उत्तराखंड मुक्त विश्वविद्यालय : हेराफेरी और कुलपति की कृपा से मिली पत्रकारिता की प्रोफेसरी, RTI से हुआ भंडाफोड़
जनज्वार। उत्तराखंड मुक्त विश्वविद्यालय (यूओयू) में प्रोफ़सर के 25 पदों पर हुई नियुक्ति में भ्रष्टाचार को लेकर हर रोज़ चौंकाने वाले तथ्य सामने आ रहे हैं। आरटीआई के जरिये मिले दस्तावेज़ गवाही दे रहे हैं कि इन नियुक्तियों को कुलपति के अगुवाई में सोची-समझी रणनीति के तहत अंजाम दिया गया है। जिसकी शुरुआत पदों को विज्ञापित करने से पहले ही आरक्षण रोस्टर में खिलवाड़ कर हो चुकी थी। ऐसा ही एक सनसनीखेज मामला पत्रकारिता विभाग से सामने आया है। यहां सारे नियमों को ताक पर रखकर कोविड काल में विश्वविद्यालय के जनसंपर्क अधिकारी (पीआरओ) राकेश रयाल को बिना जरूरी योग्यता के एसोसिएट प्रोफ़ेसर बना दिया गया।
विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) के नियमों के मुताबिक़ एसोसिएट प्रोफेसर बनने की न्यूनतम योग्यता असिस्टेंट प्रोफेसर स्तर पर आठ साल का अनुभव है। इसके लिए यूजीसी ने ठोस नियम बना रखे ताकि चोर दरवाजे से किसी का प्रवेश ना कराया जा सके। रयाल की नियुक्ति में इन्हीं मानकों को ठेंगा दिखाया गया है। सबसे बड़ी हैरानी की बात ये भी है कि राज्यपाल के पास इंटरव्यू से सात महीने पहले उनकी अवैध नियुक्ति की तैयारी की सूचना पहुंचने और स्क्रीनिंग कमेटी की आपत्ति के बाद भी उनकी नियुक्ति कर दी गई।
रयाल ने अपनी एमफिल और पीएचडी की डिग्री भी गैरकानूनी तरीके से एक ही समयावधि में अलग-अलग विश्वविद्यालयों से ले रखी है। पूरे मामले में बाकी दस्तावेजों के साथ छेड़छाड़ की भी एक आपराधिक साजिश नजर आती है।
अनुभव के दस्तावेजों में हेराफेरी
राकेश रयाल ने असिस्टेंट प्रोफ़ेसर के बराबर का 16 वर्षों का अनुभव दिखाया है। लेकिन आरटीआई के माध्यम से हासिल दस्तावेज उनके दावों की पोल खोल देते हैं। उन्हें असिस्टेंट प्रोफेसर या उसके समकक्ष वेतनमान पर काम करने का कोई अनुभव नहीं है।
रयाल ने पीएचडी की डिग्री जुलाई 2011 में हासिल की है। यूजीसी रेग्यूलेशन- 2009 के मुताबिक़ ये डिग्री असिस्टेंट प्रोफ़ेसर बनने के लिए मान्य नहीं है। रयाल ने असिस्टेंट प्रोफेसर बनने के लिए जरूरी राष्ट्रीय दक्षता परीक्षा (नेट) भी पास नहीं की है। एसोसिएट प्रोफेसर बनने के लिए उनका कोई भी अनुभव असिस्टेंट प्रोफेसर पर योग्य होने के बाद से ही शुरू हो सकता है। बाद में यूजीसी रेग्लूलेशन-2016 में पीएचडी के मामले में कुछ छूट दी गई थी। इस लिहाज से भी 2016 से पहले वे किसी हालत में असिस्टेंट प्रोफेसर बनने के काबिल नहीं थे। 2016 के रेग्यूलशन में भी प्रवेश परीक्षा के जरिए पीएचडी और न्यूनतम छह महीने के कोर्स वर्स जैसी कुछ परिभाषित शर्तें हैं। रयाल इन योग्यताओं को भी पूरा नहीं करते हैं। इससे साफ़ होता है कि उनकी नियुक्ति बिना ज़रूरी शर्तों को पूरा किये की गई है। रयाल ने अक्टूबर 2019 में एसोसिएट प्रोफेसर का आवेदन पत्र भरा था।
राकेश रयाल ने गढ़वाल विश्वविद्यालय के बादशाहीथौल कैंपस में 2005 से 2010 के बीच असिस्टेंटट प्रोफेसर का अनुभव बताया है। जबकि फ़ार्म में प्रमाण पत्र उन्होंने अंश कालिक (पार्ट-टाइम) शिक्षक का लगाया है। तब वे सिर्फ़ एमए पास थे और किसी भी लिहाज़ से असिस्टेंट प्रोफेसर बनने के योग्य नहीं थे। बाद में राकेश रयाल ने 2010 से 2014 तक उत्तराखंड मुक्त विश्वविद्याल में अकादमिक परामर्शदाता, असिस्टेंट प्रोफेसर, गेस्ट फैकल्टी और सीनियर अकेडेमिक एसोसिएट के तौर पर अपना अनुभव दिखाया है। उन्होंने गलत दस्तावेजों की मदद से अपनी योग्यता साबित करने की कोशिश की है।
रयाल ने उत्तराखंड मुक्त विश्वविद्यालय के दो अलग अलग प्रमाण पत्रों में अपने अनुभव की समयावधि अलग-अलग दिखाई है। ये खुलेआम दस्तावेज़ों में हेराफेरी का मामला है। यूओयू की तरफ से 2011 में जारी एक प्रमाण पत्र में रयाल अपना अनुभव 19 जुलाई 2010 से 31 मार्च 2011 तक अकादमिक परामर्शदाता (21 हज़ार प्रतिमाह) के तौर पर दिखाते हैं। जबकि 2015 में जारी दूसरे प्रमाण पत्र में यही अनुभव 31 मार्च 2010 से 30 अप्रैल 2011 तक दिखाया गया है। हैरानी की बात ये है कि 1 मई 2011 से 20 अगस्त 2011 तक अपना अनुभव असिस्टेंट प्रोफेसर के तौर पर दिखाते हैं। अब सवाल ये उठता है कि वे 1 अप्रैल 2010 से 30 अप्रैल 2010 तक अकादमिक परामर्शदाता थे या असिस्टेंट प्रोफेसर? गौरतलब है कि तब उनके पास असिस्टेंट प्रोफेसर बनने की जरूरी योग्यता (नेट या पीएचडी) नहीं थी। (दस्तावेज़ संग्लग्न हैं)।
चौंकाने वाली बात ये भी है जिस समयावधि में रयाल अस्थाई तौर पर यूओयू में असिस्टेंट प्रोफेसर होना बताते हैं। उस दौर में अकादमिक परामर्शदाता के तौर पर काम करने वाले किसी भी दूसरे व्यक्ति को ये पदनाम नहीं दिया गया था। और ना ही असिस्टेंट प्रोफेसर के लिए ये पद विज्ञापित किया गया था। तब सवाल उठता है कि उन्होंने असिस्टेंट प्रोफेसर का अनुभव कैसे दिखा दिया। क्या ये सर्टिफिकेट फर्जी नहीं है?
रयाल ने 21 अगस्त 2011 से 31 अगस्त 2012 तक अकेडमिक परामर्शदाता (25 हजार), 3 सितंबर 2012 से 16 अप्रैल 2013 तक गेस्ट फैकल्टी (25 हजार), 17 अप्रैल 2013 से 18 मई 2014 तक सीनियर अकेडमिक परामर्शदाता (35 हज़ार) के तौर पर नियुक्ति दिखाई है। ये अनुभव भी किसी लिहाज के असिस्टेंट प्रोफेसर के बराबर नहीं है। यूजीसी रेग्यूलेशन-2018 के ही विंदु 10।0 (e) में साफ़ लिखा है कि किसी भी तरह के गेस्ट फैकल्टी का अनुभव नहीं जोड़ा जाएगा। सबसे साफ़ शर्त ये है (विंदु10 f (iii)) कि वही पद असिस्टेंट प्रोफेसर के बराबर माने जाएंगे जिनका वेतनमान नियमित असिस्टेंट प्रोफेसर के बराबर होगा।
विश्वविद्यालय अपना काम चलाने के लिए अकादमिक एसोसिएट की भर्ती करते हैं। इनकी नियुक्ति में कभी भी असिस्टेंट प्रोफेसर की तरह विशेषज्ञ स्क्रीनिंग कमेटी दस्तावेजों की जांच नहीं करती। और ना ही इन नियुक्तियों को नियमित असिस्टेंट प्रोफेसर के स्थान पर किया जाता है। वॉक-इन इंटरव्यू में लोग आकर चयनित हो जाते हैं और विभाग का ही कोई प्रोफेसर इंटरव्यू ले रहा होता है। हर छह या तीन महीने में दो-चार दिन का ब्रेक देकर इनका कार्यकाल बढ़ाया जाता है और भुगतान भी असिस्टेंट प्रोफेसर की तुलना में काफी कम किया जाता है।
विश्वविद्याल में कई व्यक्ति एक दशक से ज्यादा वक़्त से अकादमिक एसोसिएट के तौर पर काम कर रहे हैं लेकिन उन्हें कभी नियमित असिस्टेंट प्रोफेसर के समकक्ष या एसोसिएट प्रोफेसर के योग्य नहीं माना जाता है। अब ऐसे घोटाले से इस तरह के सभी एकेडेमिक एसोसिएट हैरान हैं। अगर विश्वविद्याल ने साफतौर पर विज्ञापनों में ऐसे अनुभवों को जोड़ने की बात की होती तो वे शिक्षक भी एसोसिएट प्रोफेसर के पद पर आवेदन कर चुके होते। सवाल ये उठता है कि क्या विश्वविद्यालय भविष्य में भी अकेडेमिक एसोसिएट के अनुभव को एसोसिएट प्रोफेसर बनने के लिए पर्याप्त मानेगा? क्या यूजीसी या कोई दूसरा विश्वविद्यालय इस अनुभव को असिस्टेंट प्रोफेसर की मान्यता देगा?
राकेश रयाल ने 2014 से 2019 में फॉर्म भरे जाने तक जन संपर्क अधिकारी (पीआरओ) के पद पर क़रीब पांच साल का अनुभव दिखाया है। इस अनुभव को भी एसोसिएट प्रोफेसर के पद पर नियुक्ति को पूरा करने वाला बताया गया है। जबकि विश्वविद्यालय के पीआरओ का ग्रेड पे असिस्टेंट प्रोफेसर से काफी नीचे है। यूजीसी रेग्यूलेशन-2018 पत्रकारिता और जन संचार जुड़े विषयों में एसोसिएट प्रोफेसर बनने के लिए शिक्षण, शोध या इंडस्ट्री में अनुभव को मान्यता देता है। लेकिन उसकी शर्तों के मुताबिक़ अनुभव रखने वाले व्यक्ति का ग्रेड पे या सैलरी नियमित असिस्टेंट प्रोफेसर के बराबर होनी चाहिए। और ये अनुभव न्यूनतम आठ वर्ष पूरा होना चाहिए।
सबसे बड़ी हैरानी की बात ये है कि एसोसिएट प्रोफेसर की योग्यता जांच करने के लिए बनी विशेषज्ञ समिति (स्क्रीनिंग कमेटी) ने रयाल के अनुभव को एसोसिएट प्रोफेसर बनने के काबिल नहीं पाया था। स्क्रीनिंग कमेटी में प्रो। गोविंद सिंह, प्रो। गिरीश रंजन तिवारी और प्रो। डीएस पोखरिया थे। लेकिन कुलपति ने नियमों के विपरीत एक मनमानी ग्रीवांस कमेटी बनाकर उन्हें इंटरव्यू के लिए बुला लिया और उनकी नियुक्ति भी कर ली। नियमानुसार स्क्रीनिंग कमेटी की सिफारिशों की समीक्षा सिर्फ़ वही स्क्रीनिंग कमेटी कर सकती है या फिर कुलपति नई स्क्रीनिंग कमेटी बना सकते हैं। इस मामले में ऐसा नहीं किया गया। विश्वविद्यालय की परिनियमावली में ग्रीवांस कमेटी की कोई व्यवस्था नहीं है।
एसोसिएट प्रोफेसर के पद पर कुल 14 आवेदन प्राप्त हुए थे जिसमें से स्क्रीनिंग कमेटी ने किसी को भी योग्य नहीं पाया था। इसमें कानपुर विश्वविद्यालय में 13 वर्षों से नियमित तौर पर असिस्टेंट प्रोफेसर जीतेंद्र डबराल को भी एसोसिएट प्रोफेसर के योग्य नहीं पाया गया था। लेकिन जब डबराल ने कुलपति और कुलाधिपति से इन नियुक्तियों में गड़बड़ी की आशंका को देखते हुए इन्हें रद्द करने की मांग की तो उन्हें भी इंटरव्यू के लिए बुला लिया गया। डबराल पहले से फिक्स हो चुकी नियुक्ति को भांपकर इंटरव्यू के लिए नहीं आये और उन्होंने इस पर मोहर लगने से पहले विश्वविद्यालय कार्यपरिषद के सदस्यों को पत्र लिखकर भी रयाल की नियुक्ति को रद्द करने की मांग दोहराई।
एक ही समय ले रहे थे दो विश्विद्यालयों से डिग्रियां
राकेश रयाल की कार्यप्रणाली और पिछली नियुक्तियां भी विश्वविद्यालय में विवादों से घिरी रही हैं। 2014 में जब उनकी नियुक्ति पीआरओ के पद पर हुई थी तब भी उस नियुक्ति पर भी घपले के आरोप लगे थे और उसका विरोध हुआ था। रयाल के प्रशासन से अपनी निकटता का फायदा उठाते हुए तब भी पीआरओ के विज्ञापन में उन योग्यताओं का जिक्र करवा लिया था जिस हिसाब से वे सबसे योग्य ठहरते। इस सिलसिले में एक जांच भी शुरू हुई थी लेकिन वक्त के साथ उस प्रक्रिया को ठंडे बस्ते में डाल दिया गया।
आम तौर पर पीआरओ की भर्ती के लिए पत्रकारिता या जनसंचार में एमए या पीजी डिप्लोमा के साथ पीआर या पत्रकारिता का अनुभव मांगा जाता है। लेकिन पीआरओ के लिए निकले तब के विज्ञापन में एफफिल और पीएचडी के अंक भी जोड़े गए थे। इस तरह स्क्रीनिंग कमेटी ने रयाल को 50 में से 50 अंक दिये थे। (दस्तावेज संग्लग्न है)।
रयाल के दस्तावेजों को देखते हुए एक और बड़ा घपला सामने आता है। वे एक ही समयावधि में अलग-अलग विश्वविद्यलायों से एमफिल और पीएचडी कर रहे थे। उन्होंने 2011 में गढ़वाल विश्वविद्यालय से पीएचडी दिखा रखी है। इसके लिए रजिस्ट्रेशन की तारीख़ 21 दिसंबर 2006 है। स्पष्ट है कि इससे काफी पहले उनका पीएचडी में प्रवेश हो चुका था। पीएचडी में रजिस्ट्रेशन प्रवेश होने के बाद तब होता है जब शोध प्रस्ताव पास हो जाता है। अब सबसे बड़ा गड़बड़झाला ये है कि इसी अवधि में रयाल ने अपनी एमफिल की डिग्री भी दिखा रखी है।
रयाल ने हरियाणा के चौधरी देवी लाल विश्वविद्यालय में एमफिल की परीक्षा जून 2007 में दी और उन्हें इसकी डिग्री 18 सितंबर 2007 को मिली। एमफिल की अवधि एक साल थी। तो निश्चित तौर पर रयाल ने परीक्षा से कम से कम एक साल पहले एमफिल में प्रवेश ले लिया होगा। एक साथ अलग-अलग विश्वविद्यालयों में एमफिल और पीएचडी में प्रवेश होना ग़ैरक़ानूनी है। इस अपराध की गंभीरता तब और बढ़ जाती है कि जब कोई इन दोनों डिग्रियों का एक साथ फायदा उठा रहा हो।
दो विश्वविद्यालयों में एक साथ प्रवेश लेने का मामला और भी संगीन हो जाता है। जब पीआरओ और एसोसिएट प्रोफेसर के चयन में दोनों के अंक जोड़े गये हों। इस मामले में घालमेल इस बात से भी पता चलता है कि रयाल की मास्टर डिग्री और पीएचडी में विश्वविद्यालय की नामांकन संख्या एक ही है। क्या उन्हें देवीलाल विश्वविद्यालय ने गढ़वाल विश्ववद्यालय से बिना माइग्रेशन सर्टिफिकेट लिए ही में प्रवेश दे दिया था? या उन्होंने वहां कोई फर्जी माइग्रेशन सर्टिफिकेट जमा किया था? गौरतलब है कि कोई भी विश्वविद्यालय बिना माइग्रेशन सर्टिफिकेट के प्रवेश नहीं देता है।
रयाल ने फर्जीबाड़े का भेद खुलने के डर से अभी पीआरओ के पद से इस्तीफ़ा नहीं दिया है। कुलपति की मेहरबानी से रयाल को फिलहाल इस पद से एक साल का अवकाश दिया गया है। विश्वविद्यालय की नियमावली के मुताबिक गैर अकादमिक पदों के लिए इस तरह के अवकाश की कोई व्यवस्था नहीं है। हैरानी की बात ये है कि एसोसिएट प्रोफेसर बनने और पीआरओ से अवकाश में होने के बाद भी पीआरओ का काम रयाल देखते रहे। बाद में इस गड़बड़ी की तरफ़ ध्यान जाने के बाद किसी और को पीआर का चार्ज दिया गया।
जब सैंय्या भये कोतवाल तो डर काहे का?
रयाल ने एसोसिएट प्रोफेसर के लिए आवेदन करते वक़्त अपने दर्जनों शोध पत्र और कई किताबें प्रकाशित दिखा रखी हैं। अंग्रेजी में लिखे एक शोध पत्र में तथ्यों और ग्रामर की भीषण गलतियां हैं। साथ ही सभी शोध पत्रों में ज़रूरी संदर्भ नहीं दिये गये हैं या ग़लत तरीके से दिये गये हैं। इस सिलसिले में अगर साहित्य चोरी (प्लेजियरिज्म) की जांच हो जाए और उनकी गुणवत्ता परखी जाये तो एक और बड़ी गड़बड़ी सामने आ सकती है। हिंदुस्तान में पैसे देकर निम्न स्तर के शोधपत्र और किताबें छपवाकर नियुक्तियों में नंबर बढ़ाने का चलन आम होता जा रहा है। इसलिए रयाल द्वारा पेश किये गये जर्नल और किताबों की भी एक निष्पक्ष कमेटी से जांच की जा सकती है। यूजीसी के नियमों के मुताबिक पीयर रिव्यूड या यूजीसी लिस्टेड जर्नल में ही प्रकाशन मान्य है। रयाल ये शर्त भी पूरी नहीं करते हैं।
रयाल की नियुक्ति की तैयारी पत्रकारिता विभाग में एसोसिएट प्रोफेसर की वैकेंसी निकलने से पहले ही शुरू गयी थी। इसके लिए आरक्षण के रोस्टर में मनमाने तरीक़े से खिलवाड़ किया गया। 2015 में विश्वविद्यालय की तरफ़ से जारी विज्ञापन में ये पद उत्तराखंड की महिला उम्मीदवार के लिए आरक्षित था। लेकिन इस बार कुलपति की मनमानी से महिलाओं का 30 फीसदी आरक्षण पूरी तरह ख़त्म कर दिया गया। इतने बड़े मामले को तत्कालीन नेता विपक्ष इंदिरा हृदयेश ने विधानसभा में उठाने की बात भी की थी लेकिन उनकी मौत की वजह से मामला लटका रह गया। आरक्षण रोस्टर में विश्वविद्यालय के स्वीकृत नियमों की खिल्ली उड़ाने का अपराध भी साफ नजर आता है।
विश्वविद्यालय में आरक्षण लागू करने के लिए विभिन्न स्कूलों के क्रम में आरक्षण लागू करने की लिखित व्यवस्था है। उसके बाद स्कूलों के भीतर विभिन्न विभागों का नंबर आता है। कुलपति ने विभागों की पूर्व निर्धारित आरक्षण व्यवस्था की पूरी तरह अनदेखी कर दी। सही रोस्टर लागू होने पर इस सीट का रिजर्व होना तय था। (2015 और 2019 के विज्ञापन संग्लग्न हैं)। इससे साफ जाहिर होता है कि विभिन्न पदों पर डील के मुताबिक अपने उम्मीदवारों के चयन की प्रक्रिया पदों का विज्ञापन निकलने से पहले ही शुरू हो गई थी।
नियोजित तरीक़े से भ्रष्टाचार को अंजाम देने की पुष्टि इस बात से भी होती है कि विश्वविद्यालय के कुलाधिपति यानी राज्यपाल बेबी रानी मौर्य को इन पदों पर नियुक्ति में कुलपति की साजिश की खबर पहले ही मिल गई थी। राकेश रयाल की नियुक्ति से सात महीने पहले राज्यपाल के पास उनकी अवैध नियुक्ति की साजिश का पत्र पहुंच गया था। इस मामले में राज्यपाल ने उत्तराखंड शिक्षा विभाग और विश्वविद्यालय से जवाब मांगा था। लेकिन राजनीतिक संरक्षण के चलते इस मामले में कोई कार्रवाई नहीं हुई और शिकायती पत्र में बतायी गई डील के मुताबिक पूर्व निर्धारित 9 लोगों का चयन हो गया। जबकि इन पदों को राष्ट्रीय स्तर पर विज्ञापित किया जाता है। पंत नगर निवासी राजेश कुमार सिंह के इस पत्र की कॉपी आरटीआई के माध्यम से राज्यपाल ऑफिस से हासिल की गई है। (कॉपी संग्लग्न है)।
राज्यपाल को मिले पत्र की सच्चाई इस बात से भी पता चलती है कि विश्वविद्यालय ने बड़ी चालाकी से विज्ञापन में वे ही शर्तें जुड़वायी हैं जिससे कुछ खास लोगों को फ़ायदा पहुंचे। विज्ञापन में पत्रकारिता विभाग में जन संपर्क और विज्ञापन, शिक्षा विभाग में स्पेशल एजुकेशन और वोकेशनल स्टडीज का विज्ञापन उम्मीदवारों को देखकर निकाला गया। उसके शीर्षक में ही लिखा है कि जो विषय यूजीसी रेग्यूलेशन 2018 के तहत नहीं आते। लेकिन ऐसा करने वाले भूल गए कि इस रेग्यूलेशन के हिंदी संस्करण के विंदु संख्या 4 में पत्रकारिता और जनसंपर्क विधाओं के लिए लिखा गया है। अंग्रेजी संस्करण में इसे जर्नलिज़् एंड मास कम्यूनिकेशन कहा गया है। मास कम्यूनिकेशन के पाठ्यक्रमों में पत्रकारिता, मीडिया, विज्ञापन, जनसंपर्क सब आता है। इस चालाकी से साफ पता चलता है कि जिस विषय में नियम मौजूद हैं उन्हें यूजीसी रेग्यूलेशन से इतर बताने की कोशिश की गई है। 2015 में इसी पद के लिए निकले विज्ञापन में ऐसा कोई हेरफेर नहीं था।
रयाल की नियुक्ति के मामले में नियमों को तोड़मरोड़कर जितनी भी चालाकी दिखाने की कोशिश की गई है उनकी पोल रयाल के दस्तावेज और यूजीसी के रेग्यूलेशन्स खोल देते हैं। इस घोटाले पर से पर्दा हटने पर कई लोग सलाखों के पीछे नजर आ सकते हैं।