मोदी की 'नोटबंदी' को याद कर लीजिए फिर समझ में आ जाएगी किसान विधेयक की हकीकत

याद कीजिये वर्ष 2016 में किन सब्जबागों के साथ नोटबंदी का ऐलान किया गया था, प्रधानमंत्री ने अपने भाषण में बताया था कि बस पचास दिनों की बात है, उसके बाद तो बस स्वर्णिम भविष्य है....

Update: 2020-12-21 07:25 GMT

वरिष्ठ पत्रकार महेंद्र पाण्डेय का विश्लेषण

सर्वोच्च न्यायालय लगातार आंदोलन और विरोध को जनता संवैधानिक अधिकार बताता रहा है, पर इसी संवैधानिक अधिकार की आस में अब तक 30 आंदोलनकारी किसानों की मौत हो चुकी है। इसके बाद भी किसानों का तथाकथित भला करने का लगातार ऐलान करने वाली सरकार की प्रतिबद्धता तो देखिये-कृषि मंत्री किसानों को पत्र लिख रहे हैं, गृह मंत्री पश्चिम बंगाल को रविंद्रनाथ टैगोर के सपनों जैसा बना रहे हैं और जिस प्रधानमंत्री को गुरु नानक देव जी के प्रकाश पर्व के दिन लेजर शो पर थिरकने से और गंगा घाटों पर दीयों को जलाने से फुर्सत नहीं थी, वही प्रधानमंत्री जी सज-संवर कर और पगड़ी धारण कर दिल्ली के रकाबगंज गुरुद्वारा में मत्था टेक रहे थे।

यह कोई पहला मौका नहीं हैं जब इस सरकार की नीतियों के कारण लोग मर रहे हैं, बल्कि इस सरकार का सही इतिहास जब भी लिखा जाएगा तब उसमें इस तथ्य का जिक्र जरूर आएगा कि किसी भी लोकतांत्रिक देश में केवल सरकारी नीतियों के कारण सबसे अधिक लोगों की मौत इसी सरकार के दौर में दर्ज की गई थी।

याद कीजिये वर्ष 2016 में किन सब्जबागों के साथ नोटबंदी का ऐलान किया गया था। प्रधानमंत्री ने अपने भाषण में बताया था कि बस पचास दिनों की बात है, उसके बाद तो बस स्वर्णिम भविष्य है। नोटबंदी के लगभग 45 दिनों के भीतर ही लगभग 100 लोगों की मौत सदमें और लम्बी लाइन में खड़े होने के कारण हो गई थी। कुछ बैंक कर्मचारी भी अत्यधिक काम के बोझ से अपनी जान गवां बैठे थे। सरकार का रवैय्या हरेक ऐसे मौके पर एक ही रहता है – आकडे को छुपाना और दूसरे स्त्रोतों के आंकड़ों को सिरे से नकार देना।

नोटबंदी के कारण मौत के आंकड़ों को जानने का प्रयास अनेक आरटीआई एक्टिविस्ट ने किया, पर जवाब कभी नहीं मिला। अनेक जानकारों के अनुसार केवल नोटबंदी के कारण प्रत्यक्ष तौर पर 150 से अधिक लोगों की जान गई थी, और अप्रत्यक्ष तौर पर भूक और दावा नहीं खरीद पाने के कारण हजारों जानें गईं। सरकार जब आंकड़े नहीं जारी करती है, तो जाहिर है उसे इन मौतों का कोई अफ़सोस नहीं है।

5 अगस्त 2019 के दिन जम्मू और कश्मीर से अनुच्छेद 370 को हटा लेने के बाद से वहां की खबरें आनी बंद हो गईं हैं और निष्पक्ष मीडिया पर सरकारी पहरा लगा दिया गया है। पर, 15 सितम्बर 2020 को राज्यसभा में सरकार की तरफ से बताया गया कि इसके बाद पिछले वर्ष 71 नागरिक और 74 सुरक्षाकर्मी अपनी जान गवां चुके हैं। इन 71 नागरिकों में से 45 मौतें आतंकी गतिविधियों के दौरान और 26 सीजफायर के उल्लंघन के दौरान दर्ज की गईं हैं। इसी तरह 49 सुरक्षाकर्मी आतंकी गतिविधियों के दौरान और 25 सीजफायर के उल्लंघन के कारण जान गवां चुके हैं।

पिछले वर्ष अनुच्छेद 370 के हटाने के बाद से जम्मू और कश्मीर में 211 आतंकी घटनाएं दर्ज की गईं हैं। दूसरी तरफ जम्मू और कश्मीर में मानवाधिकार पर कार्यरत कोएलिशन ऑफ़ सिविल सोसाइटी के अनुसार सरकारी आंकड़े वहां के हालात की सही तस्वीर नहीं बताते, और मौत के आंकड़े बहुत अधिक हैं जिसमें बच्चे और महिलायें भी शामिल हैं।

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नागरिकता संशोधन क़ानून को पिछले वर्ष 11 दिसम्बर को लागू किया गया था और इसके बाद देशभर में इसका विरोध किया गया था, जिसमें फरवरी 2020 तक 69 लोगों की जान चली गई थी। मोदी सरकार लगातार किसानों और मजदूरों के भले की बात करती रही है, कतार के अंतिम आदमी के भले को जुमले की तरह इस्तेमाल करती रही है।

दूसरी तरफ नेशनल क्राइम रिकार्ड्स ब्यूरो के आंकड़ों के अनुसार वर्ष 2019 के दौरान देश में कुल 42480 मजदूरों और किसानों ने आत्महत्याएं कीं। इसमें 5563 पुरुष किसान, 394 महिला किसान, 3949 पुरुष खेतिहर मजदूर, 575 महिला खेतिहर मजदूर, 29092 पुरुष दिहाड़ी मजदूर और 3467 महिला दिहाड़ी मजदूरों की आत्महत्याएं सम्मिलित हैं। आत्महत्याओं का यह आंकड़ा वर्ष 2018 की तुलना में अधिक है।

वर्ष 2020 के मार्च में कोविड 19 के कारण अचानक लगे देशव्यापी लॉकडाउन को सरकार ने अपनी महान उपलब्धि बताया है। प्रधानमंत्री जी आज भी गर्व से बताते हैं कि यदि ऐसा नहीं किया होता तो पूरा देश ही कोविड 19 की चपेट में आ जाता। बिना किसी तैयारी के लगे लॉकडाउन के बाद शहरी श्रमिकों के पैदल अपने गाँव वापसी का मंजर पूरी दुनिया ने देखा था। करोड़ों लोग सैकड़ों किलोमीटर की यात्रा महिलाओं और बच्चों के साथ बिना किसी मदद के ही पूरी कर रहे थे। इसमें सैकड़ों लोगों ने रास्ते में ही दम तोडा। पर, सरकार के लिए इसमें दुखद कुछ नहीं था, और न ही सरकारी लापरवाही थी।

मोदी सरकार ने वर्ष 2014 से ही जितने भी बड़े कदम उठायें, उसमें से कोई भी ऐसा नहीं था जिसने लोगों की असामयिक जान नहीं ली हो। फिर भी सरकारी निरल्लज्जता का आलम देखिये, हरेक बार अंतिम आदमीं के उत्थान की बात की जाती है। सब देखकर यही लगता है कि मोदी सरकार अंतिम आदमी का खात्मा ही कर देगी, जैसे वर्त्तमान में किसानों का कर रही है।

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