जरिए कांग्रेस पूरे देश को अपनी भविष्य की राजनीति से रू-ब-रू करवा सकती है।

तकरीबन साढ़े तीन दशक के इतिहास में हर बार ऐसा ही हुआ है, जब कोई सरकार सरकार अगली बार सत्ता में न लौटी हो। दूसरी बात यह रही है कि जब-जब मतदान बढ़ा, कर्नाटक में सत्ता परिवर्तन हुआ। अब तक 8 बार हुए असेंबली इलेक्शन में कम से कम 7 बार तो ऐसा ही देखने को मिला है, लेकिन इसे विश्लेषण का पैमाना बनाना उचित नहीं होगा। भाजपा को स्वीकार करना होगा कि उससे कहीं न कहीं चूक हुई है। उसके आजमाए नुस्खे अब कारगर नहीं रहे। खासकर अहिन्दी भाषी प्रदेशों में। अगले साल लोकसभा का चुनाव होना है। कर्नाटक चुनाव को लोग लोकसभा चुनाव के पूर्वाभ्यास के तौर पर देख रहे थे। लोकसभा की देशव्यापी जंग के लिए बीजेपी को कर्नाटक में जीतना जरूरी था, पर ऐसा नहीं हुआ। संभव है कि बीजेपी अब अपनी रणनीति में परिवर्तन करे।

कर्नाटक में पिछले ही साल से धार्मिक आधार पर हिन्दू वोटों के ध्रुवीकरण के प्रयास में बीजेपी लगी थी। हलाला, हिजाब और अजान तक के मुद्दे कर्नाटक में गूंजते रहे। बीजेपी को उम्मीद थी कि इसके जरिए हिन्दू वोटों का ध्रुवीकरण करना आसान होगा। आखिरी वक्त में तो ऐसा लगा कि चुनाव के मूल मुद्दे अब कोई मायने नहीं रखते। धार्मिक ध्रुवीकरण में बजरंगबली की भी एंट्री कांग्रेस और बीजेपी ने करा दी। कांग्रेस ने बीजेपी की हिन्दू ध्रुवीकरण की चाल को विफल करने के लिए बजरंग दल पर बैन लगाने का वादा किया। बीजेपी ने इसे अपने पक्ष में भुनाने के लिए बजरंग बली का नारा उछाल दिया। बीजेपी ने ऐसा कर कांग्रेस को हिन्दू विरोधी बताने की कोशिश की। अब परिणामों से साफ हो गया है कि अहिन्दी भाषी प्रदेशों में देवी-देवता, मंदिर-मस्जिद और हिन्दू-मुस्लिम के बल पर चुनावी वैतरणी पार करना संभव नहीं। कर्नाटक से पहले पश्चिम बंगाल में भी बीजेपी ने जय श्रीराम का नारा देकर मैदान फतह की कल्पना की थी। वहां भी बीजेपी को कामयाबी नहीं मिली।

पुराने चेहरों को बदल कर नये चेहरे चुनाव में उतारने का प्रयोग बीजेपी ने गुजरात से शुरू किया था। गुजरात में इससे मिली कामयाबी को बीजेपी ने एक अस्त्र मान लिया था। अपने इस परखे प्रयोग को बीजेपी ने कर्नाटक में दोहराया। लगभग 70 नये चेहरों को पार्टी ने टिकट दिया, पर गुजरात का सफल प्रयोग कर्नाटक में विफल हो गया। बीजेपी ने अपने कई कद्दावर नेताओं को भी इस प्रयोग में बलि चढ़ा दी। कर्नाटक में बीजेपी को जमीन मुहैया कराने वाले पूर्व सीएम बीएस येदियुरप्पा को इस बार के चुनाव में किनारे कर दिया गया। एक और पूर्व सीएम जगदीश शेट्टार और पूर्व डिप्टी सीएम लक्ष्मण सावदी को भी बीजेपी ने टिकट से वंचित कर दिया। शेट्टार और सावदी नाराज होकर कांग्रेस के साथ हो गए। येदियुरप्पाए शेट्टार और सावदी लिंगायत समुदाय के बड़े नेताओं में शुमार किए जाते हैं। बीजेपी से बिछड़े तीनों ने कांग्रेस की पैठ लिंगायत समाज भी करा दी। इसी लिंगायत कम्युनिटी की वजह से 2018 के असेंबली इलेक्शन में बीजेपी को खासा सीटें मिली थीं।

साल 2014 के लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी के नाम पर वोटर टूट पड़े थे। उसके बाद मोदी के बारे में यह आम धारणा बन गई कि बीजेपी को कहीं भी किसी चुनाव में जीत दिलाने का माद्दा नरेंद्र मोदी में है। 2014 के बाद से देश में अधिकतर विधानसभाओं के चुनाव मोदी के नाम पर ही लड़े गए। हालांकि पश्चिम बंगाल में नरेंद्र मोदी के बारे में बनी यह धारणा ममता बनर्जी ने ध्वस्त कर दी थी। कर्नाटक में भी मोदी से लोगों को किसी करिश्मा की उम्मीद थी। मोदी ने कर्नाटक में तूफानी दौरे किए। अनगिनत रैलियां कीं, लेकिन सब बेअसर रहा। इसका संदेश साफ है कि अब मोदी का चेहरा करिश्माई नहीं रह गया है। यह जरूर है कि उनके नाम पर कुछ वोट जरूर मिलते होंगे, लेकिन विधानसभा चुनावों में उनके नाम का सिक्का अब नहीं चलने वाला।

पीएम मोदी ने कर्नाटक में 25 चुनावी कार्यक्रम किए, जिनमें रैली, जनसभा और रोड शो शामिल थे। इसके बावजूद बीजेपी सत्ता से दूर रही। 2018 में वह सबसे बड़ी पार्टी थी, लेकिन सरकार बनाने के लिए उसे जेडीएस से गंठजोड़ करना पड़ा था। इस बार तो उतनी भी संख्या नहीं मिली, जिसमें जोड़.तोड़ से सरकार की गुंजाइश बने।

यह तो सभी जानते हैं कि मुस्लिम वोटर नरेंद्र मोदी के कारण बीजेपी से सटना नहीं चाहते। यह भी सच है कि हिन्दू वोटों का ध्रुवीकरण आसान काम नहीं। भले ही यह कोशिश राम, कृष्ण, शिव, दुर्गा या बजरंगबली के नाम पर की जाए। या फिर मंदिरों के निर्माण के जरिये इसकी कोशिश हो। जनता की अपनी समस्याएं हैं, जिनका निपटारा सही ढंग से होता रहे तो देवी-देवता या हिन्दू वोटों के ध्रुवीकरण की जरूरत ही नहीं पड़ेगी।

कर्नाटक में बीजेपी की हार के पीछे भ्रष्टाचार का का भी अहम रोल रहा। कांग्रेस ने शुरू से ही बीजेपी के खिलाफ करप्शन का एजेंडा सेट कर दिया था। करप्शन के मुद्दे पर ही एस. ईश्वरप्पा को मंत्री पद छोड़ना पड़ा था। बीजेपी के एक विधायक को तो जेल जाना पड़ा। स्टेट कांट्रैक्टर एसोसिएशन ने पीएम तक से करप्शन-कमीशन की शिकायत की थी। बीजेपी वोटरों को करप्शन मुक्त कर्नाटक का भरोसा नहीं दिला पाई। नतीजा सामने है।

कांग्रेस पार्टी ने चुनाव प्रचार के दौरान जो.जो बातें कहीं थीं, उनमें कुछ भारतीय लोकतंत्र के भविष्य के लिहाज से ठीक नहीं जान पड़ती हैं। लेकिन ये भी सच है कि चुनाव जीतने के लिए थोड़ा इधर-उधर की बातें करने की मजबूरी भी होती है। अगर ऐसा है तब तो ठीक, वरना कांग्रेस ने अगर एक खास समुदाय के तुष्टीकरण पर जोर दिया या विभिन्न मुद्दों पर अलगाववादी भावनाओं को बढ़ाया तो यह कांग्रेस ही नहीं, प्रदेश और देश के लिए ठीक नहीं होगा। कौन नहीं जानता है कि बजरंग दल को पीएफआई के समकक्ष खड़ा कर देना बिल्कुल निराधार और मुस्लिम तुष्टीकरण का सबूत है?

जिस तरह कांग्रेस की पूर्व अध्यक्ष सोनिया गांधी ने कर्नाटक की संप्रभुता का ख्याल रखने का आश्वासन दिया, उसका संदेश कौन नहीं समझ रहा है? ये अलग बात है कि बीजेपी और खासकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इन दोनों मुद्दों को बहुत जोर-शोर से उठाया और अब स्पष्ट है कि कर्नाटक के मतदाताओं ने उनकी बात नहीं मानी। इसका यह कतई मतलब नहीं कि कांग्रेस पार्टी सत्ता में आने के बाद इन्हीं रास्तों पर कदम बढ़ाए। ऐसा हुआ तो निश्चित तौर पर देश की सबसे पुरानी पार्टी पर मुस्लिम तुष्टीकरण के जरिए समाज में खाई पैदा करने के आरोप और गहरे होंगे।

कांग्रेस पार्टी को प्रचंड जीत के नशे में कर्नाटक के साथ-साथ देश की जमीनी सच्चाइयों से बेखबर नहीं होना चाहिए। पार्टी ने कर्नाटक चुनावों में स्थानीय मुद्दों का चयन करके अपनी सूझबूझ दिखाई है। उसके सामने चुनौती यह है कि सरकार बनने के बाद भी अपना ध्यान उन्हीं मुद्दों पर केंद्रित रखे, न कि तुष्टीकरण या अलगाववाद को हवा दे। निश्चित तौर पर कांग्रेसी की सत्ता में वापसी से कर्नाटक में एक समुदाय का कट्टरपंथी तबका अपने एजेंडे को आगे बढ़ाने की पुरजोर कोशिश करेगा। उसे खुश करने के चक्कर में कांग्रेस पार्टी हिंदुओं के प्रति संवेदनहीनता का परिचय भी दे सकती है। कर्नाटक के एक बड़े वर्ग को यह खतरा तो जरूर सता रहा होगा। नई सरकार को इस्लामी कट्टरपंथियों के नापाक मंसूबों को धता बताकर हिंदुओं के संदेहों को दूर करना होगा।

कर्नाटक चुनाव में कांग्रेस पार्टी ने कई लोकलुभावन वादे किए थे। उसे ध्यान रखना चाहिए कि प्रदेश की अर्थव्यवस्था को नुकसान पहुंचाने वाली लोकलुभावन नीतियां लागू करके वह देश के बाकी हिस्सों में अच्छा संदेश नहीं दे पाएगी। गरीबों और जरूरतमंदों का कल्याण तो हर सरकार का प्राथमिक दायित्व है, लेकिन वोट बैंक की राजनीति के लिए सरकारी खजाने से खिलवाड़ देश-प्रदेश की आर्थिक सेहत के लिए काफी खतरनाक साबित होगा।

देश-दुनिया के बड़े.बड़े अर्थशास्त्री इन दिनों सत्ता पाने की व्याकुलता में अनाप.शनाप नीतियां बनाने पर चिंता जाहिर कर रहे हैं। इसलिए कांग्रेस पार्टी को कांग्रेस में जमीनी स्तर पर काम करके प्रदेश को प्रगति पथ पर अग्रसर करना होगा। आखिर वहां के वोटरों ने इसी उम्मीद में तो बीजेपी को सत्ता से हटाया है। कांग्रेस के सामने चुनौती है कि वो आकर्षक मुद्दों के जाल में न फंसकर भ्रष्टाचार, बेरोजगारी और महिला सशक्तीकरण की बाधाओं समेत तमाम आधारभूत समस्याएं दूर करने पर गंभीरता से काम करे

कांग्रेस नेताओं ने खुद को सबसे शुद्ध कांग्रेसी साबित करने के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर व्यक्तिगत हमले करने की अजीब सी आदत पाल ली है। व्यापक तौर पर यह कांग्रेस पार्टी को नुकसान ही पहुंचाती रही है। राष्ट्रीय राजनीति, संसद सत्र से लेकर कर्नाटक चुनाव प्रचार तक कांग्रेस नेता पीएम मोदी के लिए एक से बढ़कर एक कड़वे शब्दों का इस्तेमाल करते रहे हैं। यहां तक कि कर्नाटक चुनाव प्रचार में खुद कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने प्रधानमंत्री को जहरीला सांप बता दिया। गांधी परिवार की तरफ से रह-रहकर आते बयानों से भी ऐसा लगता है कि उनकी पीएम मोदी से खास अदावत है। राजनीति में व्यक्ति या परिवार हित साधने में पार्टी हित की बली चढ़ाना नादानी नहीं तो और क्या है?

कांग्रेस पार्टी लेफ्ट-लिबरल इकोसिस्टम को मजबूत करने की जद्दोजहद में जुटी दिख रही है। पार्टी के शीर्ष नेतृत्व को इस सवाल पर गंभीरता से मंथन करना चाहिए कि कर्नाटक में उसकी जीत के पीछे लेफ्ट-लिबरल इकोसिस्टम का रत्तीभर भी योगदान है क्या? उसे इस तरह भी सोचना चाहिए कि क्या कर्नाटक में उसे बंपर जीत मिलने के पीछे वहां चुनाव प्रचार में लेफ्ट-लिबरल इकोसिस्टम की गैर-मौजूदगी तो वजह नहीं? अगर इन दोनों सवालों का जवाब हां है तो कांग्रेस पार्टी को इसी ढर्रे पर चलकर आगे के चुनावों का सामना करना चाहिए। लेफ्ट-लिबरल गैंग के आगोश में आकर कांग्रेस पार्टी का मूल चरित्र धुंधला हो चुका है। इस कारण देश का एक बड़ा वर्ग जो मुस्लिम तुष्टीकरण से असहज है, कांग्रेस से बहुत दूर हो गया।

लेफ्ट-लिबरल इकोसिस्टम की तर्ज पर सारी लड़ाई सोशल मीडिया पर लड़ने के बजाय राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा का दांव सफलता दिला सकता है, कर्नाटक की जीत में इसकी भी उम्मीद तो जग ही गई है। अगर कांग्रेस पार्टी देश की बदलती परिस्थितियों में जनता के बदलते मिजाज, उनकी बदलती आकांक्षाओं को समझने में कामयाब होती है तो संभव है कि कर्नाटक जैसी जीत उसे आगे भी नसीब होती रहे। देखना होगा कि कर्नाटक की जीत को कांग्रेस पार्टी किस तरह देखती है, उसे इस जीत की बड़ी वजहें क्या समझ आती हैं? पार्टी की चुनावी रणनीति ही नहीं, सामान्य राजनीति भी इसी पर निर्धारित होगी कि उसने कर्नाटक में जीत का श्रेय तुष्टीकरण और लोकलुभावन वादों को देगी या बीजेपी शासन की खामियों से ऊबी जनता को। अगर कांग्रेस ने जनता के दिल की नहीं सुनकर अपने घिसी-पिटी राजनीति को आगे बढ़ाने का फैसला किया तो निश्चित रूप से यह न सिर्फ देश की सबसे पुरानी पार्टी बल्कि पूरी विपक्षी राजनीति के लिए निराशाजनक होगा, जिसका असर भारत में लोकतंत्र के भविष्य पर भी पड़ना लाजिमी है।

कर्नाटक में बीजेपी की हार के पीछे भ्रष्टाचार का का भी अहम रोल रहा। कांग्रेस ने शुरू से ही बीजेपी के खिलाफ करप्शन का एजेंडा सेट कर दिया था। करप्शन के मुद्दे पर ही एस. ईश्वरप्पा को मंत्री पद छोड़ना पड़ा था। बीजेपी के एक विधायक को तो जेल जाना पड़ा। स्टेट कांट्रैक्टर एसोसिएशन ने पीएम तक से करप्शन.कमीशन की शिकायत की थी। बीजेपी वोटरों को करप्शन मुक्त कर्नाटक का भरोसा नहीं दिला पाई। नतीजा सामने है।

(लेखक इंदौर के वरिष्ठ पत्रकार और सोशलिस्ट पार्टी इंडिया की मध्य प्रदेश इकाई के अध्यक्ष हैं और यह उनके अपने निजी विचार हैं।)

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