Nobel Prize में महिलाओं से भारी भेदभाव, इस बार भी 12 पुरुषों के मुकाबले में सिर्फ एक महिला पत्रकार पुरस्कृत

पूंजीवादी व्यवस्था महिलाओं, अश्वेतों और आम जनता को खूब कुचलती है, फिर नोबेल प्राइज से आम जनता को कोई लाभ मिलने की चर्चा भी बेमानी है...

Update: 2021-10-18 13:08 GMT

जहां इस बार के नोबल पुस्कार के लिए विभिन्न श्रेणियों में 12 पुरुषों को किया गया है पुरस्कृत, वहीं महिलाओं में सिर्फ बहादुर पत्रकार मारिया को चुना गया है इस पुरस्कार के लिए

 महेंद्र पाण्डेय की टिप्पणी

Nobel Prizes and women : वर्ष 2021 में सभी विषयों के नोबेल प्राइज में से केवल एक महिला वो भी शांति के लिए पत्रकार मारिया रेसा का नाम है, जबकि 12 पुरुषों को पुरस्कार दिए गए हैं। ऐसा लगभग हरेक वर्ष होता है और हरेक वर्ष महिलाओं और अश्वेतों की उपेक्षा (discrimination against women, indigenous people and minorities) पर गहन चर्चा की जाती है, पर फिर अगले साल के पुरस्कारों में ऐसी ही उपेक्षा दुहराई जाती है।

साल-दर-साल ऐसा ही होता है। अब तो मांग की जाने लगी है कि नोबेल पुरस्कारों में महिलाओं को आरक्षण दिया जाए। हाल में ही नोबेल प्राइज की घोषणा करने वाली संस्था, रॉयल स्वीडिश अकादमी ऑफ़ साइंसेज के सेक्रेटरी जनरल गोरान हौस्सों (Goran Hansson, Secretary General of Royal Swedish Academy of Sciences) की प्रेस कांफ्रेंस में भी यह मुद्दा उठाया गया। फिलहाल तो गोरान हौस्सों ने महिलाओं के आरक्षण के मुद्दे को नकार दिया है और कहा कि अब महिलाओं का नोमिनेशन पहले से अधिक किया जा रहा है, पर पुरस्कार तो लिंगभेद से अलग सर्वश्रेष्ठ काम पर ही दिया जा सकता है।

सेक्रेटरी जनरल गोरान हौस्सों ने जो कहा वह सरसरी निगाह में बिलकुल ठीक लगता है, पर तथ्य यह है कि नोबेल प्राइज समेत सभी बड़े पुरस्कारों में पुरुषों का वर्चस्व है और नोमिनेशन से लेकर काम के आकलन (Nomination and Assessment) तक में महिलाओं और अश्वेतों के साथ पक्षपात किया जाता है।

नोबेल प्राइज की शुरुआत वर्ष 1901 से की गयी थी, और अब तक विभिन्न विषयों पर केवल 59 महिलाओं को यह पुरस्कार मिला है। यह संख्या कुल पुरस्कारों की संख्या का महज 6.2 प्रतिशत है। इस वर्ष सभी क्षेत्रों के नोबेल पुरस्कारों में मात्र 1, वर्ष 2020 में तीन और वर्ष 2019 में केवल 1 महिला थीं। हालांकि वर्ष 2020 में 2 महिला वैज्ञानिकों को रसायन शास्त्र में और 1 महिला वैज्ञानिक को भौतिक शास्त्र में नोबेल पुरस्कार दिया गया था – पर नोबेल पुरस्कारों के पूरे इतिहास में महिला वैज्ञानिकों की भरपूर उपेक्षा की गयी है।

इसका एक बड़ा कारण दुनियाभर के शिक्षण संस्थाओं में महिला वैज्ञानिकों की उपेक्षा भी है। पूरी दुनिया में विज्ञान के क्षेत्र में कुल प्रोफ़ेसर में से महज 10 प्रतिशत पर महिलायें हैं। एक तरफ तो महिलाओं और अश्वेतों की उपेक्षा और दूसरी तरफ अमेरिका और यूरोप के वैज्ञानिकों को जरूरत से ज्यादा बढ़ावा देना नोबेल प्राइज की खासियत शुरू से रही है।

इस वर्ष चिकित्सा (Medicine and Physiology) के क्षेत्र में अमेरिका में काम कर रहे दो वैज्ञानिकों को नोबेल प्राइज दिया गया है। यूनिवर्सिटी ऑफ़ कैलिफ़ोर्निया के प्रोफ़ेसर डेविड जूलियस और कैलिफ़ोर्निया स्थित स्क्रिप्प्स रिसर्च इंस्टिट्यूट के वैज्ञानिक प्रोफ़ेसर अर्देम पटपौतिओन (Prof.. David Julius & Prof Ardem Patapoutian) को इस वर्ष चिकित्सा का पुरस्कार स्पर्श की अनुभूति के विज्ञान पर अनुसंधान के लिए दिया गया है।

कहा जा रहा है कि इस अनुसंधान के बाद अनेक गंभीर बीमारियों के इलाज का नया रास्ता खुल जाएगा। भौतिक विज्ञान का नोबेल पुरस्कार प्रिन्सटन यूनिवर्सिटी के स्य्न्कुरो मनाबे, मैक्स प्लांक इंस्टिट्यूट फॉर मेटेरेयोलोजी के क्लाउस हस्सेलमन और यूनिवर्सिटी ऑफ़ रोम के जिओर्गियो परिसी (Syukuro Manabe, Klaus Hasselman & Giorgio Parisi) को जलवायु परिवर्तन से सम्बंधित अध्ययन के लिए दिया गया है।

रसायनशास्त्र का नोबेल पुरस्कार कैलिफ़ोर्निया स्थित स्क्रिप्प्स रिसर्च इंस्टिट्यूट के बेंजामिन लिस्ट को यूनिवर्सिटी ऑफ़ कैलिफ़ोर्निया के डेविड मैकमिलन (Benjamin List & David Macmillan) के साथ कार्बनिक उत्प्रेरक की खोज के लिए दिया गया है। ये उत्प्रेरक परम्परागत उत्प्रेरक की अपेक्षा पर्यावरण अनुकूल हैं और इनकी कीमत भी बहुत कम होगी। इन उत्प्रेरकों की मदद से नए श्रेणी की कारगर औषधियों के उत्पादन का मार्ग प्रशस्त होगा और इसके साथ ही नए हाई-टेक पदार्थ भी बनाए जा सकेंगे।

अर्थशास्त्र का नोबेल पुरस्कार अमेरिका में बसे तीन अर्थशास्त्रियों – डेविड कार्ड, जोशुआ अन्ग्रिस्ट और गुइदो इम्बेंस (David Card, Joshua Angrist & Guido Imneus) को दिया गया है। इन अर्थशास्त्रियों ने अर्थशास्त्र के सिद्धांतों का समाज के बीच प्रयोग किया है और बुनियादी सामाजिक समस्याओं के हल खोजने का प्रयास किया है। इन अर्थशास्त्रियों ने शिक्षा और आमदनी को प्रायोगिक तौर पर स्वास्थ्य और अर्थव्यवस्था से जोड़ा है।

वर्ष 2021 में साहित्य का नोबेल पुरस्कार इथियोपियाई मूल के, पर अब यूनाइटेड किंगडम में बस चुके लेखक अब्दुलरजाक गुरनाह (Abdulrazak Gurnah) को दिए जाने की घोषणा की गयी है। अब्दुलरजाक गुरनाह को यह पुरस्कार उपनिवेशवाद की भयावहता दर्शाने और विस्थापितों और शरणार्थियों के कठिन जीवन और संस्कृति दर्शाने के लिए दिया गया है। उन्होंने अब तक 10 उपन्यास और अनेक लघुकथाएं लिखे हैं और उनकी सभी रचनाएं विस्थापित जीवन के इर्दगिर्द केन्द्रित रहती हैं।

इस वर्ष नोबेल शांति पुरस्कार की घोषणा निश्चित तौर पर चौकाने वाली है, क्योंकि इस बार दुनिया के दो निष्पक्ष और निर्भीक पत्रकारों को यह पुरस्कार दिया गया है। इनके नाम हैं फिलीपींस की मारिया रेसा और रूस के दमित्री मुराटोव (Maria Ressa & Dmitry Muratov)। फिलीपींस की 58 वर्षीय मारिया वेब न्यूज़ पोर्टल राप्प्लेर डॉट कॉम की संस्थापक हैं और इससे पहले वे सीएनएन और एबीएस-सीबीएन के साथ काम कर चुकी हैं।

सरकार के विरुद्ध लिखने के कारण उनपर फिलीपींस की सरकार द्वारा अलग-अलग मामलों में 11 मुकदमे दायर किये गए हैं, कुछ में उन्हें दोषी भी करार दिया गया है पर वे जमानत पर जेल से बाहर हैं और निर्भीकता से पत्रकारिता कर रही हैं। भारत की तरह ही फिलीपींस में सरकार का विरोध करने वालों को सोशल मीडिया पर सरकारी अंधभक्तों द्वारा धमकाया और प्रताड़ित किया जाता है।

कुछ समय पहले मारिया के सोशल मीडिया अकाउंट पर हरेक घंटे औसतन 90 धमकी भरे मेसेज आते थे, पर मारिया इससे भी विचलित नहीं हुईं। मारिया ने पुरस्कारों की घोषणा के ठीक बाद कहा कि इस वर्ष का नोबेल शांति पुरस्कार निष्पक्ष पत्रकारों के कठिन परिश्रम को मान्यता देता है। उनके अनुसार पत्रकारिता की मूल भावना ही तथ्यात्मक निष्पक्ष पत्रकारिता है, और बिना तथ्यों की दुनिया झूठ और बेईमानी पर टिकी होती है। मारिया रेसा इससे पहले टाइम पत्रिका द्वारा 2018 में घोषित पर्सन ऑफ़ द ईयर भी रह चुकी हैं।

इसी वर्ष यूनेस्को ने प्रतिष्ठित प्रेस फ्रीडम पुरस्कार भी मारिया रेसा को दिया गया था। रूस के 59 वर्षीय दमित्री मुराटोव ने वर्ष 1993 से एक निष्पक्ष समाचार पत्र, नोवोया गजेटा, का प्रकाशन शुरू किया था और वर्ष 1995 से इसके एडिटर इन चीफ हैं। रूस में निष्पक्ष पत्रकारिता और राष्ट्रपति पुतिन की नीतियों का विरोध जानलेवा होता है, पर तमाम धमकियों और पाबंदियों के बाद भी दमित्री मुराटोव पत्रकारिता के प्रति अपने कर्तव्य से विमुख नहीं हुए।

पुरस्कारों के ठीक बाद रूस के कानून मंत्रालय ने दमित्री मुराटोव के साथ कुछ और पत्रकारों को विदेशी एजेंट करार दिया – इसका मतलब है इन समाचार पत्रों पर आर्थिक पाबंदी के साथ ही अन्य बहुत सी पाबंदियां। पुरस्कार की घोषणा के ठीक बाद दमित्री मुराटोव ने कहा कि वे रूस के निष्पक्ष पत्रकारिता का प्रतिनिधित्व करते रहेंगें और यह पुरस्कार उनके समाचार पत्र और रूस के उन तमाम पत्रकारों को समर्पित है, जिन्हें निष्पक्ष और निर्भीक पत्रकारिता की कीमत अपनी जान देकर चुकानी पडी। उन्होंने अनेक मारे गए पत्रकारों का नाम भी लिया और कहा कि ये सभी पत्रकार लोगों के अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को बहाल करने के प्रयासों में मारे गए।

इस बार के पुरस्कारों में कुल 13 लोगों को यह पुरस्कार दिए गए, जिसमें केवल एक महिला और एक अश्वेत हैं। एक पुरस्कार फिलीपींस, एक तंजानिया और एक जापानी मूल के व्यक्ति को मिला, जबकि शेष सभी अमेरिका या यूरोप के रहने वाले थे। शांति का पुरस्कार फिलीपींस की पत्रकार मारिया रेसा, साहित्य का पुरस्कार इथियोपिया के लेखक अब्दुलरजाक गुरनाह को और भौतिकी का पुरस्कार जापानी मूल के स्य्न्कुरो मनाबे को दिया गया है।

इन तीनों नामों में भी केवल मारिया रेसा फिलीपींस में रहती हैं, जबकि शेष दो यूरोप और अमेरिका में ही बस गए हैं। भले ही एक ही महिला को इस वर्ष नोबेल प्राइज दिया गया हो, पर 12 पुरुषों में से 3 के नाम डेविड से शुरू होते है – महिला से अधिक तो एक नाम के ही पुरुष हैं।

नोबेल प्राइज के साथ एक बड़ा सवाल यह भी है कि इससे आम जनता को क्या मिलता है, या आम जनता का जीवन स्तर कैसे सुधरता है? दरअसल जब से नोबेल प्राइज शुरू किये गए हैं, पूंजीवाद भी समाज पर हावी होता रहा है और अब चरम पूंजीवाद का दौर है। पूरी दुनिया की नीतियाँ पूंजीवादी व्यवस्था तय करती हैं, जो चन्द अमीरों को रोजाना पहले से अधिक अमीर और गरीबों को पहले से अधिक गरीब बनाती जा रही है।

हरेक वर्ष अर्थशास्त्र के नोबेल पुरस्कारों के बाद कहा जाता है कि पुरस्कार प्राप्त अर्थशास्त्रियों ने रियल-टाइम प्रयोग किये हैं और जनता की बुनियादी समस्याओं का समाधान खोजा है, पर दुनिया में अमीरों और गरीबों के बीच असमानता की खाई पहले से अधिक बढ़ जाती है। दूसरी तरफ निर्भीक और जुझारू पत्रकार समाज से विलुप्त हो चले हैं, यह दौर पूरी दुनिया में चल रहा है। खोजी पत्रकारिता की विधा बिल्कुल ख़त्म हो गयी है और अब जनता की समस्याओं को उजागर करने वाले अधिकतर पत्रकार सरकार और पुलिस के प्रचार तंत्र का हिस्सा बन गए हैं।

विस्थापन का दर्द भले ही साहित्य में सुर्खियाँ बटोर रहा हो, पर आज की दुनिया में यह दर्द लगातार बढ़ रहा है। आज के दौर में युद्ध या गृहयुद्ध या आतंकवाद से कम और केवल विस्थापन के दौरान अधिक लोग मारे जाते हैं - यह संख्या साल-दर-साल बढ़ रही है। नोबेल प्राइज भी पूंजीवाद से अछूते नहीं हैं – इसमें लॉबिंग खूब कारगर होती है और यह पूंजीवादी व्यवस्था में ही संभव है। पूंजीवादी व्यवस्था महिलाओं, अश्वेतों और आम जनता को खूब कुचलती है, फिर नोबेल प्राइज से आम जनता को कोई लाभ मिलने की चर्चा भी बेमानी है। 

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