दलीय और निर्दलीय उम्मीदवारों के अधिकारों में इतना अंतर क्यों, क्या यह समता के अधिकारों का हनन नहीं
जब सभी पैमाने पर कोई उम्मीदवार, निर्दलीय या फिर मान्यता प्राप्त राजनीतिक दल के उम्मीदवार खरे उतरते हों, उसके बाद दोनों के बीच असमानता की दीवार खड़ा करना न्यायोचित एवं ग्राह्म नहीं है
राजेश पाठक का विश्लेषण
लोकसभा एवं विधानसभा निर्वाचन से संबंधित लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम,1951 की धारा 52 के अन्तर्गत यदि मान्यता प्राप्त राष्ट्रीय एवं राज्य स्तर के राजनीतिक दल के आधार पर चुनाव लड़ रहे उम्मीदवारों में से किसी भी उम्मीदवार की मृत्यु अगर संवीक्षोपरांत एवं निर्वाचन काल पूर्ण होने तक के बीच में हो जाती है तो उस संबंधित निर्वाचन क्षेत्र की सम्पूर्ण निर्वाचन प्रक्रिया रद्द कर दी जाती है। उसके बाद उस निर्वाचन क्षेत्र के लिए फिर से नये सिरे से चुनाव प्रक्रिया आरंभ की जाती है।
परन्तु ठीक इसके विपरीत यही स्थिति (उम्मीदवार की मृत्यु की स्थिति) वास्तव में चुनाव लड़ रहे निर्दलीय उम्मीदवार या बिना मान्यता प्राप्त परन्तु रजिस्टर्ड दल के उम्मीदवार की मृत्यु की अवस्था में उपर्युक्त प्रावधानों का अनुसरण करते हुए चुनाव की समस्त प्रक्रिया रद्द नहीं की जाती है। आखिर ऐसा क्यों? इस संबंध में तर्क यह दिया जाता रहा है कि जहां एक ओर शासन की संसदीय प्रणाली में राजनीतिक दलों का महत्वपूर्ण स्थान होता है, वहीं दूसरी ओर चुनाव में निर्दलीय/ अगंभीर उम्मीदवारों की बढ़ती भीड़ को नियंत्रित किया जा सके ताकि निर्वाचन प्रक्रिया को सफलीभूत बनाने में विशेष कठिनाई न आने पाए, परंतु इससे सहमत न होने के कारण स्पष्ट हैं।
यह सत्य है कि निर्दलीय उम्मीदवारों की बढ़ती भीड़ चुनाव आयोग के लिए कभी-कभी किसी निर्वाचन क्षेत्र के लिए चुनौती बन जाती है, परन्तु उन्हे यह महसूस करना चाहिए कि इससे भारतीय संविधान अन्तर्गत नागरिकों को प्राप्त मूल अधिकार (समता का अधिकार भारत का संविधान का अनुच्छेद 14) का सीधा-सीधा हनन होता है। यद्यपि यह मूल अधिकार एक से अधिक नागरिकों के बीच सकारात्मक विभेद की अनुमति प्रदान करता है, जिसके अन्तर्गत ही चुनाव आयोग एक व्यक्ति को निर्दलीय उम्मीदवार बनने के लिए मान्यता प्राप्त राजनीतिक दलों की तुलना में नाम निर्देेशन के दौरान अधिक संख्या (वर्तमान में 10 प्रस्तावकों का प्रावधान) में प्रस्तावकों की अनिवार्यता स्वीकार करता है।
एक बार जब संवीक्षोपरान्त यह तय हो जाता है कि अमुक संख्या में एवं अमुक उम्मीदवार चुनाव मैदान में चुनाव लड़ने हेतु योग्य घोषित किए गये तब उनमें निर्दलीय एवं अन्य राजनीतिक दलों के बीच विभेदात्मक चुनावी प्रक्रिया का अनुसरण करना (खास कर मृत्यु के मामले में) संबंधितों के मूल अधिकारों का हनन करना ही कहलाएगा। दूसरे शब्दों में किसी भी व्यक्ति को चुनाव में उम्मीदवार बनने के लिए जितने भी सकारात्मक विभेद के सिद्धांत का अनुसरण किया जाय वह चुनौती योग्य न भी हो तो इतना तो जरूर है कि जब सभी पैमाने पर कोई उम्मीदवार, निर्दलीय या फिर मान्यता प्राप्त राजनीतिक दल के उम्मीदवार खरे उतरते हों, उसके बाद दोनों के बीच असमानता की दीवार खड़ा करना न्यायोचित एवं ग्राह्म नहीं है।
तब तो और जबकि हमारे राज्य में ऐसे उदाहरण पड़़े हैं जबकि एक निर्दलीय उम्मीदवार चुनाव जीतकर मुख्यमंत्री जैसा पद धारण कर चुका है। यह और भी महत्वपूर्ण हो जाता है जबकि एक निर्दलीय उम्मीदवार अपने निर्वाचन क्षेत्र में बहुत लोकप्रिय हो एवं सामान्य या विशिष्ट सेफोलोजी या चुनाव पूर्व सर्वे उसकी लोकप्रियता पर सकारात्मक मुहर लगाता हो, उसके पक्ष में बहुतेरे मतदाता हों और उसकी मृत्यु हो जाती है, परन्तु उसके निर्दलीय उम्मीदवार होने के कारण चुनाव प्रक्रिया अप्रभावित रहती है तो वैसी परिस्थिति में बहुसंख्यक मतदाताओं को तुरन्त अन्य उम्मीदवार के चयन की प्राथमिकता अचानक एवं कम समय में तय कर पाना दुष्कर एवं दुरूह कार्य हो जाता है एवं समुचित निर्णय कर किसी अन्य उम्मीदवार के पक्ष एवं विपक्ष में अपना मत/अभिमत तैयार कर पाना असंभव हो जाता है।
ऐसी स्थिति में प्रायः इसकी प्रबल संभावना बनी रहती है कि बहुसंख्यक मतदाता" राजनीतिक उदासीनता" के शिकार हो जाते हैं एवं निर्वाचन की प्रक्रिया से ही अपने को अलग कर लेते हैं। ऐसी विभेदकारी स्थिति "राजनीतिक विलगाव" को भी जन्म देती है। उपर्युक्त तथ्यों के आलोक में मेरा मानना है कि वास्तव में चुनाव लड़ रहे उम्मीदवारों के बीच मृत्यु की अवस्था को लेकर किसी भी उम्मीदवारों के बीच भेदभाव नहीं किया जाना चाहिए एवं मृत्यु के उपबन्ध एवं इसके प्रभाव को सबों पर समान रूप से लागू किया जाना चाहिए।
क्या हो निर्वाचन आयोग की भूमिका
वर्तमान में आगामी होने वाले लोकसभा और विधान सभाओं के चुनाव से पूर्व यह व्यवस्था सुनिश्चित की जानी चाहिए कि संवीक्षोपरान्त चुनाव लड़ रहे निर्दलीय एवं दलीय उम्मीदवारों के बीच उनकी मृत्यु की अवस्था में वर्तमान प्रचलित व्यवस्थाओं में समरूपता लाई जाय। ऐसा होने से ही संविधान के अंतर्गत अंतर्निहित नागरिकों के मौलिक अधिकारों को अक्षुण्ण रखा जा सकेगा।
क्या हो न्यायालय की भूमिका
न्यायालय की प्रभावी भूमिका से भी कतई इंकार नहीं किया जा सकता। यह सर्वज्ञात है कि भारत का सर्वोच्च न्यायालय भारतीय संविधान का संरक्षक है एवं उच्चतम न्यायालय तथा उच्च न्यायालय को भारत का संविधान के अनुच्छेद क्रमशः 32 एवं 226 के अन्तर्गत नागरिकों के मूल अधिकारों को सुरक्षा प्रदान करने का दायित्व है। मृत्यु के कारण चुनाव की सम्पूर्ण प्रक्रिया रद्द होने के मामले में निर्दलीय एवं दलीय उम्मीदवारों के बीच उत्पन्न विभेदात्मक दीवार को ढहाने के लिए न्यायिक सक्रियतावाद को बढ़ावा मिलना चाहिए।
सच तो यह है कि न्यायालय द्वारा स्वयं ही इन तथ्यों का संज्ञान लेकर समुचित दिशा निर्देश जारी किया जाना चाहिए, जिससे जन आकांक्षाओं की पूर्ति सुनिश्चित हो सके। न्यायालय को इस दोहरे मापदण्ड पर आधारित लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम,1951 की धारा 52 की सही - सही व्याख्या करनी चाहिए वरना उनके न्याय निर्णयों को नरम न्याय संलक्षण (सोफ्ट ज्यूडिसियल सिंड्रोम) ही कहा जायेगा।
(राजेश पाठक झारखंड स्थित जिला सांख्यिकी कार्यालय गिरिडीह में सहायक सांख्यिकी पदाधिकारी हैं।)