भारी खतरों के बीच पत्रकारिता करते अफगानी पत्रकार और पेशे का जनाजा निकालती भारतीय मीडिया

हाल में ही अफ़ग़ानिस्तान में पत्रकार फातिमा अहमदी को जब तालिबानी समर्थकों द्वारा लगातार जान से मारने की धमकी मिलाने लगी, तब उन्हें गजनी से हेलीकॉप्टर द्वारा काबुल के एक सुरक्षित ठिकाने पर पहुंचाया गया...

Update: 2021-05-05 08:27 GMT

photo : social media

वरिष्ठ लेखक महेंद्र पाण्डेय की टिप्पणी

जनज्वार। हमारे देश में पत्रकारिता का पेशा सरकार के प्रचार-प्रसार से अधिक कुछ बचा नहीं है, पर दुनियाभर में ऐसा नहीं है। पत्रकारिता का पेशा भले ही लगातार खतरनाक होता जा रहा हो, पर अफ़ग़ानिस्तान जैसे देश के पत्रकार भी मौत के साए में रहते हुए अपने पेशे से न्याय कर रहे हैं।

हाल में ही अफ़ग़ानिस्तान में पत्रकार फातिमा अहमदी को जब तालिबानी समर्थकों द्वारा लगातार जान से मारने की धमकी मिलाने लगी, तब उन्हें गजनी से हेलीकॉप्टर द्वारा काबुल के एक सुरक्षित ठिकाने पर पहुंचाया गया। फातिमा इस समय भी पत्रकारिता कर रही हैं, और उनके अनुसार पत्रकारिता केवल मेरा पेशा नहीं है, बल्कि यह मेरी पहचान है और जब तक जिन्दा हूँ, अपनी पहचान पर कोई धब्बा नहीं लगाने दूंगी।

अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान और सरकार के बीच गृहयुद्ध लगातार बढ़ता जा रहा है, और इसके बीच अमेरिका ने घोषणा कर दी है कि वर्ष 2001 से अफ़ग़ानिस्तान में शांति के लिए बहाल किये गए अमेरिका और नाटो की सेना 11 सितम्बर तक वापस चली जायेगी। इस घोषणा के बाद से अफ़ग़ानिस्तान में एक बार फिर नागरिकों और विशेष तौर पर पत्रकारों के बीच डर का माहौल पनपने लगा है, क्योंकि उन्हें लगता है कि इसके बाद वहां तालिबान का राज कायम हो जाएगा, जो कट्टर इस्लामी कानूनों के पक्षधर हैं। तालिबान के क्षेत्रों में सबसे अधिक पाबंदियां महिलाओं पर होती है और इनका दर्जा समाज के सबसे वंचित समूह का होता है।

तालिबान के अनुसार महिलाओं का गाना, नृत्य, पत्रकारिता और घर से बाहर निकलना भी प्रतिबंधित है। अमेरिका की सेना के रहते भले ही पूरी शांति कभी बहाल न हुई हो, पर कुछ क्षेत्रों में तरक्की तो हो रही थी। जाहिर है इसके बाद तरक्की तो दूर, समाज और पीछे चला जाएगा। वर्ष 2001 में अमेरिकी सेना की तैनाती के पहले अफ़ग़ानिस्तान में 10 से भी कम बच्चे स्कूल जाते थे, जबकि अब 90 लाख से अधिक बच्चे स्कूल जाते हैं और इसमें 40 प्रतिशत बालिकाएं हैं। वर्ष 2001 से पहले अफ़ग़ानिस्तान के नागरिकों की औसत उम्र 44 वर्ष थी, जो अब बढ़कर 60 वर्ष से ऊपर पहुँच चुकी है।

संयुक्त राष्ट्र के अनुसार अफ़ग़ानिस्तान में वर्ष 2018 के बाद से 30 से अधिक पत्रकारों की ह्त्या की जा चुकी है। हालां की हरेक ऐसी हत्या को तालिबानी संगठनों से जोड़ दिया जाता है, पर अधिकतर मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के अनुसार गृहयुद्ध की विभीषिका झेल रहे देश में खोजी पत्रकारिता से सरकार भी डरती है और ऐसे पत्रकारों को कुचलना चाहती है।

अफ़ग़ानिस्तान जर्नलिस्ट्स सेफ्टी समिति के अनुसार देश में लगभग 10000 पत्रकार हैं और इनमें से 20 प्रतिशत से अधिक महिला पत्रकार हैं। महिला पत्रकारों पर खतरे अधिक हैं, और पिछले वर्ष मारे गए अधिकतर पत्रकारों में महिलायें थीं। अफ़ग़ानिस्तान जर्नलिस्ट्स सेफ्टी समिति के अध्यक्ष नजीब शरिफी के अनुसार पत्रकारों पह हमले सामान्य हैं, और इन्हें चुनकर मारा जा रहा है। कुछ पत्रकार ऐसे भी हैं जिन्होंने विवादास्पद समाचार लिखना बंद कर दिया है, पर अधिकतर पत्रकार अपने पेशे में इमानदार हैं और इसका नतीजा उन्हें भुगतना पड़ रहा है। पिछले 6 महीनों में लगभग 18 प्रतिशत महिला पत्रकारों ने पत्रकारिता को अलविदा कह दिया है। इस वर्ष अबतक पत्रकारों को 132 सीधी धमकियां मिल चुकी हैं, यह संख्या पिछले वर्ष की तुलना में 26 प्रतिशत अधिक है।

अफ़ग़ानिस्तान में पत्रकारों की सहायता के लिए इन्टरनेशनल मीडिया सपोर्ट नामक संस्था ने कुछ शहरों में अति-सुरक्षित आवास बनाए हैं, जहां 30 से अधिक पत्रकारों को रखा गया है, और कुछ ऐसे पत्रकार जिन्हें अधिक खतरा था उन्हें विदेश भेज दिया गया है।

अफ़ग़ानिस्तान में वर्ष 2019 के बाद से पत्रकारों पर चुनिन्दा हमले बढ़ गए हैं। इंटरनेशनल मीडिया सपोर्ट की सलाहकार सुसाना इन्किनेन के अनुसार उनकी संस्था अफ़ग़ानिस्तान में पत्रकारों को सुरक्षित जीवन देने के लिए प्रतिबद्ध है और इसके लिए जितने भी आवश्यक कदम हैं, उठाये जा रहे हैं।

इतने खतरों के बाद भी अफ़ग़ानिस्तान के पत्रकार अपने पेशे को जिन्दा रखे हुए हैं, और दूसरी तरफ हमारा देश है जान तमाम सुविधाओं के बाद भी पत्रकारिता का जनाजा निकल गया है।

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