यूएन-अमेरिका तालिबान से नहीं दिला सकते आज़ादी, अफ़ग़ानियों को ख़ुद मजबूती से लड़नी होगी अपनी लड़ाई
अमेरिका के क़ब्ज़े में मिली आज़ादी वैसी ही आज़ादी थी जैसी की ब्रिटिश काल में भारतीयों को मिली आज़ादी थी, अगर आपको लगता है कि पराधीनता में दोयम दर्ज़े का नागरिक बनने में ही ख़ुशी है तो फिर आप ग़ुलाम मानसिकता के हैं। लिबरल और प्रोग्रेसिव तो बिलकुल ही नहीं हैं....
वरिष्ठ पत्रकार अजीत साही की टिप्पणी
जनज्वार। इसमें दो राय नहीं कि तालिबान का इतिहास और विचारधारा हिंसक है। हमारे तमाम भारतीय बहन और भाई, हिंदू और मुसलमान, आप दोनों जो उसके ख़िलाफ़ लिख रहे हैं मैं आपकी सोच और संवेदना की दिल से इज़्ज़त करता हूँ, लेकिन साथ ही मैं सच में आपसे समझना चाहता हूँ कि आपके विचार से अफ़ग़ानिस्तान में आख़िर क्या होना चाहिए था।
क्या अमेरिका को वहाँ और रुकना चाहिए था? इसके बावजूद कि अमेरिका एक आक्रांता था, जिसने पूरे अफ़ग़ानिस्तान में कत्लेआम करके ऐसा आतंक फैलाया कि करोड़ों लोग उससे नफ़रत करने लगे थे, उसे वहाँ क़ाबिज़ रहते रहना चाहिए था तालिबान को रोकने के लिए? अमेरिका तो रुकना नहीं चाह रहा था। पैसे उसके खर्च हुए आपके नहीं। सैनिक उसके मरे, आपके नहीं। फिर आख़िर क्या संभावना बननी चाहिए थी आपके हिसाब से?
आप कह रहे हैं कि तालिबान को सत्ता में नहीं आना चाहिए था। चलिए मान लिया, तो फिर आपके हिसाब से अमेरिका के जाने पर किसे राज करना चाहिए था? अशरफ़ ग़नी की सरकार तो पूरी तरह लचर और भ्रष्ट थी, बल्कि सरकार ही फ़र्ज़ी थी क्योंकि उसका चुनाव ही फ़र्ज़ी था। तो जनता के बीच जब उसकी वैधता ही नहीं थी तो वो सरकार कैसे टिकी रहती? क्या आपने ख़बरें नहीं पढ़ी थीं कि अफ़ग़ान सेना को खाने का राशन नहीं मिल रहा था? पूरी पगार नहीं मिल रही थी? कि अशरफ़ ग़नी और उसके आसपास लोग अरबों डॉलर खा चुके थे? ये सब आपको मंज़ूर था? ऐसी सरकार का प्रशासन पर कुछ भी प्रभाव या दबाव रहा होगा? आपको क्या लगता है?
दरअसल बात ये है कि अशरफ़ ग़नी की सरकार की पहले ही कोई नहीं सुन रहा था। काबुल के आसपास छोड़ कर और दो-तीन शहर छोड़ कर वैसे भी अलग-अलग सूबों में अलग-अलग स्थानीय मिलिशिया का प्रभाव था। अमेरिका के जाने पर अशरफ़ ग़नी की सरकार का और भी अधिक लचर हो जाना निश्चित था। फिर क्या होता? पूरे देश में गृहयुद्ध छिड़ जाता। हज़ारों-हज़ार लोग मारे जाते। क्या वो आपको मंज़ूर था? उन हज़ारों लोगों में औरतें भी होतीं, बच्चे भी होते। हज़ारों परिवार बेघर हो जाते। लाखों बच्चे अनाथ हो जाते। हज़ारों लड़कियों के साथ दुष्कर्म होता। वो सब आपको मंज़ूर था? स्कूल बंद हो जाते। धंधा ठप हो जाता। लूटपाट होती। ये सब ठीक होता?
कुछ हालात ऐसे होते हैं जिनके लिए अंग्रेज़ी का जुमला है there are no good answers so you look for the least bad answer। आप बताइए, क्या लीस्ट बैड आंसर होता आपके हिसाब से अफ़गानिस्तान के लिए आज के हालात में?
आप कह सकते हैं कि जो बातें मैंने ऊपर लिखी हैं वो तो तालिबान के रहते भी हो सकती हैं। बिलकुल सही बात है। ज़रूर हो सकती हैं, लेकिन पिछले एक हफ़्ते में हुई हैं क्या? ये सही है कि पूरे अफ़ग़ानिस्तान में महिलाएँ घबराई हुई हैं। उनका भय बिलकुल समझ आता है, लेकिन तालिबान नहीं होता अभी और सरकार गिर चुकी होती और गृहयुद्ध चल रहा होता तो वो महिलाएँ हंस-खेल रही होतीं?
तालिबान नहीं होता और गृहयुद्ध होता तो क्या सैकड़ों अफ़ग़ान अमेरिकी विमान पर चढ़ कर नहीं मर रहे होते? भाग नहीं रहे होते? अगर आप थोड़ा भी पढ़े-लिखे हैं तो आपको याद होगा कि 2003 में जब अमेरिका ने ईराक़ पर हमला किया था तो पहले दो महीनों में पूरे देश में भयानक अराजकता फैल गई थी क्योंकि अमेरिका ने सोचा ही नहीं था कि सद्दाम के भागने पर शासन कौन चलाएगा। आज भी ईराक़ में उसके दुष्परिणाम ज़ाहिर हैं।
देखिए, एक बुनियादी बात समझिए। किसी भी मुल्क में, समाज में बाहर से आए आक्रांता के ख़िलाफ़ उस समाज की पहली लड़ाई होती है। ये अफ़सोस की बात है कि न आपको अमेरिका का अफ़ग़ानिस्तान पर क़ब्ज़ा बुरा लगता है और न ही आपको मालूम है कि जितना अत्याचार और जितनी हिंसा अमेरिका ने किया उसका एक-चौथाई भी तालिबान ने नहीं किया।
अमेरिका ने घर-घर घुस-घुस कर आठ-आठ साल के लड़कों की हत्या करवाई है। हवाई बम गिराए हैं। कार्पेट बांबिंग की है। टैंक से गोलीबारी की है। बेगुनाह लोगों को महीनों बंद करके यातना दी है। उनके ऊपर पेशाब किया है। उनकी उँगली काटते थे। सैनिकों को कहते थे कि प्रैक्टिस के लिए सिविलियन को मारो। आप चाहते हैं कि जिन्होंने अपना सब कुछ खोया है, वो अपना दर्द, अपमान सब भूल जाएँ और अमेरिका को सपोर्ट करते रहें?
तालिबान गुड आंसर नहीं है। ये समझने के लिए पीएचडी की ज़रूरत नहीं है, लेकिन आज के हालात में अब तक वही लीस्ट बैंड आंसर है। अब तालिबान कैसे हटेगा? तो अगर रूस, चीन, अमेरिका, पाकिस्तान ने अफ़ग़ानिस्तान में अपना गंदा खेल नहीं जारी रखा तो अफ़ग़ान लोगों को मौक़ा मिलेगा कि वो ख़ुद अपने को धीरे-धीरे मज़बूत करें और अपने हक़ूक के लिए लोकतांत्रिक लड़ाई लड़े। इसमें वक़्त लग सकता है और लगेगा भी। दस साल। बीस साल। लेकिन इसी समाज की महिलाओं से, श्रमिकों से, युवाओं से असली लोकतंत्र का बीज फूटेगा।
अमेरिका के क़ब्ज़े में मिली आज़ादी वैसी ही आज़ादी थी जैसी की ब्रिटिश काल में भारतीयों को मिली आज़ादी थी। अगर आपको लगता है कि पराधीनता में दोयम दर्ज़े का नागरिक बनने में ही ख़ुशी है तो फिर आप ग़ुलाम मानसिकता के हैं। लिबरल और प्रोग्रेसिव तो बिलकुल ही नहीं हैं।
पिछले एक हफ़्ते में जो हमने तालिबान को देखा है वो पच्चीस साल पहले हमने तालिबान में नहीं देखा था। हमने कई-कई समाजों में देखा है कि परिस्थितियाँ बदलती हैं तो किरदार भी बदलते हैं। जीसस, मुहम्मद, बुद्ध, गाँधी सबकी शिक्षा यही है कि हर इंसान बदलाव के काबिल है। और इतिहास ऐसे उदाहरणों से भरा है।
असली बात ये है कि लोकतंत्र कोई बाहर से आकर नहीं थोप सकता। स्वाभिमान विदेशी नहीं पैदा कर सकता। यूएन और अमेरिका अफ़ग़ानिस्तान को तालिबान से आज़ादी नहीं दिला सकते। अफ़ग़ानिस्तान के लोगों को ख़ुद मज़बूत होकर अपनी लड़ाई लड़नी होगी।
(अजीत साही की यह टिप्पणी उनकी एफबी वॉल से साभार)