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कोरोना लाॅकडाउन में घरेलू कचरे की मात्रा में बड़ा इजाफा, साबुन-फेसमास्क ने भी किया पर्यावरण को बुरी तरह प्रदूषित
file photo
वरिष्ठ लेखक महेंद्र पाण्डेय की टिप्पणी
जनज्वार। कोविड 19 के दौर में जब देशव्यापी लॉकडाउन लगाया गया था, तब कहा गया था कि प्रदूषण कम हो गया है, और पर्यावरण सुधर रहा है। सतही तौर पर ऐसा सही महसूस होता है, पर कोविड 19 के दौर ने पर्यावरण को एकदम अलग तरीके से प्रभावित किया है। लॉकडाउन के दौर में पूरी आबादी अपने घरों में बंद थी तो जाहिर है घरों में पानी का उपयोग भी बढ़ा होगा, घरों से गन्दा पानी पहले से अधिक मात्रा में उत्पन्न हो रहा होगा। हमारे देश की नदियों में कुल प्रदूषण में से घरों से निकले गंदे पानी का योगदान 70 प्रतिशत से भी अधिक रहता है।
सवाल केवल गंदे पानी की मात्रा का ही नहीं है, बल्कि इसमें तरह-तरह के रसायनों की मौजूदगी का भी है। कोविड 19 के शुरुआती दौर में समय-समय पर साबुन से हाथ धोने की सलाह दी गई थी, और लोगों ने इसका खूब पालन भी किया। इस सन्दर्भ में कोई वैज्ञानिक अध्ययन तो अब तक सामने नहीं आया है, पर साबुन के अधिक इस्तेमाल से निश्चित तौर पर पानी में डिटर्जेंट की मात्रा कई गुना अधिक बढी होगी, जो जलीय जीवों के लिए खतरनाक है।
इसी तरह तरह-तरह के डिसइनफेक्टेंट की खपत भी खूब बढ़ गई है, और आज तक इनका भरपूर इस्तेमाल किया जा रहा है। इससे अनेक रसायन लगातार हवा में मिलते हैं और पानी तक भी पहुंचते हैं। इनमें अनेक खतरनाक रसायनों का उपयोग भी किया जाता है।
कोविड 19 के दौर ने फेस-मास्क और प्लास्टिक/रबर के दस्तानों को घर-घर तक पहुंचा दिया। इस तरीके के सुरक्षा उपकरण बेकार होते ही घरों या फिर कार्यालयों के डस्टबिन तक पहुँच जाते हैं। आज भी सड़क पर खुले में गिरे दस्ताने और फेसमास्क एक सामान्य बात है। इन गिरे या फिर कचरें में फेंके दस्तानों को कचरा बीनने वाले लोग उठाकर इसे अपने उपयोग में लाना शुरू करते हैं।
यह एक सामान्य सा तथ्य है कि ऐसे सुरक्षा उपकरणों को लापरवाही से फेंकने के पहले कोई ना तो उन्हें साबुन से धोता है और ना ही उन्हें डिसइन्फेक्टेंट से विषाणु रहित करता है, इसलिए ऐसे फेसमास्क या दस्तानों से केवल कोविड 19 की ही नहीं बल्कि दूसरे अनेक संचारी रोगों के फैलाने की संभावना रहती है।
फेसमास्क और दस्तानों का खूब प्रचार किया गया, पर इसके बेकार होने पर क्या करना है यह जनता को कभी नहीं बताया गया। यदि इन सुरक्षा उपकरणों को फेंकने के पहले साबुन से धो दिया जाए, या फिर उनपर कीटाणुनाशक रसायनों का छिड़काव किया जाए, तब ये कुछ हद तक सुरक्षित हो सकते हैं।
कोविड 19 के दौर में किसी भी रोग की आशंका होने पर पैथोलोजिकल जांच के लिए घरों से ही खून या फिर दूसरे नमूनों को लेने की प्रक्रिया सामान्य हो चली थी। यह पूरी प्रक्रिया सुविधाजनक तो है, पर इस दौरान अधिकतर घरों के कचरे के साथ ही जांच के दौरान उत्पन्न रुई, पट्टी, सिरिंज जैसी चीजें भी मिलने लगीं। जिस बायो-मेडिकल कचरे के प्रबंधन के लिए बड़े पैमाने पर दिशा निर्देश बनाए गए हैं, वही कचरा घरेलू कचरे का एक हिस्सा बन जाता है, और फिर घरेलू कचरे की तरह ही इसका प्रबंधन किया जाता है। अनेक मामलों में ऐसा कचरा बहुत खतरनाक भी हो सकता है।
कोविड 19 ने निश्चित तौर पर हमारे तौर-तरीके बदल डाले हैं, और इसके साथ ही पर्यावरण को भी बिलकुल अलग अंदाज में प्रभावित किया है। समस्या यह है कि सतही तौर पर प्रदूषण के कम होने की चर्चा तो खूब की गई, पर इन नए तरीके की समस्याओं को पूरी तरीके से नजरअंदाज कर दिया गया।