Begin typing your search above and press return to search.
जनज्वार विशेष

कट्टर हिंदुत्व के चंगुल में फंसते पिछड़े 15 प्वाइंट में जानें जिन अंबेडकर को वह सिर्फ दलितों का मसीहा मानते हैं, उन्होंने क्या किया उनके लिये

Janjwar Desk
23 Aug 2023 5:20 PM IST
कट्टर हिंदुत्व के चंगुल में फंसते पिछड़े 15 प्वाइंट में जानें जिन अंबेडकर को वह सिर्फ दलितों का मसीहा मानते हैं, उन्होंने क्या किया उनके लिये
x

file photo

सामाजिक श्रेष्ठता के भ्रम के कारण पिछड़ी जातियां डॉ. आंबेडकर को अपना नेता न मानकर दलितों का नेता ही मानती आई हैं. यह इसलिए भी है क्योंकि अधिकतर पिछड़ी जातियां सवर्ण हिन्दुओं के प्रभाव में रही हैं और उन्हें डॉ. आंबेडकर के बारे में बराबर भ्रमित किया जाता रहा है....

पूर्व आईपीएस एसआर दारापुरी की टिप्पणी

डॉ. आंबेडकर को प्रायः दलितों के उद्धारक के रूप में पहचाना जाता है, जबकि वे सभी पददलित वर्गों दलितों और पिछड़ों के अधिकारों के लिए लड़े थे. परन्तु वर्ण व्यवस्था के कारण पिछड़ी जातियां जो कि शूद्र हैं, अपने आप को अछूतों (दलितों) से सामाजिक सोपान पर ऊँचा मानती हैं. एक परिभाषा के अनुसार पिछड़ी जातियां शूद्र हैं तो दलित जातियां अति शूद्र हैं. अंतर केवल इतना है कि पिछड़ी जातियां सछूत और दलित जातियां अछूत मानी जाती हैं.

यह भी एक ऐतिहासिक सच्चाई है कि सछूत होने के कारण पिछड़ी जातियों का कुछ क्षेत्रों में अछूतों से अधिक शोषण हुआ है. यह भी उल्लेखनीय है कि पिछड़ी जातियां कट्टर हिन्दूवाद के चंगुल में फंसी रही हैं, जबकि दलित हिन्दू धर्म के खिलाफ निरंतर विद्रोह करते रहे हैं.

सामाजिक श्रेष्ठता के भ्रम के कारण पिछड़ी जातियां डॉ. आंबेडकर को अपना नेता न मानकर दलितों का नेता ही मानती आई हैं. यह इसलिए भी है क्योंकि अधिकतर पिछड़ी जातियां सवर्ण हिन्दुओं के प्रभाव में रही हैं और उन्हें डॉ. आंबेडकर के बारे में बराबर भ्रमित किया जाता रहा है, ताकि वे डॉ. आंबेडकर की विचारधारा से प्रभावित होकर दलितों के साथ एकता स्थापित न कर लें और सवर्णों के लिए बड़ी चुनौती पैदा न कर दें. पिछड़ों और दलितों में इस दूरी के लिए दलित और पिछड़ों के नेता भी काफी हद तक जिम्मेवार हैं, जो कि जाति की राजनीति करके अपनी रोटी सेंकते रहे हैं.

अब अगर ऐतिहासिक परिपेक्ष्य में देखा जाये तो डॉ. आंबेडकर ने जहाँ पददलित जातियों के अधिकारों के लिए जीवनभर संघर्ष किया वहीं उन्होंने पिछड़ी जातियों के अधिकारों के लिए भी निरंतर संघर्ष किया. इस तथ्य की पुष्टि निम्नलिखित तथ्यों से होती है:-

1. डॉ. आंबेडकर की उच्च शिक्षा में बड़ौदा के महाराजा सायाजी राव गायकवाड जो कि पिछड़ी जाति के थे और उन्होंने उन्हें अमेरिका में पढ़ने के लिए छात्रवृति दी थी, का बहुत बड़ा योगदान था.

2. डॉ. आंबेडकर को सहायता और योगदान देने वाले पिछड़ी जाति के दूसरे व्यक्ति छत्रपति साहू जी महाराज थे.

3. डॉ. आंबेडकर के रामास्वामी नायकर जो दक्षिण भारत के गैर ब्राह्मण आन्दोलन के अगुवा थे, से सम्बन्ध बहुत अच्छे थे.

4. डॉ. आंबेडकर पिछड़ी जाति के समाज सुधारक ज्योति राव फुले की सामाजिक विचारधारा से बहुत प्रभावित थे.

5. डॉ. आंबेडकर ने ट्रावनकोर (केरल) में इज़ावा जो कि पिछड़ी जाति है, के समानता के आन्दोलन का समर्थन किया था.

6. डॉ.आंबेडकर ने ही 1928 में साईमन कमीशन के सामने भारत के भावी संविधान में पिछड़ी जातियों के लिए सरकारी नौकरियों में आरक्षण की वकालत की थी.

7. डॉ. आंबेडकर ने संविधान निर्मात्री सभा के अध्यक्ष के रूप में सरकारी नौकरियों में आरक्षण के सम्बन्ध में संविधान की धारा 15 (4) में “बैकवर्ड” शब्द का समावेश करवाया था जो बाद में सामाजिक और शैक्षिक तौर से पिछड़ी जातियों के लिया आरक्षण का आधार बना.

8. डॉ. आंबेडकर के प्रयास से ही संविधान की धारा 340 में पिछड़ी जातियों की पहचान करने के लिए आयोग की स्थापना किये जाने का प्रावधान किया गया.

9. डॉ. आंबेडकर ने 1942 में शैडयूल्ड कास्ट्स फेडरेशन नाम से जो राजनैतिक पार्टी बनाई थी उस की नीति में यह उल्लिखित था कि पार्टी पिछड़ी जातियों और जन जातियों का प्रतिनिधित्व करने वाली पार्टियों के साथ गठजोड़ को प्राथमिकता देगी और अगर ज़रूरत पड़ी तो पार्टी अन्य पिछड़ा वर्ग का प्रतिनिधित्व करने के लिए अपना नाम बदल कर “बैकवर्ड क्लासेज़ फेडरेशन” कर लेगी. अतः पार्टी ने उस समय सोशलिस्ट पार्टी से भी चुनावी गठजोड़ किया था.

10. 1951 में जब डॉ. आंबेडकर ने हिन्दू कोड बिल को लेकर कानून मंत्री के पद से इस्तीफा दिया था तो उस में उन्होंने कहा था, “मैं एक दूसरा मामला संदर्भित करना चाहूँगा जो मेरे इस सरकार से असंतोष का कारण है. यह पिछड़ी जातियों और अनुसूचित जातियों के साथ इस सरकार द्वारा किये गए बर्ताव के बारे में है. मुझे इस बात का दुःख है कि संविधान में पिछड़ी जातियों के लिए कोई भी संरक्षण नहीं किया गया है. इसे राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त किये जाने वाले आयोग की संस्तुतियों के आधार पर सरकारी आदेश पर छोड़ दिया गया है. हमें संविधान पारित किये एक वर्ष से अधिक हो गया है परन्तु सरकार ने अभी तक आयोग नियुक्त करने का सोचा भी नहीं है.” इस से आप अंदाज़ा लगा सकते हैं कि डॉ. आंबेडकर पिछड़े वर्गों के हित के बारे में कितने चिंतित थे.

11. कानून मंत्री के पद से इस्तीफा देने के बाद लखनऊ विश्वविद्यालय के छात्रों को संबोधित करते हुए पिछड़ी जातियों की उपेक्षा के बारे में चेतावनी देते हुए डॉ. आंबेडकर ने कहा था,” अगर वे अपने समानता का दर्जा पाने के प्रयासों में मायूस हुए तो “शैडयूल्ड कास्ट्स फेडरेशन” कम्युनिस्ट व्यवस्था को तरजीह देगी और देश का भाग्य डूब जायेगा.” इस से भी अंदाज़ा लगाया जा सकता है की डॉ. आंबेडकर पिछड़े वर्गों के हित के बारे में कितने प्रयत्नशील थे. पिछड़े वर्गों के हितों की उपेक्षा की बात उन्होंने बम्बई के नारे पार्क में एक बड़ी जन सभा में भी दोहराई थी.

12. डॉ. आंबेडकर द्वारा पिछड़ी जातियों के मुद्दे को लेकर पैदा किये गए दबाव के कारण ही नेहरु सरकार को 1951 में काका कालेलकर की अध्यक्षता में प्रथम पिछड़ा वर्ग आयोग नियुक्त करना पड़ा. यह बात अलग है कि सरकार ने इस आयोग की संस्तुतियों को नहीं माना बल्कि आयोग के अध्यक्ष को ही आयोग की संस्तुतियों (आरक्षण का जातिगत आधार) के विपरीत मंतव्य देने के लिए बाध्य कर दिया गया.

13. डॉ. छेदी लाल साथी जो कि सत्तर के दशक में रिपब्लिकन पार्टी ऑफ़ इंडिया, उत्तर प्रदेश के अध्यक्ष थे, ने मुझे बताया था कि 1951 में मंत्री पद से त्याग पत्र देने के बाद बाबासाहेब बहुत मायूस थे. उस समय पिछड़े वर्ग के नेता रामलखन चंदापुरी, एस.डी.सिंह चौरसिया और अन्य लोगों ने उन्हें कहा कि आप घबराएं नहीं, हम सब आपके साथ हैं. इसी ध्येय से उन्होंने पटना में पिछड़ा वर्ग की एक रैली का आयोजन किया था जिसमें बहुत बड़ी भीड़ जुटी थी. इस से बाबासाहेब बहुत प्रभावित हुए थे और वे फिर दलितों और पिछड़ों की राजनीति में सक्रिय हुए.

14. इस सम्बन्ध में डॉ. छेदी लाल साथी ने अपनी पुस्तक " दलितों व पिछड़ी जातियों की स्थिति" के पृष्ठ 113 पर लिखा है, “पटना से वापस आने के बाद बाबासाहेब ने अपने साथियों से विचार विमर्श करके शैडयूल्ड कास्ट्स फेडरेशन ऑफ़ इंडिया को भंग करके उसके स्थान पर रिपब्लिकन पार्टी ऑफ़ इंडिया के गठन का फैसला लिया क्योंकि सन 1952 और 1954 में दो बार चुनाव हारने के बाद बाबासाहेब ने महसूस किया कि अनुसूचित जातियों की आबादी तो केवल 20% ही है और जब तक उनको 52% पिछड़े वर्ग का समर्थन नहीं मिलेगा, वह चुनाव में नहीं जीत पाएंगे. अतः बाबासाहेब ने पिछड़े वर्ग के नेतायों, विशेष करके शिवदयाल सिंह चौरसिया आदि से मशवरा करके रिपब्लिकन पार्टी ऑफ़ इंडिया में 20% दलित वर्ग के आलावा 52% पिछड़े वर्ग के लोगों तथा 12% आबादी वाले मुसलमान, ईसाई और सिखों को भी सम्मिलित करने का निर्णय लिया. एक साल से अधिक समय रिपब्लिकन पार्टी का संविधान बनाने और सलाह मशविरा में निकल गया."

इस दृष्टि से पटना की यह रैली ऐतिहासिक थी क्योंकि इस में दलितों और पिछड़ों की एकता की नींव डली थी. बाबासाहेब ने नागपुर में 15 अक्तूबर, 1956 को शैडयूल्ड कास्ट्स फेडरेशन ऑफ़ इंडिया को भंग करके उसके स्थान पर रिपब्लिकन पार्टी ऑफ़ इंडिया की स्थापना करने की घोषणा की थी. 1957 से 1967 तक इन वर्गों की एकता पर आधारित रिपब्लिकन पार्टी ऑफ़ इंडिया एक बड़ी राजनैतिक ताकत के रूप में उभरी थी परन्तु बाद में कांग्रेस जिस के लिए यह पार्टी सब से बड़ा खतरा बन गयी थी, ने दलित नेताओं की कमजोरियों का फायदा उठा कर उन्हें खरीद लिया और यह पार्टी कई टुकड़ों में बंट गयी. बाद में उभरी बसपा जैसी पार्टी ने भी इस गठबंधन को तहस नहस कर दिया.

15. अपने जीवन के अंतिम वर्षों में बाबासाहेब ने दलितों और पिछड़ों की एकता स्थापित करने के लिए पिछड़े वर्गों के नेता राम मनोहर लोहिया आदि से संपर्क स्थापित भी किया और उन के बीच पत्राचार भी हुआ था. परन्तु दुर्भाग्य से जल्दी ही बाबासाहेब का परिनिर्वाण हो गया और वह गठबंधन नहीं बन सका.

उपरोक्त विवरण से स्पष्ट है कि डॉ. आंबेडकर ने न केवल दलितों हितों के लिए ही संघर्ष किया बल्कि वे जीवन भर पिछड़े वर्ग के हितों के लिए भी प्रयासरत रहे. उन के प्रयास से ही संविधान में पिछड़े वर्गों के लिए सरकारी नौकरियों में आरक्षण का प्रावधान हो सका और उन द्वारा पैदा किये गए दबाव के कारण ही प्रथम पिछड़ा वर्ग आयोग गठित हुआ. बाद में मंडल आयोग गठित हुआ और पिछड़े वर्ग को सरकारी नौकरियों और शिक्षा में आरक्षण मिला जिस के लिए पिछड़े वर्ग को बाबासाहेब का अहसानमंद होना चाहिए.

अतः पिछड़े वर्ग को उन के उत्थान के लिए बाबासाहेब के योगदान को स्वीकार करना चाहिए. वर्तमान की नयी चुनौतियों के परिपेक्ष्य में इन वर्गों की एकता को पुनर स्थापित करने की ज़रूरत है. यह बात भी सही है कि दलितों और पिछड़ों में कुछ वर्गीय अन्तर्विरोध हैं जिन्हें हल किये बिना आगे नहीं बढ़ा जा सकता. यह सर्विदित है कि दलित, अति पिछड़े (हिंदू, ईसाई और मुसलमान) कुदरती दोस्त हैं. यह समीकरण जातिगत न होकर साझे मुद्दों पर ही आधारित हो सकता है, जो कि देश में बहुसंख्यकवाद और हिन्दुत्ववादी राजनीति का सामना कर सकता है.

(एसआर दारापुरी आल इंडिया पीपुल्स फ्रंट के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं।)

Next Story