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पर्यावरण

Climate Change and PM Modi's Statement : जलवायु परिवर्तन पर प्रधानमंत्री के दावों को क्यों गंभीरता से नहीं ले रहे दुनिया के विशेषज्ञ ?

Janjwar Desk
6 Nov 2021 2:04 PM GMT
Climate Change and PM Modis Statement : जलवायु परिवर्तन पर प्रधानमंत्री के दावों को क्यों गंभीरता से नहीं ले रहे दुनिया के विशेषज्ञ ?
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पीएम मोदी ने पूर्वांचल एक्सप्रेस-वे का उद्घा​टन किया। 

Climate Change and PM Modi's Statement : जलवायु परिवर्तन पर प्रधानमंत्री के दावों का आधार खोजती दुनिया

वरिष्ठ पत्रकार महेंद्र पाण्डेय का विश्लेषण

Climate Change and PM Modi's Statement। पिछले वर्ष तक डोनाल्ड ट्रम्प (Donald Trump) के हरेक दावे के आधार दुनिया खोजती थी, पर ट्रम्प के जाने के बाद से मोदी जी के दावों की गहन पड़ताल की जाती है। 1 नवम्बर को जलवायु परिवर्तन (Climate Change) को नियंत्रित करने से सम्बंधित ग्लासगो में आयोजित कांफ्रेंस ऑफ़ पार्टीज के 26वें अधिवेशन (COP 26 at Glasgow) में प्रधानमंत्री मोदी (Narendra Modi) ने भारत को वर्ष 2070 तक कार्बन-न्यूट्रल (Carbon Neutral) करने का ऐलान कर सबको चौका दिया। इसके बाद से देश-विदेश के विशेषज्ञ प्रधानमंत्री के दावे का विश्लेषण करने में जुट गए – और अब तक इस सम्बन्ध में विश्लेषकों का दो वर्ग तैयार हो चुका है। एक वर्ग इसे साहसिक कदम बता रहा है, जबकि विश्लेषकों का दूसरा वर्ग इसे एक जुमला से अधिक कुछ नहीं मानता।

दुनिया के बहुत सारे पर्यावरण विश्लेषक प्रधानमंत्री मोदी के पर्यावरण संरक्षण के दावों को गंभीरता से नहीं लेते। प्रधानमंत्री पर्यावरण संरक्षण के प्रति जब गंभीरता की बात करते हैं तब उद्योगपतियों की मदद के लिए सारे पर्यावरण कानूनों को ध्वस्त (Dilution Of All Environment Related Laws) कर देते हैं। मोदी जी के शासनकाल में वायु प्रदूषण बढ़ता गया, नदियों में प्रदूषण बढ़ा, भू-उपयोग तेजी से बदला और जंगलों का दायरा सिमटता गया। मोदी जी को पर्यावरण विनाश कर इंफ्रास्ट्रक्चर परियोजनाओं को विकसित करने की लत है। सबसे गंभीर समस्या यह है कि प्रकृति और पर्यावरणविदों की बार-बार चेतावनी के बाद भी प्रधानमंत्री इसे नकारते हैं। उत्तराखंड की चार धाम हाईवे परियोजना इसका सबसे बड़ा उदाहरण है।

प्रधानमंत्री मोदी ने कोयला उत्पादन को आत्मनिर्भर भारत (Atmnirbhar Bharat) के नारे से जोड़ दिया है। पिछले वर्ष 41 नए कोयला ब्लॉक्स के नीलामी के समय प्रधानमंत्री ने कहा था कि भारत दुनिया का चौथा सबसे बड़ा कोयला उत्पादक है तो फिर यह सबसे बड़ा निर्यातक क्यों नहीं बन सकता – यानि मोदी जी केवल भारत में ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया में कोयले का उपयोग बढ़ाना चाहते हैं। इन ब्लॉक्स में से अधिकतर ब्लॉक्स घने जंगलों और वन्यजीवों के इलाके में हैं और इनसे वनवासियों का बड़े पैमाने पर विस्थापन होगा। इसी कारण से कांग्रेस शासन के दौरान इन कोयला भंडारों की नीलामी नहीं की गयी थी। पिछले वर्ष संयुक्त राष्ट्र के अधिवेशन में भारत के प्रतिनिधि ने बताया था कि देश में कोयले की खपत बढ़ रही है और इसका उपयोग आने वाले कई दशकों तक चलता रहेगा।

देश में कोयले की निर्भरता का नमूना पिछले महीने ही देखने को मिला था, जब अंतरराष्ट्रीय बाजार में कोयले के दाम बढ़ गए थे और दूसरी तरफ देश में कोयले में अचानक कमी आ गयी थी। तब पूरे देश के ताप-बिजली घरों में कोयले के भण्डार लगभग ख़त्म हो गए थे और विद्युत् उत्पादन ठप्प होने के कगार पर पहुँच गया था।

ग्लासगो में यूनाइटेड किंगडम की पहल पर दुनियाभर से कोयले के उपयोग को ख़त्म करने (to end use and production of coal) के लिए एक प्रस्ताव पारित किया गया है। इसके अनुसार अमीर देशों को वर्ष 2030 तक और गरीब देशों को 2040 तक कोयले के उपयोग को पूरी तरह बंद करना है, और इस प्रस्ताव पर कनाडा, पोलैंड, साउथ कोरिया, यूक्रेन और चिली जैसे 40 देश स्वीकृती के लिए हस्ताक्षर कर चुके हैं और साउथ अफ्रीका, इंडोनेशिया और फिलीपींस जैसे देश सहमती दे चुके हैं। दूसरी तरफ जलवायु परिवर्तन को रोकने के लिए अपने को चैम्पियन साबित करते ऑस्ट्रेलिया, चीन, भारत और अमेरिका जैसे देशों ने ना तो इस प्रस्ताव पर हस्ताक्षर किये हैं और ना ही सैद्धांतिक तौर पर स्वीकार करने की सहमती जताई है।

कार्बन न्यूट्रल के सन्दर्भ में अमेरिका और यूरोप की तुलना में भारत की स्थिति एकदम अलग है। हम विकासशील हैं और ऊर्जा की खपत लगातार बढ़ती रहेगी। देश को जितने इंफ्रास्ट्रक्चर परियोजनाओं की दरकार है उसमें से आधे से अधिक को अभी विकसित करना है, अगले दो दशों के दौरान सडकों पर 30 करोड़ से अधिक नए वाहन उतरेंगें, विजली हरेक जगह और हरेक समय उपलब्ध नहीं है, अगले 20 वर्षों के दौरान बिजली की मांग देश में दुनिया के किसी भी देश की तुलना में अधिक होगी और कुल बिजली उत्पादन में से 70 प्रतिशत से अधिक कोयले से बनती है।

सेंटर फॉर पालिसी रिसर्च के नवरोज़ दुबाश (Naroz Dubash oof Centre for Policy Research) के अनुसार प्रधानमंत्री के कार्बन न्यूट्रल का लक्ष्य की घोषणा सरकार के जलवायु परिवर्तन के प्रति जागरूक होने के कारण नहीं बल्कि अंतरराष्ट्रीय दबाव का परिणाम है। यदि गैर-परम्परागत ऊर्जा को छोड़ दे तो जलवायु परिवर्तन को नियंत्रित करने के लिए कोई भी योजना सरकार की नीतियों में नजर नहीं आती। सौर उर्जा और पवन उर्जा की तैयारी बड़े पैमाने पर की जा रही है पर इसे ग्रिड से जोड़ना और इसका भंडारण आज भी बड़ी समस्या है।। बड़े पैमाने पर सौर उर्जा के भंडारण के लिए बड़े पैमाने पर लिथियम बैटरी की जरूरत होगी और इसके बाद इसी बिजली की कीमत दोगुना तक बढ़ जायेगी। पन-बिजली योजनायें लगातार पर्यावरण का विनाश कर रही है। सबसे बड़ा तथ्य यह है कि आज भी कोयले से चलने वाले बिजली घरों को पर्यावरण स्वीकृति दी जा रही है और कोयले के उपयोग को कम करने या ख़त्म करने की कोई योजना नहीं है।

इन्टरनेशनल एनर्जी एजेंसी (International Energy Agency) ने कौंसिल ऑफ़ एनर्जी, एनवायरनमेंट एंड वाटर (Council of Energy, Environment and Water) के सहयोग से अध्ययन कर बताया है कि भारत को यदि वर्ष 2070 तक कार्बन न्यूट्रल का लक्ष्य पाना है तो वर्ष 2030 तक नवीनीकृत उर्जा के विकास में प्रतिवर्ष 150 अरब डॉलर का निवेश करना पड़ेगा, जबकि अभी महज 30 अरब डॉलर का निवेश किया जा रहा है। इसी तरह भारत को वर्ष 2030 तक इल्क्ट्रिकल कार और बाइक की संख्या को 40 प्रतिशत तक पहुंचाना पड़ेगा, जबकि वर्तमान में इनकी संख्या कुल वाहनों की संख्या का 1 प्रतिशत भी नहीं है।

जाहिर है, वर्ष 2070 तक देश को कार्बन न्यूट्रल करने की मोदी जी की घोषणा का कोई बहुत वैज्ञानिक या नीतिगत आधार नजर नहीं आता। इस घोषण से जलवायु परिवर्तन के नियंत्रण में तो कोई मदद नहीं मिलेगी पर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मोदी जी का कद कुछ और बढ़ गया और संभव है इस घोषण के बाद जलवायु परिवर्तन नियंत्रण के नाम पर तेजी से मदद मिलनी शुरू हो। इतना तय है कि अंतरराष्ट्रीय मदद के बाद हमारे देश में पर्यावरण का विनाश और बढेगा और अडानी-अम्बानी का व्यापार भी।

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