गंगा तुम बहती हो क्यों : सहती रहेंगी-मिटती रहेंगी यूँ ही स्त्रियाँ, गंगा और धरती!
केंद्र में बैठी हरेक सरकार गंगा की सफाई के दावे करती है, और इसे पहले से भी अधिक मैली कर जाती है (file photo)
महेंद्र पाण्डेय की टिप्पणी
जनज्वार। गंगा नदी देश की सबसे लम्बी (Ganga, longest river of India) और चर्चित नदी है और इस नदी पर खूब राजनीति की जाती है। इसे राष्ट्रीय नदी (national river) का दर्जा भी दिया गया है। केंद्र में बैठी हरेक सरकार गंगा की सफाई के दावे करती है, और इसे पहले से भी अधिक मैली कर जाती है। गंगा के जलग्रहण क्षेत्र (basin area of the river) में देश की लगभग एक-तिहाई आबादी रहती है और उसकी आशाएं और आकांक्षाएं इसी नदी से जुडी हैं। पंडित जवाहर लाल नेहरु (Pandit Jawaharlal Nehru) ने गंगा को जन-जन की नदी का दर्जा दिया था।
जाहिर है गंगा नदी कवियों के भी आकर्षण का केंद्र रही है और इस पर अनेक कवितायें समय-समय पर लिखी जाती रही हैं। प्रसिद्ध कवि और गीतकार पंडित नरेंद्र शर्मा (Pt। Narendra Sharma) ने गंगा पर एक कविता लिखी थी, गंगा तुम बहती हो क्यूँ। यह कविता कहीं किताबों के पन्नों में दबी रह जाती, पर प्रसिद्ध गायक भूपेन हजारिका (Bhupen Hajarika) ने इसे अपनी आवाज देकर इस कविता को अमर कर दिया।
भूपेन हजारिका ने इसका असमी भाषा में अनुवाद भी गाया। बाद में कविता कृष्णमूर्ति (Kavita Krishnmurti) ने भी इसे स्वर दिया था। गंगा पर यह बिलकुल अलग तरह की कविता है, जिसमें कहा गया है कि समाज की सारी समस्याओं पर गंगा मूकदर्शक क्यों है और इसके बाद भी क्यों बहती है।
गंगा तुम बहती हो क्यूँ?
विस्तार है अपार, प्रजा दोनों पार
करे हाहाकार निःशब्द सदा
ओ गंगा तुम
ओ गंगा बहती हो क्यूँ?
नैतिकता नष्ट हुई, मानवता भ्रष्ट हुई
निर्लज्ज भाव से बहती हो क्यूँ?
इतिहास की पुकार, करे हुंकार
ओ गंगा की धार
निर्बल जन को
सबल-संग्रामी, समग्रोगामी
बनाती नहीं हो क्यूँ?
अनपढ़ जन अक्षरहिन
अनगीन जन खाद्यविहीन
नेत्रविहीन दिक्षमौन हो क्यूँ?
इतिहास की पुकार, करे हुंकार
ओ गंगा की धार
निर्बल जन को
सबल-संग्रामी, समग्रोगामी
बनाती नहीं हो क्यूँ?
व्यक्ति रहे व्यक्ति केंद्रित
सकल समाज व्यक्तित्व रहित
निष्प्राण समाज को छोड़ती ना क्यूँ?
इतिहास की पुकार, करे हुंकार
ओ गंगा की धार
निर्बल जन को
सबल-संग्रामी, समग्रोगामी
बनाती नहीं हो क्यूँ?
रुदस्विनी क्यूँ न रहीं?
तुम निश्चय चितन नहीं
प्राणों में प्रेरणा देती ना क्यूँ?
उनमद अवमी कुरुक्षेत्रग्रमी
गंगे जननी, नव भारत में
भीष्मरूपी सुतसमरजयी जनती नहीं हो क्यूँ?
विस्तार है अपार, प्रजा दोनों पार
करे हाहाकार निःशब्द सदा
ओ गंगा तुम
ओ गंगा बहती हो क्यूँ?
शर्मिष्ठ पाण्डेय (Sharmishtha Pandey) की एक कविता है, सुनती हो गंगा। इस कविता में उन्होंने गंगा के माध्यम से स्त्री और धरती की समस्याओं को उजागर किया है और बताया है कि तीनों ही केवल भोग के लिए हैं।
सुनती हो गंगा
सुनती हो गंगा,
सुनती हो गंगा !!
तुम ऐसी तो न थी
निर्मल पवित्र पुण्यदायिनी हुआ करती थी न
क्या मिला तुम्हें यहाँ के कुछ नहीं ना
अच्छी भली थीं नीलकंठ की जटाओं में
मस्तक पर धरी थीं कितना सम्मान था ना तुम्हारा
जानती हो गंगा!!
हम इंसान ऐसे ही हैं
स्वार्थी क्षुधित निर्लज्ज और
और जाने दो क्या-क्या कहूँ
जब उन्हें तुम्हारी बेहद ज़रुरत थी
थी तो कैसे कैसे
जतन किये तुम्हारे लिए
दिन को दिन नहीं रात को रात नहीं
फिर तुम्हारा भोग करते करते तुम भी हो गयी ना
बेकार की इस्तेमाल के बाद हो जाने वाली व्यर्थ थैली जिसमें
डालने लग जाते सभी अपनी-अपनी उतरन मैल
गंगा!
ये जो धरती है न वसुंधरा खुरदुरी चमड़ी वाली
यहाँ इसका भी अपना कोई छोर नहीं
ये भी ना कल्पों से गोल-गोल घूमती हांफ रही
और हम इसे और दबाते हैं
घूम और घूम
सघन दबाव में घूमते रहना असह्य है है ना गंगा
जानती हो
हम किसी के नहीं खुद अपने भी नहीं
ये जो हम चलती-फिरती स्त्रियाँ हैं ना
ये देह नहीं एक दरांती हैं
जिनसे पुरुष अपने मौसम की प्रत्येक गदराई फसल
बेहद बेदर्दी से काटता है
और
जब काटते -काटते धार कुंद हो जाती
तो, पूरी निर्ममता से घिस डालता है पत्थर पर
घिस-घिस कर ख़त्म होने को आयीं ये दरांतियों वाली स्त्रियाँ
तब भी नहीं बख्शी जातीं
इन्हें फिर आग में तपाया जाता मृतप्राय हो चुकी देह में पुनः
नवयौवन भरने को
सुनो! सीता कहीं नहीं गयी
वो हर वस्तु में है और देती रहेगी अग्निपरीक्षा
वक्त है अभी वक्त है जाओ लौट जाओ
विशाल हृदया बनने का लोभ त्याग दो
इससे पहले की और संकरी हो जाए
तुम्हारे निकास 'गोमुख' का मुख
और लौटते हुए फंस कर छटपटाने लगो तुम
इससे पहले की घटते-घटते
केवल आँख का पानी बन कर रह जाओ तुम
इससे पहले की मैल से काली होकर तुम्हें
शिव पहचान ही न पायें और पुकार बैठे
"कालगंगा"
इतिहास साक्षी है अपना घर छोड़ने वाली
यूँ ही रौंदी जाती रहीं हैं पहचानी भी नहीं जातीं
जाओ गंगा ये जगह तुम्हारे लिए नहीं
हम ऐसी ही रहेंगी जीती रहेंगी
बीज बूँद और कण से जन्म लेती रहेंगी
सहती रहेंगी मिटती रहेंगी
यूँ ही
स्त्रियाँ, गंगा और धरती!
हिंदी साहित्य जगत में छायावाद के पुरोधा और मूर्धन्य कवि सुमित्रानंदन पन्त (Sumitranandan Pant) की प्रसिद्ध कविता है, गंगा। आज के दौर में पन्त जी को पढना स्वयं में एक अनोखा अनुभव है।
गंगा
अब आधा जल निश्चल, पीला,--
आधा जल चंचल औ', नीला--
गीले तन पर मृदु संध्यातप
सिमटा रेशम पट सा ढीला।
ऐसे सोने के साँझ प्रात,
ऐसे चाँदी के दिवस रात,
ले जाती बहा कहाँ गंगा
जीवन के युग क्षण,-- किसे ज्ञात!
विश्रुत हिम पर्वत से निर्गत,
किरणोज्वल चल कल ऊर्मि निरत,
यमुना, गोमती आदी से मिल
होती यह सागर में परिणत।
यह भौगोलिक गंगा परिचित,
जिसके तट पर बहु नगर प्रथित,
इस जड़ गंगा से मिली हुई
जन गंगा एक और जीवित!
वह विष्णुपदी, शिव मौलि स्रुता,
वह भीष्म प्रसू औ' जह्नु सुता,
वह देव निम्नगा, स्वर्गंगा,
वह सगर पुत्र तारिणी श्रुता।
वह गंगा, यह केवल छाया,
वह लोक चेतना, यह माया,
वह आत्म वाहिनी ज्योति सरी,
यह भू पतिता, कंचुक काया।
वह गंगा जन मन से नि:सृत,
जिसमें बहु बुदबुद युग नर्तित,
वह आज तरंगित, संसृति के
मृत सैकत को करने प्लावित।
दिशि दिशि का जन मत वाहित कर,
वह बनी अकूल अतल सागर,
भर देगी दिशि पल पुलिनों में
वह नव नव जीवन की मृद् उर्वर!
अब नभ पर रेखा शशि शोभित,
गंगा का जल श्यामल, कम्पित,
लहरों पर चाँदी की किरणें
करतीं प्रकाशमय कुछ अंकित!
इस लेख के लेखक ने भी लगभग आधी शताब्दी से चल रहे गंगा सफाई अभियान पर एक कविता लिखी है, जो गंगा को वर्षों से साफ़ कर रहे हैं।
जो गंगा को वर्षों से साफ़ कर रहे हैं
जो गंगा को वर्षों से साफ़ कर रहे हैं
वे फिर चहकने लगे हैं
उनके अच्छे दिन आ गए हैं
गंगा प्रदूषित रहेगी,
पर उसमें जलपोत और क्रूज तैर रहे हैं
प्रदूषण का नया स्त्रोत आ गया है
कुछ टेल, कुछ कचरा और कुछ रसायन बहेगा
नकारा हैं वे लोग जो सोचते हैं
नदियों पर जलजीवों और मछलियों का अधिकार
विकास यही तो है, आधी नदी को बांधों से बाँध दो
नीचे से अंधाधुंध रेत निकालो
बाकी नदी में पोतों को तैरने दो
कुछ लोगों की जेबें भरेंगी
गंगा साफ़ होगी तो बहुत लोग गरीब हो जायेंगे
यदि गंगा साफ़ करनी है
फरमान जारी करो
हरेक सुबह सभी बड़े अधिकारी
एक ग्लास गंगाजल पीयें
अगले कुछ महीनों में
या तो गंगा साफ़ हो जायेगी
या फिर, इसे साफ़ करने वाले साफ़ हो जायेंगे