ट्रम्प और मोदी नई लोकतांत्रिक तानाशाही के पुरोधा, सोशल और मेनस्ट्रीम मीडिया करता है इनका प्रचार

इस समय भारत ही नहीं दुनियाभर में श्रमिक अपना सबकुछ गवां चुके हैं, ऐसे में उनके पास और खोने को कुछ नहीं बचा है, फिर भी इस पूरे वर्ग में एक अजीब सी खामोशी है, विद्रोह के तेवर नदारद हैं....

Update: 2020-08-28 10:29 GMT

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महेंद्र पाण्डेय की टिप्पणी

जनज्वार। इस समय दुनिया पूंजीवाद समर्थित सामंतवादी दौर से गुजर रही है। पूरी सुनिया पर इस विचारधारा का कब्ज़ा है और सारे सामंत या तानाशाह एक दूसरे से जुड़े हैं और एक दूसरे की मदद के लिए तत्पर हैं। दरअसल, ऐसे सामंतों का अस्तित्व ही एक दूसरे पर टिका है।

ट्रम्प ब्राज़ील और भारत की मदद करते हैं, रूस के राष्ट्रपति की मदद से चुनाव जीतते हैं तो जाहिर है उनका समर्थन करते है। भारत के प्रधानमंत्री भी अमेरिकन-भारतीय मूल के लोगों के बीच अबकी बार ट्रम्प सरकार का नारा लगाते हैं और ट्रम्प अपने चुनाव प्रचार में उनकी फोटो का इस्तेमाल करते हैं।

ब्राज़ील के राष्ट्रपति बोल्सेनारो तो ट्रम्प के सहयोग से अपने विरोधियों को साधने में लगे हैं। रूस एक तरफ तो बेलारूस के तामाशाह राष्ट्रपति का समर्थन करते हुए उनके आन्दोलनकारी विरोधियों को कुचल रहा है, और दूसरी तरफ चीन के साथ भी खड़ा है।

रूस के राष्ट्रपति पुतिन अपने विरोधियों को जहर खिला रहे हैं और ब्राज़ील के राष्ट्रपति सवाल पूछते पत्रकार को ऑन कैमरा कहते हैं कि तुम्हारा सिर फोड़ डालना चाहिए। चीन हांगकांग के शांतिपूर्ण आंदोलनों का दमन कर रहा है। थाईलैंड में हजारों मानवाधिकार कार्यकर्ता बिना किसी आरोप के जेल में डाले जा रहे हैं।

जॉर्डन में राजशाही है, फिर भी अबतक कुछ आजादी थी, मगर अब तानाशाही का रंग यहाँ पर भी चढने लगा है। जॉर्डन का सबसे बड़ा ट्रेड यूनियन वहां के शिक्षकों का है, जिसके लगभग एक लाख सदस्य हैं। इस यूनियन ने पिछले वर्ष अक्टूबर में वहां सरकार का विरोध किया था, और अब इस ट्रेड यूनियन के एक हजार से अधिक सक्रिय सदस्यों और अधिकारियों को जेल में दाल दिया गया है।

अफ्रीकी देश माली में सेना ने चुनी सरकार को गिराकर अब फिर से लोकतंत्र की बहाली का ऐलान किया है, पर इसमें सेना की महत्वपूर्ण भागीदारी रहेगी। लेबनान के बेरुत में हाल में हुए धमाके के बाद आन्दोलनकारियों के दबाव में पूरी सरकार को इस्तीफा देना पड़ा। ब्राज़ील, ईजिप्ट, इजराइल, टर्की और भारत में तथाकथित लोकतांत्रिक सरकारों ने अपने देशों में जनता की आवाजों को दबा दिया है और लोकतांत्रिक व्यवस्था की आड़ में तानाशाही रवैय्या अपना लिया है।

वर्ष 2019 को आन्दोलनों का वर्ष कहा गया था, क्योंकि इस वर्ष भारत समेत दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में अनेक आंदोलन शुरू किये गए थे, और इनमें से अनेक का अंत लॉकडाउन से ही हुआ। दुनियाभर में इस समय लोकतंत्र अपने सबसे निचले स्तर पर पहुँच चुका है, और लोकतंत्र के नाम पर निरंकुश सरकारें हैं, जिनके लिए जनता कुछ भी नहीं है। सम्भवतः इसीलिये दुनिया के अधिकतर देशों ने कोविड 19 से निपटने का एक ही रास्ता चुना, जो लॉकडाउन का था।

दुनियाभर की सरकारों ने केवल लॉकडाउन ही नहीं लगाया, बल्कि कोविड 19 का नाम लेकर पुलिस और सुरक्षा बलों को असीमित अधिकार देकर अपने ही नागरिकों के विरुद्ध खड़ा कर दिया। इन सबके बीच, कोविड 19 के मामले अपनी गति से बढ़ते रहे, लोग मरते रहे और सरकारी अतिवादी नीतियों का शिकार होते रहे, भूख और बेरोजगारी से घिरते रहे, प्रवासी श्रमिक हजारों किलोमीटर पैदल चलते रहे और सरकारें इन सबकी आड़ में अपने अघोषित एजेंडा पूरा करती रही।

हमारे देश में प्रवासी श्रमिकों का हाल, अमेरिका में मौत के भयावह आंकड़े, कोविड 19 के नाम पर रूस, ब्राज़ील, इजराइल, इंग्लैंड जैसे देशों के शासकों का हाल और निरंकुश शासकों के कारनामे दुनिया देख रही है। यही कारण है कि कोविड 19 के दौर में जब वापस दुनिया सामान्य भी नहीं हो पाई, पर जन-आंदोलन का दौर शुरू हो गया।

अधिकतर सरकारें कोविड 19 का सामना जनता के हितों का ध्यान रखते हुए भी इससे बेहतर तरीके से कर सकतीं थीं, पर अधिकतर सरकारों ने इसे युद्ध का नाम दिया और ऐसा माहौल तैयार किया, जिसमें जनता कहीं थी ही नहीं। जाहिर है जनता क्रुद्ध होगी, पर आने वाला समय ही बता पायेगा कि इससे सम्बंधित बड़े आन्दोलन होंगे या नहीं। फिलहाल तो कोविड 19 से उपजे सामाजिक और आर्थिक संकट से जनता को बचाने में अधिकतर सरकारें असफल रहीं हैं, पर आन्दोलन के लिए जनता सड़कों पर उतर गई है।

समाज शास्त्रियों को भी अब यह समझ में नहीं आ रहा है कि भारत समेत अधिकतर देशों में जनता का गुस्सा और विद्रोह कहाँ चला गया है? इस समय भारत ही नहीं दुनियाभर में श्रमिक अपना सबकुछ गवां चुके हैं, ऐसे में उनके पास और खोने को कुछ नहीं बचा है, फिर भी इस पूरे वर्ग में एक अजीब सी खामोशी है, विद्रोह के तेवर नदारद हैं।

अब तो अधिकतर समाजविज्ञानी यह तक कहने लगे हैं कि आज के शासक पिछली शताब्दी के शासकों की तुलना में अधिक भाग्यशाली हैं, क्योंकि अब विरोध के सुर गायब हो रहे हैं। फिर भी कुछ मानवाधिकार समर्थकों को उम्मीद है कि जनता में अभी तक शायद आन्दोलन के कुछ अंश बाकी हैं और अपने समर्थन में वे कुछ आन्दोलनों का उदाहरण देते हैं जो कोविड 19 के दौर में भी किये गए।

आन्दोलनों की उम्मीद लगाए विशेषज्ञों का कहना है कि बस देखना यह है कि आन्दोलन माओ, मार्क्स, गुएवारा या कास्त्रो जैसे हिंसक होंगे या फिर गांधी जैसे अहिंसक। कुछ भी हो, इतना तो तय है कि कोविड 19 के पहले और बाद की दुनिया एक जैसी नहीं होगी। फिलहाल बुजुर्ग आबादी अधिक प्रभावित हो रही है और युवा कम प्रभावित है। भारत और अफ्रीका की आबादी में बड़ा हिस्सा युवा का है, पर क्या युवा अपनी समस्याएं समझता है – इस पर भविष्य के आन्दोलन निर्भर करेंगे।

आन्दोलनों के मौलिक कारण सदियों से एक ही रहे हैं। प्रसिद्ध दार्शनिक अरस्तु ने लगभग 2300 वर्ष पहले अपनी पुस्तक "बुक 5 ऑफ़ द पॉलिटिक्स" में बताया था कि आन्दोलन के मुख्य कारण अन्याय और असमानता हैं। उन्होंने आगे लिखा था कि सबको न्याय नहीं मिलने से समाज में असमानता और बढ़ती है, इसलिए आन्दोलनों का सबसे बड़ा कारण असमानता है।

कोविड 19 से सम्बंधित बहुत से तथ्यों पर आपसी विरोध हो सकता है, पर इसके दो प्रभावों पर कोई बहस नहीं की जा सकती। इसका प्रभाव पूरी दुनिया के हरेक व्यक्ति पर पड़ा है, यानि कोविड 19 ने कोई भी भेदभाव नहीं दिखाया। दूसरी तरफ इसके प्रभावों ने दुनिया में हरेक तरह की असमानता – सामाजिक वर्ग, जाति, वर्ण, आमदनी, पोषण, शिक्षा, रहन-सहन, भौगोलिक दूरी, लिंग और उम्र – को पहले से अधिक स्पष्ट कर दिया है। कोविड 19 के बाद हरेक तरीके की असमानता केवल गरीब और विकासशील देशों में ही स्पष्ट नहीं हुई है, बल्कि अमेरिका और यूरोपीय देशों में भी पहले से अधिक स्पष्ट हो गयी हैं।

दरअसल, दुनिया में लोकतंत्र को अपने जनता से दूर ले जाने में अमेरिका और भारत जैसे देशों का बहुत बड़ा हाथ है, जहां इसके नाम पर तानाशाही हुकूमत आ गई और दुनिया में विरोध के स्वर भी नहीं उठे। इसके बाद तो दुनिया के अधिकतर छोटे-बड़े देश इसका अनुकरण करने लगे और इसे नई वैश्विक व्यवस्था में तब्दील कर दिया।

अमेरिका में तो ट्रम्प ने अमेरिकी प्रजातंत्र को खुलेआम ध्वस्त किया, चुमावों में रूस, चीन और भारत को दखलंदाजी करने का न्योता दिया, क़ानून व्यवस्था को भी बदल डाला, अपने ही देश के संस्थाओं और विभागों पर हमला किया – फिर भी देश और दुनिया में लोकप्रिय बने रहे। ट्रम्प और मोदी ही नई लोकतांत्रिक तानाशाही के पुरोधा हैं, और पूरी दुनिया के शासक ही नहीं बल्कि लगभग सभी सोशल मीडिया प्लेटफ़ोर्म और मेनस्ट्रीम मीडिया इनका अनुसरण कर रहे हैं और इनका प्रचार कर रहे हैं।

कोविड 19 के बाद आवश्यक है कि सरकारें गरीबी उन्मूलन और आर्थिक असमानता पर नए सिरे से पर प्राथमिकता के आधार पर विचार करें। इसके साथ ही जलवायु परिवर्तन, पानी, ऊर्जा और वन्यजीवों के व्यापार और विलुप्तीकरण पर भी ध्यान देने की आवश्यकता है।

दरअसल पूरे आर्थिक और राजनीतिक परिवेश में आमूल परिवर्तन की जरूरत है। पहले जिस जन-कल्याण अर्थव्यवस्था पर लोग ध्यान नहीं देते थे, अब उसे अपनाने का समय आ गया है। इस प्रकार की अर्थव्यवस्था में आर्थिक विकास का पैमाना जीडीपी नहीं होता बल्कि पैमाना जनता की खुशी और समृद्धता होती है।  

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