किसान आंदोलन को हुआ सौ दिन से ज्यादा का समय, क्या कुछ बदलेगा?
इतने लम्बे आन्दोलन के बाद भी देश के हालात में कोई सुधार तो दूर की बात है किसानों की हालत में भी जरा भी अंतर नहीं आया है और किसी अंतर के आसार भी नजर नहीं आ रहे हैं....
वरिष्ठ पत्रकार महेंद्र पाण्डेय का विश्लेषण
दिल्ली की सीमाओं पर डटे आन्दोलनकारी किसानों को 100 दिनों से अधिक हो चुके हैं, पर उनकी मांगों का हल निकालता दिखाई नहीं दे रहा है। किसान आन्दोलन दिल्ली की सीमाओं से आगे बढ़कर महापंचायतों का स्वरुप ले चुका है, पर इसके बाद दिल्ली की सीमा पर जुटे किसानों की खबर आनी बंद हो गयी। इतने दिनों में एक बड़ा अंतर यह भी आया है कि गाजियाबाद बॉर्डर पर डेरा डाले राकेश टिकैत को छोड़कर बाकी सभी किसान नेता अचानक सुर्ख़ियों से गायब हो गए। अब तो किसान महापंचायतों से राजनीति से जुड़े नेताओं के नाम आने लगे हैं और किसान वक्ताओं की फूटेज भी अदृश्य होने लगी है।
इतने लम्बे आन्दोलन के बाद भी देश के हालात में कोई सुधार तो दूर की बात है किसानों की हालत में भी जरा भी अंतर नहीं आया है और किसी अंतर के आसार भी नजर नहीं आ रहे हैं। यह एक अजीब सी स्थिति है जब अहिंसक आन्दोलन कर रहे किसानों को देश की जनता का एक बड़ा तबका संदेह की नजर से देख रहा है और हरेक चुनाव को हिंसक तरीके से लड़ने वाली, देश बेचने वाली और लोकतंत्र की हत्या करने वाली पार्टी पर भारी विश्वास के साथ आज तक देख रहा है। वैसे भाजपा में जनता का यह चौकाने वाला विश्वास कोइ नई बात नहीं है।
नोटबंदी के ठीक बाद भी जब देश का हरेक नागरिक और हरेक तबका ट्रस्ट था, तब उत्तर प्रदेश में चुनाव हुए थे और जीत भाजपा को ही मिली। उत्तर प्रदेश में केवल भाजपा की सरकार ही नहीं आई बल्कि एक ऐसी सरकार भी आई जो अपनी जनता को केवल सपने बाँट रही है, फिर भी लोग खुश हैं।
वर्ष 1974 में जब लोकनायक जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में देशव्यापी समग्र क्रान्ति आन्दोलन किया गया था, तब भी जनता को उम्मीद थी कि इसके बाद देश के हालात बदल जायेंगें, पर केवल सरकार बदली देश जरा भी नहीं बदला। इतने बड़े आन्दोलन से एक भी ऐसा नहीं निकला जिसने सही में जनता का भला सोचा हो, बस पार्टी का नाम जनता पार्टी था। इस आन्दोलन से जुड़े अनेक नेता बिहार समेत अन्य राज्यों में और केंद्र सरकार में आज बैठे है। प्रधानमंत्री मोदी के बारे में भी यह प्रचारित किया जाता है की वे भी उस आन्दोलन से जुड़े थे, पर आज संसद में आन्दोलन करने वालों को आन्दोलनजीवी बता रहे है।
आन्दोलनों के हनन के लिए सारी सीमाएं पार कर रहे हैं, अहिंसक आन्दोलनों को हिंसक बनाकर कुचलने के लिए प्रयासरत हैं। बिहार में जेपी आन्दोलन से सीधे जुड़े रहे नीतीश कुमार किसी भी आन्दोलन में शरीक होने वालों को रोजगार के लिए अयोग्य करार देने की बात कर रहे हैं।
दुनिया में मानवाधिकार के लिए आवाज बुलंद करने वाली सरकारें, संस्थाएं और मीडिया का रवैय्या भी लोकतंत्र हनन के सन्दर्भ में एक जैसा नहीं है। अमेरिका या फिर भारत में लोकतंत्र के हनन की खबरें बहुत सॉफ्ट शब्दों के साथ बताई जातीं हैं, जबकि रूस, बेलारूस, म्यांमार या फिर हांगकांग की ऐसी खबरें बड़ी विवेचना और आलोचना के साथ प्रकाशित की जातीं हैं। दरअसल, आज के दौर में दुनिया में सिर्फ पूंजीवाद फल-फूल रहा है और पूंजीवाद को भारत और अमेरिका का बड़ा बाजार दिखता है। इस बड़े बाजार वाले देश को कोई भी सरकार खोना नहीं चाहती, इसलिए इन देशों में मानवाधिकार को कितना भी कुचला जाए, कभी स्पष्ट शब्दों में आलोचना नहीं की जाती है।
देश के मानवाधिकार हनन के मामले म्यांमार या हांगकांग से किसी भी मामले में कम नहीं हैं। म्यांमार में फ़ौज 30-40 लोगों को गोलियों से भून डालती है, जबकि हमारे देश में सैकड़ों प्रवासी श्रमिक सरकारी लापरवाही के कारण ही मर जाते हैं। हांगकांग के मामले में चीन की खूब आलोचना की जा रही है, पर वहां भी भारत की तुलना में नगण्य नागरिक जेल में डाले गए, और देशद्रोही तो किसी को भी नहीं कहा गया। हमारे देश में तो लगभग हरेक सक्रीय आन्दोलनकारी देशद्रोही करार दिया जा रहा है, और न्यायालय जोर-जोर से आर्डर-आर्डर का जयकारा लगा रहे हैं।
कम से कम हमारे देश में आन्दोलनों से कोई भी बुनियादी हालात नहीं बदले हैं। पूंजीवाद का जोर जनता पार्टी के दौर में भी था, कांग्रेस के समय भी और अब बीजेपी के समय भी। सामान्य नागरिक की समस्याएं किसी भी सरकार को कभी मालूम ही नहीं रहीं, जाहिर है किसी समस्या का हल भी नहीं निकला। अब जमाना बदल गया है, आज लोगों के पास खाने को भले ही न हो, पर हाथों में सोशल मीडिया से लैस स्मार्टफोन जरूर रहता है।
इस सोशल मीडिया में मानसिक स्तर पर बदलाव की क्षमता है, तभी तो देश के अधिकाँश नागरिक भूखे, प्यासे, बेरोजगार और गरीबी से जूझने के बाद भी राम मंदिर को देश का विकास मान बैठे हैं – और इसी मानसिकता को सरकार भुना रही है।