1857 की क्रांति में जिस तरह मंगल पांडे की फांसी बनी थी टर्निंग प्वाइंट, वैसे ही टिकैत के आंसुओं ने दी किसान आंदोलन को नई ऊर्जा

किसान आंदोलन अब ले रहा है 1857 की क्रांति जैसा रूप, जिद्दी सरकार को बोलिविया जैसे छोटे देश ने झुका दिया था जिस तरह, ठीक वैसे ही हमारे अन्नदाता भी मोदी सरकार के खिलाफ डटकर संभाले हुए हैं मोर्चा....

Update: 2021-02-04 06:24 GMT

वरिष्ठ पत्रकार सुनील मौर्य का विश्लेषण

जनज्वार। किसानों का विरोध अब सिर्फ आंदोलन तक सीमित नहीं रहा। कुछ दिनों पहले तक इसका रूप आंदोलन जैसा जरूर था, लेकिन अब ये क्रांति का रूप ले रहा है। ठीक वैसे ही जैसे 1857 की क्रांति की शुरुआत हुई थी। फर्क इतना है कि उस समय हुकूमत अंग्रेजों की थी। अब आजाद भारत की जुबां बंद करने वालों की हुकूमत है। अंग्रेज हमारी हर बात को अनसूना कर देते थे। मनमानी करते थे। हमारी भावना, हमारा धर्म, हमारे आंसू उनके लिए कोई मायने नहीं थे।

आजादी के 73 साल बाद भी हमारी भावनाएं, हमारे धर्म और हमारे आंसुओं को कितनी आजादी है। ये सोचने वाली बात है। अगर कोई सवाल पूछता है तो उसे ही खामोश कर दिया जाता है। क्या सवाल पूछना देशद्रोह है? तो फिर प्रेस की आजादी में वैसे ही हम 180 में बहुत खराब 142वें रैंक पर हैं।

प्रेस की आजादी में हम खुश इस बात से हैं कि हम पड़ोसी देश पाकिस्तान ;रैंक.145द्ध से कुछ हद तक बेहतर जरूर हैं, लेकिन जिस तरह से सवाल पूछने वालों पर एफआईआर हो रही है और पत्रकार को जेल भेज दिया जा रहा है, वैसे में तो 180वें रैंक से भी नीचे का कोई रैंक दे देना चाहिए। 180वें रैंक पर अभी नॉर्थ कोरिया है, जहां के तानाशाह ने पत्रकारिता पर पूरी तरह से लगाम कस रखी है।

हमारे देश में सरकार के खिलाफ एक शब्द भी कोई न लिख सकता है और न सोशल मीडिया पर डाल सकता है। ऐसे में भारत में भी सवाल उठाने पर तमाम हथकंडे अपनाए जा रहे हैं, जो कहां तक सही है? किसी ने सही ही कहा है कि जब कलम की ताकत को रोका जाता है तो वहां बड़ी क्रांति होती है। अब आंदोलन फिर से क्रांति का रूप ले रहा है।

1857 की क्रांति और आज होने वाली क्रांति की समानताओं को ऐसे समझिए

1857 की क्रांति के बारे में आपने जरूर पढ़ा होगा। सुना होगा या फिल्म में भी देखा होगा। उन्हीं यादों को एक बार फिर से याद कर लीजिए। आखिर इस क्रांति की शुरुआत कैसे हुई थीघ् इसे लेकर कैप्टन राइट नाम के एक अंग्रेज ने रिपोर्ट बनाई थी। इस रिपोर्ट के मुताबिक, पश्चिम बंगाल के दमदम स्थित शस्त्रागार में काम करने वाले नीची जाति के एक खलासी ने जनवरी 1857 के तीसरे हफ्ते में एक ब्राह्मण सिपाही से पानी पिलाने को कहा था। उस वक्त ब्राह्मण सिपाही ने ये कहकर अपने लोटे से खलासी को पानी पिलाने से इनकार कर दिया था कि नीची जाति के छूने से उसका लोटा अपवित्र हो जाएगा।

इस पर शस्त्रागार फैक्ट्री में काम करने वाले खलासी ने हंसते हुए कहा था कि अब तुम्हारी जाति जल्द ही भ्रष्ट होने वाली है क्योंकि तुम्हे गाय और सुअर की चर्बी लगे कारतूसों को मुंह से खींचना पड़ेगा। अब ये रिपोर्ट कितनी सत्य है, इसकी प्रामणिकता आजतक नहीं मिल पाई, लेकिन जब ये अफवाह फैली तो फिर इसे रोक पाना मुश्किल हो गया। यही वजह है कि 29 मार्च 1857 को 34वीं नेटिव इन्फेंट्री के जवान मंगल पांडे ने ऐसे कारतूस के प्रयोग से साफ मना कर दिया था और फिर विद्रोह कर दिया था। आवाज उठाने वाले मंगल पांडे को तो अंग्रेजी हुकूमत ने 8 अप्रैल 1857 को फांसी दे दी लेकिन इनके हौंसले से जो आवाज उठी थी वो पूरे भारत में गूंज गई थी।

इसके बाद ही 24 अप्रैल 1857 को यूपी के मेरठ में तैनात घुड़सवार सैनिकों ने चर्बी लगे कारतूस के इस्तेमाल से साफ मना कर दिया था। उस दौरान विरोध करने वाले 99 सैनिकों में से 85 को अंग्रेज सरकार ने तुरंत बर्खास्त कर दिया था, जिसके बाद भारतीय सैनिकों ने अंधाधुंध फायरिंग कर दी थी। शस्त्रागार पर कब्जा कर लिया था। तोड़फोड़ की थी। 100 के करीब संख्या वाले सैनिकों ने 2 हजार से ज्यादा अंग्रेज सैनिकों को दौड़ा-दौड़ाकर पीटा था, जिसके बाद वे भागने पर मजबूर हो गए थे।

भारतीय सैनिक जब दिल्ली लालकिला की तरफ रवाना होने लगे, तब अंग्रेजों ने मेरठ से दिल्ली को जोड़ने वाली टेलीग्राफ लाइन काट दी थी, ताकि सैनिकों की सूचना मेरठ से दिल्ली तक न पहुंच सके और वो इस दौरान अपनी चाल चल सकें। इसमें काफी हद तक अंग्रेज सफल रहे और सैनिकों को कोई सही नेतृत्व नहीं मिल सका था। हालांकि, फिर भी सैनिकों ने सम्राट बहादुर शाह द्वितीय को जबरन शहंशाह-ए-हिंदुस्तान घोषित कर दिया था, ताकि वो आगे की लड़ाई लड़ सकें। इसके बाद ही ये लड़ाई धीरे.धीरे अवध यानी उत्तर प्रदेश के शहरों में पहुंचने लगी थी और विद्रोह बढ़ने लगा था।

अब करीब 163 साल बाद फिर से उसी लालकिला पर किसान भटकते हुए पहुंचे थे। हालांकि, कुछ उपद्रवी नेता भी थे जिन्होंने शांतिपूर्वक रैली को अराजक और अक्रामक बना दिया। इसके बाद जैसे अंग्रेजों ने टेलीग्राफ लाइन काट दी थी उसी तरह से अब इंटरनेट को ठप कर दिया गया। किसानों के आंदोलन का नेतृत्व करने वालों को दबाने का प्रयास किया गया। रातोंरात कुछ मीडिया और सोशल मीडिया के जरिए माहौल भी बनाया गया, लेकिन आखिरी मौके पर जिन भावनाओं ने 1857 क्रांति में खास योगदान दिया था, उसी तरह आज किसान नेता राकेश टिकैत की भावना ने पूरा माजरा ही बदल दिया।

राकेश टिकैत के आंसू को देखकर कदम पीछे खींच चुके किसानों में मानो फिर से नई ऊर्जा आ गई। नया जीवनदान मिल गया हो। जोश आ गया और जिन टेंट को उखाड़ने की बात कही जा रही थी वही टेंट अब हिमालय की तरह मजबूती से डट गए। लिहाजा, जो कल तक सिर्फ आंदोलन था अब वो क्रांति का रूप ले चुका है। क्रांति ऐसे ही नहीं होती...इसका रूप धीरे.धीरे बदलता है और आखिर में एक टर्निंग प्वाइंट होता है। 1857 क्रांति में मंगल पांडे का विरोध और फिर उन्हें फांसी पर चढ़ा देना भारतीय सैनिकों के लिए टर्निंग प्वाइंट बना था, तो अब किसानों के आंदोलन में राकेश टिकैत के वो आंसू क्रांति के लिए टर्निंग प्वाइंट बना है।

जनक्रांति के आगे सरकार झुकने को हो जाती है मजबूर, ये सीखिये सवा करोड़ की आबादी वाले बोलिविया जैसे देश से

जनक्रांति क्या होती है, ये कैसे बड़े-बड़े तानाशाह के टेंट को उखाड़ फेंकती है। अगर ये समझना है तो आपको साल 2000 में लैटिन अमेरिकी देश बोलिविया की घटना को समझना चाहिए। बोलिविया गरीब देश है। इस देश की आबादी सिर्फ 1.15 करोड़ है। यानी 20 करोड़ की आबादी वाला उत्तर प्रदेश ही बोलिविया से 20 गुना ज्यादा बड़ा है। इस देश के कोचबंबा शहर में वर्ष 2000 से ठीक पहले स्थानीय सरकार ने पानी सप्लाई का पूरा अधिकार एक प्राइवेट कंपनी को बेच दिया था। ये कंपनी बहुराष्ट्रीय कंपनी थी।

शुरू में इसने बेहतर पानी सप्लाई का प्रचार किया, लेकिन कुछ दिनों बाद ही पानी की कीमतों को 4 गुना बढ़ा दिया। अब यहां के लोगों के पानी का बिल 1000 रुपये से ज्यादा आने लगा, जबकि प्रति व्यक्ति औसत आमदनी सिर्फ 5000 रुपये थी। अब सोचिए कि कमाई का 20 प्रतिशत सिर्फ पानी में खर्च हो जाए तो खाना, रहना और स्वास्थ्य का क्या होता, इसलिए वहां के लोग धीरे.धीरे विरोध करने लगे। बोलिविया की सरकार भी कम नहीं थी। बहुत ही चालाकी से कुछ आंदोलनकारियों को समझाया और मौखिक आश्वासन देकर शांत करा दिया।

लोगों ने हड़ताल भी वापस ले ली, लेकिन प्राइवेट कंपनी फिर से वसूली करने लगी। इसलिए लोग फिर से सड़क पर उतरे। सरकार भी कम नहीं थी। लाठीचार्ज किया। बर्बरतापूर्वक दमन किया। मार्शल लॉ लागू कर दिया। इसके चलते छोटी-छोटी जगह आंदोलन करने वाले लोग अब क्रांति करने लगे। पूरे देश में विरोध होने लगा। सड़क पर ही लोग जुट गए। सरकार दमनकारी थी तो लोगों में देशभक्ति का जोश। आखिरकार सरकार को झुकना पड़ा। प्राइवेट कंपनी को देश छोड़कर ही भागना पड़ा। सरकार को सभी मांगें माननी पड़ी। पुराना कानून रद्द करना पड़ा। फिर से पानी सप्लाई के पुराने रेट लिए जाने लगे।

इस क्रांति को बोलिविया में आज भी जलयुद्ध के नाम से जाना जाता है। ठीक इसी तरह से कृषि कानून का विरोध अब भारत में क्रांति का रूप ले रहा है। सरकार आवाजें दबा रही है तो जो लोग अभी तक इसमें शामिल नहीं हो रहे थे अब वो भी जुड़ रहे हैं। यानी आंदोलन अब क्रांति का रूप ले रहा है। अब देखते हैं कि कब तक आवाजें दबाई जाती हैं, कब तक भावनाओं से खेला जाएगा और कब तक कोई दमनकारी बना रहेगा।

जब सवा करोड़ की आबादी अपना हक ले सकती है तो भारत में 130 करोड़ की आबादी है। और सबसे बड़ी बात कि लोगों में 1857 क्रांति वाला खून है। इस जोश के सामने अंग्रेज छोड़ने पर मजबूर हो गए तो ये तो अपने देश के ही लोग हैं। आखिर कब तक आवाज को दबा सकेंगे,,उम्मीद है जल्द वक्त बदलेगा।

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