अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव में ट्रंपवाद की हुई जीत, सिद्धातों के खिलाफ जाकर भी आधे अमेरिका का जुटाया समर्थन
जिस तरह भारत में मोदी प्रशंसकों और समर्थकों की बदौलत मोदीत्व आया है उसी तरह अमेरिका में ट्रंपवाद की शुरुआत हो चुकी है.....
वरिष्ठ पत्रकार शेखर गुप्ता का विश्लेषण
अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव का सबसे बड़ा हासिल यह नहीं है कि चुनाव कौन जीता? बल्कि अमेरिका की भविष्य की राजनीति और भारत समेत दुनिया भर के लोकतांत्रिक देशों पर इस घटना के प्रभाव की बात करें तो उल्लेखनीय बात यही है कि डॉनल्ड ट्रंप लगभग 48 फीसदी मत पाने में कामयाब रहे। यह कैसे हुआ?
सवाल और भी हैं। सात करोड़ से अधिक अमेरिकियों ने ऐसे व्यक्ति को मत क्यों दिया जिसे एक हद तक मसखरा और सनकी माना जाता है, जो सत्तालोलुप और भ्रष्ट है, जिस पर यौन शोषण के आरोप हैं, जो कर चोरी करता है, जिसने शायद दुनिया भर में अमेरिका को कमजोर किया है और जिसके कार्यकाल में अमेरिका ने इकलौती विश्वशक्ति का दर्जा भी चीन के हाथों गंवा दिया है?
बीते चार वर्ष से दुनिया के सभी अहम थिंकटैंक हमको यही बता रहे हैं। हर चुनाव विश्लेषक और चुनावी आंकड़े बाइडन की आसान जीत की घोषणा करते रहे। उन्होंने कहा कि बाइडन के पक्ष में लहर है और यह लहर ट्रंप और उनकी राजनीति को अमेरिकी राजनीतिक इतिहास के गटर में पहुंचा देगी।
किसी ने नहीं सोचा होगा कि यह चुनाव इतना करीबी होगा कि महामारी के बावजूद ट्रंप के कहने पर इतने मतदाता बाहर आएंगे और वह फ्लोरिडा, नॉर्थ कैरोलाइना में जीत जाएंगे और पेनसिलवेनिया, विसकॉन्सिन, मिशिगन और नेवाडा में इतनी तगड़ी चुनौती पेश करेंगे? इस चुनाव के बाद अमेरिकी अपने आप से और गहराई से पूछेंगे कि आखिर उन्हें हुआ क्या है? यदि दुनिया कोरोनावायरस से प्रभावित नहीं होती और अमेरिका में ट्रंप उससे निपटने में यूं विफल न होते तो सोचिए नतीजा क्या होता? तब शायद वे आसानी से चुनाव जीत जाते।
टैक्सस में जब नरेंद्र मोदी मंच पर ट्रंप का हाथ थामे हुए 'हाउडी मोदी' आयोजन में शामिल हुए थे तब शायद उन्होंने और उनके सलाहकारों ने यही सोचा था। तब किसी ने नहीं सोचा था कि वुहान में एक वायरस तैयार हो रहा है या शायद शी चिनफिंग जानते होंगे।
इस बात पर बहस हो सकती है कि अमेरिका महामारी से सबसे खराब ढंग से निपटा। ब्राजील में राष्ट्रपति जेर बोल्सोनारो भी इस मामले में उनसे बहुत पीछे नहीं रहे। ट्रंप का अमेरिका आंकड़ों में जीत गया। भले ही अमेरिका की स्वास्थ्य सेवा तमाम देशों से आधुनिक और व्यापक है लेकिन उन्होंने महामारी को हल्के में लिया और ऐसी दवाओं की वकालत की जिनकी जांच तक नहीं हुई थी। यहां तक कि वह कोरोनावायरस के शिकार भी हुए।
इसके बावजूद अमेरिकी शहरों से दूर कस्बों और गांवों में जिनकी भारत से तुलना की जा सकती है, वहां बड़ी तादाद में लोगों ने ट्रंप को वोट दिया। ये कौन लोग हैं जो अपने शोषक को वोट देने बाहर निकले?
इस चुनाव का सबसे अहम हासिल यही रहा कि यह लोकतांत्रिक देशों में जड़ जमा रहे एक परिपक्व विचार को रेखांकित करता है, भले ही वह हमें पसंद हो या नहीं। यदि कोई नेता बहुसंख्यक आबादी की असुरक्षा जगाकर उसे आक्रोशित करने का कौशल रखता है तो वह मजबूती हासिल कर सकता है। भारत के हिंदुओं में घर कर चुकी अल्पसंख्यक ग्रंथि इसका उदाहरण है। खासकर हिंदी क्षेत्र और गुजरात तथा महाराष्ट्र में।
मोदी की तरह ट्रंप ने भी एक रूढि़वादी दक्षिणपंथी दल का सहारा लिया और उसके दर्शन, विचारधारा और एजेंडे को अपने अनुरूप बना लिया। दोनों ने राजनीतिक तार्किकता और कुलीनता का मजाक बनाया। दोनों कामगार और वंचित वर्ग को पुराने वामपंथी-समाजवादी धड़े से अलग करके अपने साथ लेने में कामयाब रहे।
ट्रंप के नाराजगी भरे वक्तव्यों में अमेरिकी कामगारों का आह्वान एक अहम बात थी। याद कीजिए वह मोदी की राजनीति से कितना मेल खाता है। मोदी ने भी बीते छह वर्ष में हमेशा गरीबों के लिए कुछ न कुछ किया है। अमीरों पर उच्च कर लगाकर उन्होंने यही दिखाया है कि वह काफी हद तक गरीबों के ही साथ हैं और अमीरों पर दबाव बनाने का कोई मौका नहीं गंवाते।
वहीं ट्रंप रिपब्लिकन पार्टी पर हावी हो गए और मुक्त व्यापार, उदार आव्रजन, वैश्वीकरण, कम टैरिफ और वैश्विक शक्ति प्रदर्शन समेत पार्टी की तमाम नीतियों को खारिज कर दिया। केवल कम कर दरों पर वह पार्टी की राय से सहमत रहे। अर्थव्यवस्था में भारी गिरावट के बाद अब मोदी जागते नजर आ रहे हैं लेकिन उनके पहले छह वर्ष कतई अलग नहीं रहे। भाजपा मुक्त व्यापार, निजीकरण, कम कर दरों, संपत्ति निर्माण आदि की हिमायती लगती थी लेकिन मोदी सरकार ने इन बातों को ठंडे बस्ते में डाल दिया था।
हम अक्सर मोदी और उनकी राजनीति की बात करते रहते हैं इसलिए आज इस बात पर केंद्रित रहते हैं कि ट्रंप और उनकी राजनीतिक सफलता क्या सिखाती है? हम इसे सफलता इसलिए कह रहे हैं क्योंकि यह रेखांकित करना आवश्यक है शासन के मुद्दे पर तमाम गलतियां करने और अपनी पार्टी की विचारधारा और सिद्धांतों के खिलाफ जाकर भी वह आधे अमेरिका का समर्थन जुटा पाने में कामयाब रहे।
अमेरिका में ट्रंपवाद के रूप में एक नई विचारधारा उभरी। कह सकते हैं कि हार के बावजूद वह परिदृश्य से गायब न होंगे। वह पूरी तरह अपारंपरिक हैं। दुनिया भर के लोकतांत्रिक देशों में नेता उनसे सीख लेंगे। एक व्यक्ति इतनी देरी से राजनीति में आता है और एक अत्यंत पुराने दल में अपनी खुद की विचारधारा कायम करता है। रिपब्लिकन पार्टी इतनी जल्दी उनकी छाया से मुक्त नहीं होगी। अमेरिका और पश्चिमी मीडिया के जानकार अपने तमाम राजनीतिक अनुभवों और विद्वता के साथ ट्रंपवाद के प्रभाव को समझने में उसी तरह नाकाम रहे जैसे भारत में एक बड़ा समूह मोदीत्व को स्वीकार करने में विफल रहा। क्या ऐसा इसलिए हुआ कि हमारा विश्लेषण अब भी यही मानता है कि लोगों की बेहतरी ही आपको जिता सकती है? क्या बिल क्लिंटन ने नहीं कहा था कि अर्थव्यवस्था महत्त्वपूर्ण है। परंतु अगर ऐसा है तो खराब अर्थव्यवस्था के बावजूद मोदी 2019 में और अधिक मतों से कैसे जीते? या ट्रंप को कोरोनावायरस के बिगड़ते हालात के बावजूद इतने वोट कैसे मिले?
इस सवाल को जरा उलटकर देखते हैं। ठीक है कि आप लोगों की स्थिति बेहतर नहीं कर सकते लेकिन आप उन्हें बेहतर महसूस तो करा सकते हैं। यहां संस्कृति, धर्म और पहचान का संवेदनशील मुद्दा सामने आता है। आज तमाम लोकतांत्रिक देशों में इसी की जीत हो रही है। यही कारण है कि इमैनुएल मैक्रों जैसे मध्यमार्गी नेता भी ऐसी भाषा बोल रहे हैं। इसे बढ़ती जागरूकता की वजह से बढ़ावा मिल रहा है।
सीएनएन टेलीविजन चैनल के प्रसिद्ध प्रस्तोता एंडरसन कूपर के उन शब्दों को याद रखिए जो उन्होंने ट्रंप के लिए इस्तेमाल किए थे: एक मोटा कछुआ समुद्र तट पर पेट के बल लेटा धूप सेंक रहा है। आपको क्या लगता है, ट्रंप के समर्थक इस टिप्पणी को कैसे देखते हैं। वे इस वक्तव्य को इस बात के प्रमाण के रूप में देखते हैं कि ट्रंप कुलीनों के बारे में जो कुछ कहते हैं वह सही कहते हैं। वैसे ही जैसे जब भारत में अंग्रेजीदां लोग मोदी का मजाक उड़ाते हैं कि वे अंग्रेजी के स्ट्रेंथ शब्द के हिज्जे सही ढंग से नहीं लिख सकते हैं। इससे उनकी बुनियाद मजबूत होती है, एक सांस्कृतिक पहचान तैयार होती है जो कुलीनवाद के विरोध पर आधारित है। उनके प्रति इस वर्ग की आस्था और अधिक मजबूत होती है। मोदी की तुलना में ट्रंप का तो लाखों बार मजाक बनाया गया है। वह भी गुपचुप तरीके से नहीं बल्कि एकदम खुलेआम। इन बातों से आप यह तो समझ ही गए होंगे कि लगभग आधे अमेरिका ने जिसमें बड़ी तादाद में कामगार वर्ग के लोग शामिल हैं, उन्हें वोट क्यों दिया?
(यह आलेख पूर्व में समाचार पत्र बिजनेस स्टैंडर्ड में प्रकाशित किया जा चुका है।)