Tiranga : हिंदुओं के धार्मिक समारोहों में गाड़ियों पर आड़े-तिरछे लटके तिरंगे को फहराने में दिखता है कौन सा आदर भाव, देशप्रेम और राष्ट्रीयता!

Tiranga : हिन्दुओं के धार्मिक कार्यक्रमों का एक अभिन्न हिस्सा राष्ट्रीय ध्वज है। स्थितियां यहीं तक बदली नहीं हैं, अख़लाक़ की हत्या के आरोपों से घिरे लोगों के शवों को भी तिरंगे में लपेटा गया था, और आरएसएस के झंडे से नीचे तिरंगा फहराया जाता है

Update: 2022-08-07 04:50 GMT

महेंद्र पाण्डेय का विश्लेषण

Tiranga : हरेक राष्ट्रीय प्रतीक को बदलने का दौर चल रहा है – अशोक स्तम्भ के शेर शक्ल से हिंसक और मोटे हो गए, संसद भवन नया तैयार हो रहा है, संविधान की मर्यादा तार-तार हो गयी, और राष्ट्रीय ध्वज अब अजीबो-गरीब अभियान का हिस्सा हो गया है। सरकार कह रही है, सभी अपने घरों पर राष्ट्रीय ध्वज फहराएंगें, इससे देशभक्ति जागेगी और तथाकथित राष्ट्रवाद उभरेगा। पर, क्या कोई मनोवैज्ञानिक या समाज-विज्ञानी यह बता सकता है कि राष्ट्रध्वज को अपने घर के ऊपर टांग देने और देशभक्ति का कोई सम्बन्ध भी है?

इस समय रूस-यूक्रेन युद्ध चल रहा है, अपने सीमित संसाधनों के बाद भी पिछले 165 दिनों से यूक्रेन लगातार रूस का मुकाबला कर रहा है। यूक्रेन के लोगों में गजब की देशभक्ति है, सामान्य नागरिक भी फ़ौज की वर्दी में मुकाबले के लिए खड़ा है – पर आपने इस युद्ध के कितने विजुअल्स में लोगों को यूक्रेन के झंडे के साथ देखा है? हमारी सरकार के अनुसार तो यही लगता है कि पिछले 165 दिनों से युद्ध में डटे यूक्रेनी देशभक्त हैं ही नहीं।

वर्ष 2014 के बाद से पूरा देश ही एक तमाशा बन गया है, और इस तमाशे में देशभक्ति के नाम पर अजीब-अजीब चीजें होने लगी हैं। एक योजना बनी, विश्वविद्यालयों में सेना के टैंक रखे जायेंगे, इससे छात्र देशभक्त होंगे। कुछ वर्ष पहले खबर आई थी कि सभी रेलगाड़ियों पर राष्ट्रध्वज लगाए जायेंगे, जिसे देखकर सवारियां देशभक्त होंगी। अब तो सभी को अपने घरों में ही राष्ट्रीय ध्वज लटकाना है।

इस बीच में हमारे प्रधानमंत्री खादी के स्वघोषित ब्रांड-ऐम्बेसडर बन गए और फिर शुद्ध खादी का झंडा पॉलिएस्टर में तब्दील हो गया। हत्यारे भी मरने के बाद तिरंगें में लिपटने लगे। सेना के जवान और अर्ध-सैनिक बल पहले केवल सीमापार या फिर चुनिन्दा स्थानों पर तैनात किये जाते थे। तब देश का हरेक सामान्य नागरिक उनका मन से आदर करता था। वर्ष 2014 के बाद से ये जवान और अर्धसैनिक बल हरेक चप्पे-चप्पे पर तैनात कर दिए गए – अब वह आदर भी ख़त्म हो गया।

यदि आप दिल्ली या इसके आस-पास के क्षेत्रों में रहते हैं तब आपने जरूर ध्यान दिया होगा कि राष्ट्रीय ध्वज अब हिन्दुओं के सभी पर्व-त्योहारों में भगवे झंडे का साथी हो गया है। यह सब कैसे हुआ, कब हुआ यह तो नहीं पता, पर पिछले 8-9 वर्षों से चाहे कावड़ यात्रा हो या किसी मूर्ति का विसर्जन हो – इन सबमें दो नया समावेश जरूर नजर आता है, गुंडागर्दी और राष्ट्रीय ध्वज। राष्ट्रीय ध्वज भले ही किसी को भी फहराने का अधिकार मिल गया हो, पर इसके साथ इसका आदर और धर्मनिरपेक्षता का भाव जरूरी है, राष्ट्रीय प्रतीक और चिह्न से जुड़े हरेक नियम कानून, हरेक मैनुएल, हरेक सरकारी दिशा-निर्देश और हरेक न्यायालय के फैसले राष्ट्रीय ध्वज के आदर और धर्मनिरपेक्षता की बात जरूर करते हैं। पर केवल हिन्दुओं के तथाकथित धार्मिक समारोह में हरेक मोटरसाइकिल, हरेक ऑटो, हरेक गाडी और हरेक ट्रक पर आड़े-तिरछे लटके इन राष्ट्रीय ध्वजों को फहराने में कौन सा आदर भाव होता है, या धर्मनिरपेक्षता कहाँ है, यह किसी को नहीं मालूम। पिछले कुछ वर्षों से बेसबॉल का बैट और राष्ट्रीय ध्वज तो लगभग हरेक कावड़ यात्री का अभिन्न अंग हो गया है।

दरअसल, केंद्र में वर्तमान सरकार के आने के बाद संविधान के बाद जिस राष्ट्रीय प्रतीक की सबसे अधिक दुर्गति की गयी है, वह है राष्ट्रीय ध्वज। वर्ष 2017 में जम्मू और कश्मीर के कठुआ में बीजेपी की रैली में राष्ट्रीय ध्वज उल्टा फहराया गया था। कभी-कभी तो यह लगता है कि सत्तारूढ़ पार्टी झंडा फहराती नहीं, बल्कि लटकाती है। हमारे प्रधानमंत्री की भी एक तस्वीर है, जिसमें योग करने के बाद वे राष्ट्रीय ध्वज से पसीना पोंछ रहे है। एक खबर यह भी आयी थी कि किसी विदेशी दौरे पर प्रधानमंत्री ने राष्ट्रीय ध्वज पर हस्ताक्षर कर किसी को भेंट कर दिया था। अब तो तिरंगा यात्रा भी होने लगी है, जिसमें शहर भर के युवा बिना हेलमेट के गुंडागर्दी करते हुए तिरंगे को आड़े-तिरछे लटकाए हुए और सभी ट्रैफिक नियमों की अवहेलना करते हुए पुलिस और ट्रैफिक पुलिस के संरक्षण में सडकों पर घूमते हैं।

अब से 40-50 साल पहले तक छोटे शहरों और गावों में शायद ही कहीं राष्ट्रीय ध्वज दिखाई देता था, इसी लिए 15 अगस्त और 26 जनवरी का दिन सबके लिए विशेष होता था, जब शहर में दो-तीन स्थानों पर, और विद्यालयों में ध्वजारोहण किया जाता था। वह वो दौर था, जब राष्ट्रीय ध्वज के समारोह में शरीक होने सभी लोग सुबह नहाकर और साफ़ सुथरे कपडे पहन कर आते थे. उस दौर में इसका जो सम्मान और इसके प्रति जो निष्ठा थी, वह अब पूरी तरह से ख़त्म हो गयी है।

अब तो हरेक गली-चौराहे पर बड़े-बड़े ध्वज मिल जायेंगे, हरेक जगह और दिन रात मिलने के कारण राष्ट्रीय ध्वज से जुड़ा हुआ जोश, उमंग, और देश के प्रति लगाव उतना प्रबल नहीं रहा, जितना पहले था। अब तो यह हिन्दुओं के लगभग हरेक बड़े कार्यक्रम का अभिन्न हिस्सा हो चुका है। हो सकता है अगली रामलीला में राम और हनुमान के हाथ में धनुष और गदा के बदले तिरंगा ही दिखाई दे। मूर्तियों के विसर्जन की यात्रा में ट्रकों पर भौडे हरियाणवी या भोजपुरी गाने के बीच तिरंगा जरूर दिखाई देता है।

23 जनवरी 2004 को सर्वोच्च न्यायालय में तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश ब्रिजेश कुमार और न्यायाधीश एस बी सिन्हा की पीठ ने नवीन जिंदल बनाम भारत सरकार (सिविल 2920/1996) के बहुचर्चित मुकदमे के फैसले में कहा था, राष्ट्रीय ध्वज को आदर और निष्ठा के साथ फहराना हरेक नागरिक का मौलिक अधिकार है, पर इसके साथ ही सम्बंधित हरेक दिशा निर्देशों और कानूनों का पालन अनिवार्य है।

पर, अब तो हिन्दुओं के धार्मिक कार्यक्रमों का एक अभिन्न हिस्सा राष्ट्रीय ध्वज है। स्थितियां यहीं तक बदली नहीं हैं, अख़लाक़ की हत्या के आरोपों से घिरे लोगों के शवों को भी तिरंगे में लपेटा गया था, और आरएसएस के झंडे से नीचे तिरंगा फहराया जाता है। दरअसल अब देशप्रेम का मतलब बदले लगा है, और तिरंगे की साख भी।

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