हरियाणा के 'कबाड़ी' इंजीनियर की अनूठी पहल, प्लास्टिक की बेकार बोतलों से बनवा रहा गमले, डॉग शेल्टर और शौचालय
हिसार। प्लास्टिक आज पर्यावरण के प्रदूषण के लिए सबसे प्रमुख जिम्मेदार है। हरियाणा में प्लास्टिक से निपटने के लिए कुछ अनूठी पहल काम आ रही है। यहाँ प्लास्टिक की बोतलों का उपयोग दीवार के निर्माण में किया जा रहा है।
हरियाणा के हिसार में रहने वाले जतिन गौड़ ने लगभग दो साल पहले ही अपनी इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरी की है। कोर्स के दौरान उनका एक पेपर रुक गया था और इस वजह से वह कहीं जॉब ज्वाइन नहीं कर पाए। हालांकि बाद में उनका पेपर क्लियर हो गया लेकिन पढ़ाई पूरी करने के बाद भी वह घर पर ही थे और यह बात सिर्फ उनके परिवार या फिर नाते-रिश्तेदारों को ही नहीं खुद उन्हें भी खलती थी। लेकिन उन्हें समझ नहीं आता था कि क्या किया जाए?
जतिन ने द बेटर इंडिया को बताया, "कॉलेज के दौरान अक्सर हम बात करते थे कि समाज के लिए कुछ करना है। मेरा एक दोस्त 'यूथ अगेंस्ट रेप' के साथ जुड़ा हुआ है और मैं भी सोचता था कि मैं ऐसा क्या करूँ जिसे करने से मुझे ख़ुशी और आत्म-संतुष्टि मिले। तब मैं अक्सर ऑनलाइन चेक करता था कि क्या किया जा सकता है? पर्यावरण से जुड़े मुद्दों पर आर्टिकल आदि पढ़ता था और मैंने महसूस किया कि हमारे चारों तरफ हर एक चीज़ में प्लास्टिक मौजूद है लेकिन हमें दिखाई नहीं पड़ता और इसकी वजह से पृथ्वी का अस्तित्व खतरे में है।"
जतिन ने इंटरनेट पर अलग-अलग तरीके तलाशना शुरू किया, जिससे कि वह कचरे के ढेर को इकट्ठा होने से रोक सकें। उन्हें सस्टेनेबिलिटी के तीन R का कांसेप्ट पता चला। पहला रेड्युज़, रियुज और फिर रिसायकल!
"वैसे तो मुझे रीसाइक्लिंग का कांसेप्ट सबसे अच्छा लगा लेकिन मेरे पास इतने साधन नहीं थे कि मैं रीसाइक्लिंग का सेट-अप कर पाता। उस समय मुझे लगा कि मुझे रिड्यूज और रियूज पर फोकस करना चाहिए। फिर मैंने यह तलाशना शुरू किया कि कैसे प्लास्टिक वेस्ट का छोटे स्तर पर निपटान किया जा सकता है और एक दिन इंटरनेट पर मैंने इको ब्रिक्स के बारे में पढ़ा," उन्होंने आगे कहा।
आखिर क्या है इको ब्रिक?
प्लास्टिक की पुरानी-बेकार बोतलों को फेंकने की बजाय इनमें प्लास्टिक के रैपर जैसे चिप्स आदि के पैकेट्स या पॉलिथीन को भरकर इनका ढक्कन बंद कर दें। इन बोतलों का इस्तेमाल ईंटों की जगह निर्माण कार्यों के लिए किया जा सकता है और इसलिए ही इन्हें 'इको-ब्रिक्स' कहते हैं। क्योंकि इनसे हम पर्यावरण को बचा रहे हैं।
जतिन ने इस कांसेप्ट को पढ़ने और समझने के बाद अपने आस-पास के लोगों को नोटिस किया तो उन्हें समझ में आया कि कई लोग है जो अपने शौक-शौक में प्लास्टिक वेस्ट का निपटान कर रहे हैं। जैसे उनके एक अंकल पुरानी प्लास्टिक की बोतलों से प्लांटर बनाते हैं। वर्टीकल और हैंगिंग गार्डन में इनका अच्छा इस्तेमाल हो रहा है। लेकिन इको-ब्रिक्स का उपयोग होते हुए उन्हें अपने आस-पास नहीं दिखा। ऐसे में, उन्होंने तय किया कि वह लोगों को इस बारे में जागरूक करेंगे।
"मैंने ऑनलाइन पढ़ा कि अमेरिका में इको-ब्रिक्स से सैकड़ों स्कूलों का निर्माण किया गया है। मैंने भी ठान लिया कि मैं इसी क्षेत्र में आगे बढ़ूँगा और मैंने खुद ही प्लास्टिक की बोतलें इकट्ठा करना शुरू किया। कुछ कबाड़ी से भी खरीदी और एक-दो लोगों को लगाकर उनमें प्लास्टिक भरने को कहा। इस काम के लिए मैंने उन्हें दो रूपये प्रति बोतल दिए," उन्होंने कहा।
लेकिन जतिन का यह आईडिया काम नहीं किया क्योंकि एक तो इसमें पैसे की इन्वेस्टमेंट थी और वह कुछ कमा नहीं रहे थे। उनके परिवार का भी ज़्यादा सहयोग उन्हें नहीं मिल पाया क्योंकि वह आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर नहीं थे। उनके पिता ने उनसे कहा कि पहले वह अपने पैरों पर खड़े होने के बारे में सोचें। जतिन को समझ नहीं आया कि वह क्या करें?
पर कहते हैं न कि जहाँ चाह होती है, वहाँ राह होती है। जतिन ने अपनी पहल के लिए अपनी राह खुद बनाई। उन्होंने सोचा कि क्यों न शुरूआत उनसे की जाए जो न सिर्फ आज बल्कि आने वाले कल को भी सवारेंगे यानी कि बच्चे। उन्होंने बच्चों को अपनी इस पहल से जोड़ने का मन बनाया और शुरूआत उसी स्कूल से की, जहाँ वह खुद पढ़े थे। उन्होंने स्कूल में प्रिंसिपल और शिक्षकों को अपने इस अभियान के बारे में बताया ताकि प्लास्टिक प्रदूषण को कुछ हद तक रोका जाये।
स्कूल में उनकी बात को समझा गया और वहाँ उन्हें बच्चों के साथ सेमिनार करने की अनुमति मिल गयी। जतिन ने बच्चों को सिखाया कि कैसे इको-ब्रिक्स बनाया जाता है। उन्होंने बच्चों को समझाया कि अब से वह किसी भी तरह के प्लास्टिक रैपर या पॉलिथीन आदि को फेकेंगे नहीं बल्कि अपने आस -पास से पुरानी बेकार प्लास्टिक की बोतलें इकट्ठा करके उनमें भरेंगे और इको-ब्रिक्स बनाएंगे। धीरे-धीरे छात्रों को भी इस काम में मजा आने लगा और देखते ही देखते उन्हें एक स्कूल से 700 इको-ब्रिक्स मिल गयी।
इन इको-ब्रिक्स से उन्होंने स्कूल में ही बच्चों से गमले बनवाए और एक बड़े से बरगद के पेड़ के नीचे बैठने के लिए बॉउंड्री भी बनवायी गयी। अन्य सामग्री जैसे सीमेंट आदि का खर्च स्कूल ने उठाया। एक स्कूल में इस तरह की इको-फ्रेंडली गतिविधियाँ होते देख और भी स्कूलों ने उन्हें संपर्क किया। वह बताते हैं कि जैसे-जैसे मांग बढ़ने लगी तो उन्होंने शहर के एक-दो कैफ़े से बात की और उन्हें अपना प्लास्टिक वेस्ट यानी की खाली बोतलें और रैपर आदि उन्हें देने के लिए कहा।
"कैफ़े वैसे भी यह कचरा उठाने के लिए नगर निगम को फीस देते हैं। उन्होंने जब मेरा कांसेप्ट सुना तो वह मान गए और मेरे लिए बोतलें आदि को अलग रखने लगे। इस तरह से बोतलें इकट्ठी करके और स्कूल के बच्चों से इको-ब्रिक बनवाकर हमने एक स्कूल में शौचालय के लिए दीवार और एक जगह छोटा-सा डॉग शेल्टर बनाया," उन्होंने बताया।
ऐसा नहीं है कि स्कूल में बच्चों के साथ काम करना उनके लिए आसान रहा। क्योंकि जहाँ बच्चों को इस गतिविधि में मजा आ रहा था वहीं उनके माता-पिता इसके खिलाफ थे। कई बच्चों के अभिभावक स्कूल पहुँचे और उन्हें इस गतिविधि के बारे में पूछा और यह भी कहा कि इससे बच्चों का ध्यान भटकता है। लेकिन जतिन ने और कुछ शिक्षकों ने उन्हें इस तरह के विषयों के बारे में समझाया। इस बारे में विस्तार से बात की गयी और उन्हें समझाने की कोशिश की गयी कि अगर अब से ही बच्चों को प्लास्टिक के हानिकारक प्रभावों के बारे में पता होगा तो वह आगे अपने जीवन में कम से कम प्लास्टिक इस्तेमाल करने का सोचेंगे।
"हम सबको यह समझने की ज़रूरत है कि बचपन में जो अच्छी आदतें आप बच्चों में डालते हैं वह ज़िन्दगी भर साथ रहतीं हैं। यह मुश्किल ज़रूर है लेकिन नामुमकिन नहीं। बस हमें थोड़ा धैर्य से काम लेने की ज़रूरत है।"
उन्होंने अपनी इस पूरी पहल को 'कबाड़ी जी' नाम दिया है और इसी के ज़रिए वह धीरे-धीरे हिसार शहर में बदलाव लाने की कोशिश में जुटे हैं। साथ ही, सोशल मीडिया के ज़रिए वह लोगों को जागरूक कर रहे हैं। लॉकडाउन से पहले जतिन ने एक कॉलेज मैनेजमेंट से बात करके कैंपस में इको-ब्रिक्स से एक कैफ़ेटेरिया बनाने का प्रोजेक्ट एप्रूव कराया था। जिस पर कुछ समय पहले उन्होंने काम शुरू किया है। जतिन कहते हैं कि एक-दो महीने में यह बनकर तैयार हो जायेगा।
अब उन्हें और भी स्कूल-कॉलेज से संपर्क किया जाने लगा है ताकि वह इस तरह के अभियान से उनके यहाँ कोई निर्माण कार्य करा सकें। जतिन कहते हैं कि उन्हें दूसरे शहरों से भी लोग पूछते हैं कि क्या वह उन्हें इस तरह से इको-ब्रिक्स बनाकर भेज सकते हैं। लेकिन उनका मानना है कि इको-ब्रिक कांसेप्ट तभी सही मायनों में कामयाब होगा यदि प्लास्टिक के कचरे को स्थानीय तौर पर मैनेज किया जाए। वह कहते हैं कि अगर लोग ट्रांसपोर्ट करेंगे तो यह प्रक्रिया महंगी पड़ेगी और फिर पैकेजिंग आदि में और वेस्ट पैदा होगा।
इसलिए अच्छा यही है कि लोग अपने आस-पास ऐसे लोगों को तलाशें जो इको-ब्रिक्स पर काम कर रहे हैं। यदि कोई न मिले तो किसी युवा को खुद अपने शहर की ज़िम्मेदारी उठानी चाहिए। इसमें कोई ज़्यादा मेहनत नहीं है, बस आपको अवसर तलाशना है और लोगों को जागरूक करना है।
जतिन पिछले लगभग 2 साल से यह काम कर रहे हैं और धीरे-धीरे अपनी मुहिम में आगे बढ़ रहे हैं। इसके साथ ही, आजीविका के लिए वह बच्चों को ट्यूशन पढ़ाते हैं जिससे कि उनका जेब खर्च निकल आता है। फ़िलहाल, उनकी कोशिश इसी क्षेत्र में आगे बढ़कर अपनी राह तलाशने की है ताकि वह अपने साथ-साथ देश और पर्यावरण के लिए कुछ कर पाएं।
बेशक, जतिन गौड़ की यह पहल काबिल-ऐ-तारीफ है क्योंकि वह अब तक हज़ारों प्लास्टिक की बोतलों और अन्य हानिकारक प्लास्टिक वेस्ट को नदी-नालों और लैंडफिल में जाने से रोक चुके हैं। हमें उम्मीद है कि उनसे प्रभावित होकर और भी युवा आगे आएंगे और इस नेक पहल को एक चेन बनाने का प्रयास करेंगे।
अगली बार आप अपने हाथ में एक प्लास्टिक की बोतल पकड़ते हैं तो यह सोचने की कोशिश करें कि इसे फेंकने के अलावा और क्या किया जा सकता है।
(यह रिपोर्ट 'द बेटर इंडिया' से साभार ली गई है। यदि आप इस पहल के बारे में जानना चाहते हैं तो जतिन गौड़ से 090531 22979 पर संपर्क कर सकते हैं।)