आज है देश की पहली फेमिनिस्ट आइकॉन सावित्रीबाई की पुण्यतिथि, प्लेग पीड़ित दलितों और ओबीसी की सेवा करते हुए दी जान
सावित्रीबाई फुले वो महिला हैं जिन्होंने ब्राह्मणों द्वारा कीचड़ और गंदगी फेंके जाने के बावजूद ओबीसी और दलित लड़कियों के लिए स्कूल खोला। सावित्रीबाई वो महिला हैं जो फूल और सब्जियां बेचकर, गद्दे, रजाई और कपड़े सिलकर अपना परिवार चलातीं थीं।
जनज्वार ब्यूरो। भारत में महिला मुक्ति का आंदोलन छेड़ उन्हें शिक्षा का अधिकार दिलाने वाली प्रथम महिला शिक्षक सावित्रीबाई फुले की आज 10 मार्च को पुण्यतिथि है। उनकी मौत 66 साल की उम्र में दलितों और ओबीसी की बस्तियों में प्लेग पीड़ितों की सेवा करते हुए हुई थी, प्लेग मरीजों की सेवा करते करते वो खुद ही इसका शिकार बन गयीं थीं।
असल मायने में सावित्रीबाई भारत की पहली फेमिनिस्ट आइकॉन हैं। उन्हें भारत की पहली महिला शिक्षिका के तौर पर भी जाना जाता है, क्योंकि जब समाज सुधारक और उनके पति ज्योतिबाराव फुले ने पहला कन्या विद्यालय खोला, तो सावित्रीबाई फुले ने अध्यापक की भूमिका बखूबी निभायी थी। उन्होंने हमेशा लड़कियों के लिए शिक्षा को जरूरी बताया, उन्हीं की कोशिशों की बदौलत आज लड़कियों ने ये मुकाम हासिल किया है।
सावित्रीबाई फुले वो महिला हैं जिन्होंने ब्राह्मणों द्वारा कीचड़ और गंदगी फेंके जाने के बावजूद ओबीसी और दलित लड़कियों के लिए स्कूल खोला। सावित्रीबाई वो महिला हैं जो फूल और सब्जियां बेचकर, गद्दे, रजाई और कपड़े सिलकर अपना परिवार चलातीं थीं।
सावित्रीबाई जब ओबीसी और दलितों की बेटियों को पढ़ाने जाती थीं तब दो साड़ियाँ लेकर निकलती थीं। रास्ते में ब्राह्मण उन पर कीचड़, गोबर आदि फेंकते थे। सावित्रीबाई स्कूल पहुंचकर साड़ी बदलकर बच्चों को पढ़ाती थीं और फिर लौटने के लिए गंदी साड़ी पहन लेती थीं। ये उनका संघर्ष था, जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। अपने पति ज्योतिबराव के साथ मिलकर सावित्रीबाई ने पहले पहली कन्याशाला और फिर 18 अन्य बालिका स्कूल खोले थे।
ज्योतिबाराव जब मात्र 13 साल के थे, तब 10 साल की सावित्रीबाई से उनकी शादी कर दी गयी थी और बाद में दोनों ने बाल विवाह की कुरीति को खत्म करने के लिए एक लंबी लड़ाई लड़ी। जिनको समाज को आदर्श के तौर पर स्थापित करना चाहिए था, उन्हें तब जात से तक बाहर कर दिया गया था, मगर सावित्रीबाई ने महिलाओं को शिक्षित करने के अपने लक्ष्य को नहीं छोड़ा।
सावित्रीबाई फुले ने सिर्फ शिक्षा की अलख ही नहीं जगायी बल्कि ये वो महिला हैं जिन्होंने ओबीसी और दलित गरीबों की सेवा करते हुए अपनी जान दे दी। जब ओबीसी और दलितों की बस्तियों में प्लेग की बीमारी फैली तब सावित्रीबाई फुले ने रात दिन एक कर बीमारों की देखभाल की। इसी बीमारी के संक्रमण से आज ही के दिन उनकी मौत मात्र 66 साल की उम्र में हो गयी थी।
मगर आज का सच यह है कि सावित्रीबाई जिस सम्मान की हकदार थीं, उन्हें वह नहीं मिला। उन्हें याद करना तक जरूरी नहीं समझा जाता। हालांकि हमारे देश में यह पहले से होता आया है कि यहां असली नायक नायिकाओं का सम्मान तो छोड़िये उन्हें पहचान भी नही मिलती।
सावित्रीबाई ने न सिर्फ शिक्षा के क्षेत्र में बल्कि जातिवाद, पुरुष प्रधान समाज की व्यवस्था, भेदभाव, अत्याचार, बाल विवाह जैकी कुरीतियों के खिलाफ भी आवाज बुलंद की थी। तमाम सामाजिक मुद्दों पर वो कलम भी चलाती थीं।
सावित्रीबाई न सिर्फ शिक्षा के क्षेत्र में महिलाओं के लिए लड़ाई लड़ रहीं थीं, संघर्ष कर रहीं थीं, बल्कि विधवाओं के सिर के बाल मुंडवाए जाने की प्रथा का भी उन्होंने भरपूर विरोध किया था। बलात्कार जो हमेशा ही महिलाओं के खिलाफ एक बड़े हथियार के तौर पर इस्तेमाल किया जाता रहा है, उसके खिलाफ भी सावित्रीबाई के संघर्ष को भूलना बेमानी होगा। रेप पीड़िताओं के मां बनने की नौबत आती थी इसलिए उनके शिशु के जन्म के लिए बहिष्कार झेलना पड़ता था। उस समय में सावित्रीबाई ने इन पीड़िताओं के लिए केयर सेंटर खोले थे, इसके लिए समाज ने उन पर खूब कीचड़ उछाला था, मगर वे अपने कर्मों से डिगीं नहीं।
हमारा समाज जिन लोगों का अछूत कहकर बहिष्कार करता था, उन्हें जगह—जगह बेइज्जत किया जाता था, पानी तक अपने कुओं से नहीं पीने दिया जाता था, उनके लिए सावित्रीबाई ने अपने घर में कुआं खुदवाया, जिससे कोई भी पानी ले और पी सकता था.
इतना ही नहीं सावित्रीबाई फुले ने अपने पति के साथ अंतर्जातीय विवाहों की दिशा में भी बड़ा काम किया। पंडों, पुरोहितों और दहेज के खासतौर से अंतर्जातीय विवाह करवाने के लिए सावित्रीबाई ने अपने पति के साथ मिलकर सत्यशोधक समाज की स्थापना भी की थी।